h n

‘अछूत कन्या’ : वह फिल्म, जिसमें अछूत को देवी बनने के लिए जान देनी पड़ी

फिल्म के केंद्र में कस्तूरी (देविका रानी) है, जो अछूत समाज से आती है। फिल्म में बेशक उसकी जाति नहीं बताई गई है, लेकिन उसके पिता का नाम दुखिया है, जो रेलवे के एक फाटक पर गेटकीपर का काम करता है। यहां तक कि उसका सरनेम भी छिपा लिया गया है। पढ़ें, ‘फिल्मों में जाति’ शृंखला के तहत दूसरी प्रस्तुति

देविका रानी और अशोक कुमार द्वारा अभिनीत फिल्म ‘अछूत कन्या’ 1936 में रिलीज हुई थी। ब्रिटिश मूल के फ्रैंज ऑस्टन द्वारा निर्देशित यह फिल्म जिन कारणों से लोकप्रिय हुई थी, उनमें प्रेम कहानी और संगीत पक्ष के अलावा इसका सामाजिक-राजनीतिक पक्ष भी था।

यह वह दौर था जब भारत में गांधी का हरिजन उद्धार अभियान कांग्रेसियों द्वारा जोर-शोर से चलाया जा रहा था। यह फिल्म भी इसी अभियान का हिस्सा ही थी, जिसे निर्देशक फ्रैंज ऑस्टेन, कहानीकार निरंजन पाल, हिमांशु रॉय, देविका रानी और अशोक कुमार की टीम ने बड़े पर्दे पर चित्रित किया। यह बांबे टाकीज की प्रस्तुति थी, जिसे उस समय क्रांतिकारी फिल्म की संज्ञा दी गई।

फिल्म के केंद्र में कस्तूरी (देविका रानी) है, जो अछूत समाज से आती है। फिल्म में बेशक उसकी जाति नहीं बताई गई है, लेकिन उसके पिता का नाम दुखिया है, जो रेलवे के एक फाटक पर गेटकीपर का काम करता है। यहां तक कि उसका सरनेम भी छिपा लिया गया है।

वहीं दूसरी ओर इस फिल्म में एक नया प्रयोग यह किया गया कि ब्राह्मण जाति को पुरोहित कर्म से दूर रखा गया। दरअसल, फिल्म के नायक अशोक कुमार हैं, जिन्होंने प्रताप नामक युवक की भूमिका निभाई है। उसके पिता मोहन ब्राह्मण जाति के हैं और पेशे से बनिया हैं।

फिल्म के एक दृश्य में अशोक कुमर और देविका रानी

फिल्म में विज्ञान के पक्ष को अहम बताया गया है। मसलन, यह कि गांव में मलेरिया का प्रकोप होने पर मोहन लोगों को कुनैन देता है और गांव के ही दूसरे वैद्य (ब्राह्मण) की ठगी से बचने की सलाह भी। हालांकि मोहन अपने माथे पर चंदन लगाते हैं, लेकिन दुखिया के साथ अपनी मित्रता निभाते हैं। जबकि दुखिया बार-बार उसे याद दिलाता है कि वह अछूत है और ब्राह्मण के साथ बैठने का अधिकारी नहीं।

यही स्थिति कस्तूरी का है जो प्रताप से प्रेम करती है, लेकिन उसे बार-बार कहना पड़ता है कि वह अछूत है। फिल्म के एक दृश्य में कस्तूरी प्रताप के माता-पिता के सामने कहती है कि प्रताप ने उसके हाथ का बना खाना खाया है। इसके लिए प्रताप की मां उसे डांटती है और कस्तूरी उससे बार-बार कहती है कि अब वह प्रताप को दुबारा कभी खाने को नहीं देगी।

दरअसल, इस फिल्म की बुनावट में जाति के विनाश से अधिक ब्राह्मण वर्ग की महानता को दिखाना शामिल है। यह वर्ग बार-बार उद्धारक के रूप में सामने आता है। 

फिल्म की कहानी सामाजिक पक्षों से गुजरते हुए प्रेम कहनी में तब्दील होती है। लेकिन ऊंच-नीच का भेद होने के कारण प्रताप और कस्तूरी एक-दूसरे के नहीं हो पाते। प्रताप की शादी मीरा नामक लड़की से होती है। वहीं कस्तूरी के मामले में फिल्मकार ने उसे ‘अछूत’ होने की सजा दी। उसकी शादी अछूत वर्ग के ही मन्नू से हो जाती है और वह भी इसलिए कि वह कस्तूरी के पिता का स्थान उसकी सेवानिवृत्ति के बाद लेता है तथा उसे अपने सरकारी क्वार्टर में रहने की अनुमति देता है।

यह भी पढ़ें : आजाद भारत में जाति को चुनौती देनेवाली पहली फिल्म थी– ‘विद्या’

करीब एक घंटे 36 मिनट की इस फिल्म में महिलाओं का वह समाज नजर आता है जो पति को हर हाल में परमेश्वर मानता है। उदाहरण के लिए कस्तूरी का पति मन्नू उसे नहीं बताता है कि उसकी पहले से पत्नी है। वह इस बात के लिए उसके ऊपर गुस्सा तक नहीं करती और चरणों पड़े रहने देने की भीख मांगती है। लेकिन जब कजरी को जानकारी मिलती है कि मन्नू ने दूसरी शादी की है तब वह उसके पास आती है। कस्तूरी उसका अपमान नहीं करती है और उसे अपने साथ रहने का अनुरोध करती है।

फिल्म में यह दिखाया गया है कि अछूत होने के कारण तमाम कष्ट झेलने के बावजूद कस्तूरी बहुत महान है। यहां तक कि फिल्म के अंत में अपने और प्रताप के परिवार को बचाने के लिए उसे अपनी बलि देनी पड़ जाती है और यह कहकर उसका अभिनंदन किया जाता है कि वह अछूत थी, लेकिन देवी थी, जिसने अपने कर्मों से यह दिखा दिया कि महान आत्मा सभी में हो सकती हैं। 

(संपादन : राजन/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

संबंधित आलेख

सवर्ण व्यामोह में फंसा वाम इतिहास बोध
जाति के प्रश्न को नहीं स्वीकारने के कारण उत्पीड़ितों की पहचान और उनके संघर्षों की उपेक्षा होती है, इतिहास को देखने से लेकर वर्तमान...
त्यौहारों को लेकर असमंजस में क्यों रहते हैं नवबौद्ध?
नवबौद्धों में असमंजस की एक वजह यह भी है कि बौद्ध धर्मावलंबी होने के बावजूद वे जातियों और उपजातियों में बंटे हैं। एक वजह...
संवाद : इस्लाम, आदिवासियत व हिंदुत्व
आदिवासी इलाकों में भी, जो लोग अपनी ज़मीन और संसाधनों की रक्षा के लिए लड़ते हैं, उन्हें आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत गिरफ्तार किया...
ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, अंतिम भाग)
तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद शिव को देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता...
ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के खिलाफ था तमिलनाडु में हिंदी विरोध
जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद...