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बीएचयू में मनुस्मृति पर शोध कराए जाने का विरोध जारी

भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा के सदस्यों का आरोप है कि सत्ता में बैठे लोगों ने ब्राह्मणवाद को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए इस मनुस्मृति रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए भारी-भरकम धनराशि स्वीकृति कराई है। सत्ता की शह पर विश्वविद्यालय में जातिवादी और सांप्रदायिक माहौल बनाने के लिए झूठ और भ्रम का वितंडा खड़ा किया जा रहा है। बता रहे हैं स्वदेश कुमार सिन्हा

डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जब 25 दिसंबर, 1927 में महाराष्ट्र के महाड़ गांव में मनुस्मृति का‌ प्रतीकात्मक रूप से दहन किया था, तब उनका मानना था कि मनुस्मृति समाज में दलितों और महिलाओं के‌ ख़िलाफ़ घृणा और नफ़रत के विचारों का प्रचार-प्रसार करती है। इस घटना के इतने वर्ष बीत जाने के बाद और हर साल इसका आयोजन किए जाने के बावजूद भी भारतीय समाज में मनुस्मृति में निहित विचार अभी भी जीवित हैं। केंद्र में भाजपा राज आने के बाद सारे देश में मनुस्मृति में निहित प्रतिक्रियावादी विचारों का‌ बहुत तेजी से पोषण किया जा रहा है। इसका एक उदाहरण बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में देखने में आया है। वहां मनुस्मृति पर शोध के लिए फेलोशिप देने का निर्णय लिया गया है। हालांकि इसका विरोध भी किया जा रहा है। 

एक तरफ भगत सिंह स्टूडेंट्स मोर्चा (बीएसएम) मनुस्मृति पर नए रिसर्च प्रोजेक्ट का विरोध कर रहा है तथा उसकी प्रतियां प्रतीकात्मक रूप से जला रहा है, तो दूसरी ओर भाजपा के आनुषंगिक संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) ‘मनुस्मृति दहन’ के विरोध में खड़ा हो गया है। 

बीएसएम के सदस्यों ने बीते 25 दिसंबर, 2023 की शाम विश्वविद्यालय कला संकाय के परिसर में मनुस्मृति दहन का आयोजन किया। इस दौरान ब्राह्मणवाद के महिमामंडन की आलोचना करते हुए ‘ब्राह्मणवाद-मुर्दाबाद’, ‘मनुवाद-मुर्दाबाद’ और ‘जातिवाद को धवस्त करो’ जैसे नारे भी लगाए गए। यह मोर्चा पिछले कई दिनों से मनुस्मृति के ख़िलाफ़ मुहिम चला रहा है। इसके विरोध में एबीवीपी के सदस्यों; भास्कर आदित्य, राजकुमार, मृत्युंजय तिवारी, पतंजली पांडेय आदि ने अगले दिन कुलपति आवास के सामने प्रदर्शन किया और भद्दे नारे लगाए। इस दौरान कुलपति और चीफ प्रॉक्टर पर भद्दी टिप्पणियां भी की गईं। 

बीएसएम के सदस्यों का आरोप है कि सत्ता में बैठे लोगों ने ब्राह्मणवाद को सर्वश्रेष्ठ बताने के लिए इस मनुस्मृति रिसर्च प्रोजेक्ट के लिए भारी-भरकम धनराशि स्वीकृति कराई है। सत्ता की शह पर विश्वविद्यालय में जातिवादी और सांप्रदायिक माहौल बनाने के लिए झूठ और भ्रम का वितंडा खड़ा किया जा रहा है।

बीएसएम की सदस्या आकांक्षा आज़ाद कहती हैं, “21वीं सदी में शोषित और वंचित तबके में एक नई रैडिकल चेतना का संचार हुआ है। ऐसे में अतीत के स्याह दौर की याद दिलाती इस किताब की उपयोगिता की बात करने से दुनिया में भारत की कैसी छवि बनेगी? बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने सामाजिक बुराइयों को मिटाने के लिए मनुस्मृति की प्रतियां फूंकी थी। मौजूदा समय में वो समस्याएं जस-की-तस हैं। महिलाओं और शूद्रों के साथ भेदभाव व असमानता बरकरार है। डॉ. आंबेडकर हिंदू धर्म की बुराइयों पर सीधे वार करते थे और कहते थे कि मैं हिंदू धर्म पैदा हुआ हूं, लेकिन इस धर्म में मरूंगा नहीं। हिंदू धर्म समानता और स्वतंत्रता का विरोधी है। उन्होंने मनुस्मृति में वर्णित चारों वर्ण व्यवस्था का जमकर विरोध किया और बाद में उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था।”

मनुस्मृति को लेकर दलित और पिछड़े वर्ग का प्रबुद्ध तबका दशकों से विरोध करता आ रहा है। दरअसल इस पुस्तक में शूद्रों एवं महिलाओं के बारे में कई ऐसे श्लोक हैं, जिनकी वज़ह से अक्सर विवादों का जन्म होता है। 

मनुस्मृति को लेकर मराठी के अग्रणी लेखक प्रो. नरहर कुरूंदकर ने एक पुस्तक लिखी है, जिसमें वह रेखांकित करते हुए कहते हैं, “मैं उन लोगों में शामिल हूं, जो मनुस्मृति को जलाने में विश्वास करते हैं। ईसा से करीब दो सौ साल पहले मनुस्मृति लिखी गई थी।”

इसके उलट बीएचयू के धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग के अध्यक्ष प्रोफेसर शंकर कुमार मिश्रा कहते हैं, “यह पहला मौका नहीं है जब मनुस्मृति पढ़ाई जा रही है। जब से उनका विभाग बना है तभी से मनुस्मृति समेत कई ग्रंथ कोर्स में हैं और पढ़ाए जाते रहे हैं। उनके विभाग में हर वर्ग के स्टूडेंट्स पढ़ने आते हैं। वे पीएचडी भी करते हैं। स्मृतियों में मानवता के लिए उपदेश है। सद-आचरण की शिक्षा से भ्रमित लोगों को उबारने के लिए शोध की जरूरत है। धर्मशास्त्र में कई विचार और विषयों को सरल शब्दों और संक्षेप में जनमानस के सामने रखा जाए, ताकि मानव कल्याण की बताई गई बातों से आम जनता परिचित हो। इस मामले में दुष्प्रचार किया जा रहा है। ‘भारतीय समाज में मनुस्मृति की प्रयोज्यता’ विषय पर शोध की योजना धर्मशास्त्र मीमांसा विभाग की ओर से प्रस्तुत किया गया है। शोध और शिक्षा में किसी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए।”

वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के पूर्व प्रोफेसर डाॅ. शमशुल इस्लाम कहते हैं, “बाबा साहेब के हिंदू धर्म को छोड़ने की सबसे बड़ी वजह मनुस्मृति रही। मनुस्मृति के समर्थकों की तरह मुस्लिम लीग ने भी गैर-बराबरी और औरतों की हकमारी का एजेंडा चलाया था। मुगल शासक औरंगजेब के जमाने में जो इस्लामी शरीयत (फतवा-ए-जहांगीरी) लागू की गई, वह पूरी तरह मनुस्मृति से प्रभावित थी। औरंगजेब सोचता था कि हिंदुओं के साथ वह मुसलमानों को कैसे नियंत्रित करे तो उसने शरीयत के अंदर मनुस्मृति की सारी बातें डाल दी। फतवा-ए-जहांगीरी को मनुस्मृति की प्रतिकृति कहा जा सकता है।” 

बनारस के वरिष्ठ पत्रकार राजीव मौर्य कहते हैं, “बीएचयू अब आरएसएस का गढ़ बन गया है। यही वजह है कि मनुस्मृति पर रिसर्च के नाम पर भारी-भरकम धनराशि स्वीकृत की गई है। दुनिया जानती है कि भारत में जब बौद्ध धर्म का फैलाव होने लगा तो मनुस्मृति के ज़रिए ही ब्राह्मणों ने अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए मिथक रचना शुरू कर दिया कि उनका स्थान समाज में सबसे ऊपर है। उनके लिए अलग और दूसरों के लिए अलग नियम हैं।”

मनुस्मृति के शोध पर विवाद पर बीएचयू के सामाजिक परिष्करण एवं समावेशी नीति अध्ययन केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. अमरनाथ पासवान कहते हैं, “मनुस्मृति का विरोध इसलिए भी जायज़ है, क्योंकि इस पुस्तक ने औरतों और शूद्र जातियों को अपमानित किया है और उनकी तरक्की भी रोकी है। इस तबके को आर्थिक और सामाजिक तौर पर स्थायी रूप से गुलाम बनाने की कोशिश की है। मनुस्मृति को किसी भी तरीके से धार्मिक अथवा पवित्र पुस्तक नहीं कहा जा सकता। इस मुद्दे को फिर से सैनिटाइज किए जाने से मनुस्मृति को नए सिरे से वैधता मिलेगी और हिंदू समाज में ऊंच-नीच की खाई गहरी होगी। बाबा साहेब ने मनु की जिस व्यवस्था को पूरी तरह खत्म कर दिया था, शोध के ज़रिए उसे फिर जिंदा करने की कोई जरूरत नहीं है।”

बहरहाल, अगर आरएसएस का पक्ष देखा जाए तो वह शुरू से मनुस्मृति में वर्णित रूढ़िवादी सोच का समर्थक रहा है तथा उसी पर आधारित हिंदू राष्ट्र का निर्माण भी करना चाहता है, जिसमें दलित, पिछड़े और स्त्रियों के साथ उसी तरह का व्यवहार किया जाएगा, जैसा कि इस पुस्तक में लिखा हुआ है। निस्संदेह बीएचयू में मनुस्मृति पर रिसर्च के लिए फेलोशिप देना उसके इसी अभियान का एक अंग प्रतीत होता है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

स्वदेश कुमार सिन्हा

लेखक स्वदेश कुमार सिन्हा (जन्म : 1 जून 1964) ऑथर्स प्राइड पब्लिशर, नई दिल्ली के हिन्दी संपादक हैं। साथ वे सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनीतिक विषयों के स्वतंत्र लेखक व अनुवादक भी हैं

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