मेरे काव्य गुरू कल्याणकुमार जैन ‘शशि’ के गीत की दो पंक्तियां हैं–
मृत्यु जो केवल चिता तक तो दिखी,
मुक्ति-पथ पर चिह्न तक उसके न पाए।
कुछ ऐसा ही हाल आज भारत के लोकतंत्र का है। और अगर धर्म की राजनीति पर अंकुश नहीं लगा, तो स्थिति यह हो जाएगी कि लोकतंत्र केवल चुनावों तक दिखेगा। फिर उसके बाद उसका कोई चिह्न शायद ही कहीं नज़र आएगा। भारत का लोकतंत्र केवल हिंदुत्व से पीड़ित ही नहीं है, बल्कि उसने उसे अपने पैरों तले रौंद भी दिया है, और लोकतंत्र की स्थिति यह हो गई है कि उसने हिंदू धर्म के मिथकीय पात्र काली की तरह लोकतंत्र की छाती को अपने हजारों विरोधियों के खून से रंगा हुआ है।
लोकतंत्र पर हिंदुत्व के इस वर्चस्व की शुरुआत 2014 के बाद से होती है, जब भारत की सत्ता पर हिंदुत्ववादी दल आरएसएस और भाजपा काबिज होते हैं। उन्होंने सत्ता में आते ही अपने तमाम हिंदू संगठनों और संत-महात्माओं को हिंदूराष्ट्र का राग अलापने के काम पर लगा दिया। इसी मिशन के तहत मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने और गरीब मुसलमानों की मॉबलिंचिंग कराने के काम शुरू हो गए। इसी मिशन के तहत आंबेडकर की प्रतिमाओं को तोड़े जाने का काम शुरू हुआ, और संविधान के खिलाफ और उसे बदलने की आवाजें फिजा में गूंजने लगीं। इसी मिशन के तहत बाबरी मस्जिद की तर्ज पर ज्ञानवापी और ईदगाह मस्जिदों को गिराने हेतु सत्ता के बल पर उन्मादी कुचक्र शुरू कर दिए गए। इन्हीं विघटनकारी हिंदू शक्तियों द्वारा क़ुतुब मीनार और ताजमहल पर भी हिंदू मंदिर होने के दावे ठोक दिए गए, जिन पर संभव है, बनारस की ज्ञानवापी और मथुरा की ईदगाह मस्जिद गिराने के बाद, अमल-दरामद शुरू हो जाए।
यह सब इसलिए हुआ, क्योंकि आरएसएस और भाजपा लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों में विश्वास नहीं करते। वे लोकतंत्र को पश्चिम की अवधारणा मानते हैं और राजतंत्र को भारतीय अवधारणा, जो हिंदू कानून से चलते थे। हिंदू राजतंत्रों में सामाजिक न्याय और सामाजिक स्वतंत्रता के लिए कोई स्थान नहीं होता था, इसलिए नीति-निर्धारण में निचले वर्गों की कोई भूमिका नहीं होती थी। भाजपा की हिंदुत्व की राजनीति भी इसी पथ की है। वह धर्मपथ, राजपथ और रामपथ का निर्माण कर रही है। और ये तीनों पथ सामाजिक न्याय को महत्व नहीं दे सकते, क्योंकि ये लोकतंत्र के पथ नहीं हैं।
इसी आधार पर आरएसएस और भाजपा के नेता भारत के संविधान की ज्यादा परवाह नहीं करते, बल्कि उसे बदलने के लिए हमेशा अधीर रहते हैं। वे इसे भारतीय संस्कृति, खासतौर से हिंदू संस्कृति के विरुद्ध मानते हैं, क्योंकि भारत का संविधान धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और मौलिक अधिकारों पर जोर देता है, जिनके लिए हिंदुत्व में कोई स्थान नहीं है। हमारा संविधान भारत के लोगों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार तो देता है, लेकिन किसी भी धर्म को राज्य का धर्म बनाने का अधिकार नहीं देता है। लेकिन भाजपा सरकार ने हिंदुत्व को राज्य का धर्म बना दिया, जो संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ है। संविधान में धर्मनिरपेक्षता को इसलिए स्थापित किया गया था, क्योंकि संविधान-निर्माता यह जानते थे कि धर्म की राजनीति भारत के लोगों को विभाजित करके राज करती है। वह एक समुदाय की धार्मिक भावनाओं को जगाकर दूसरे समुदायों के प्रति नफरत पैदा करती है, और सिर्फ़ नफरत ही नहीं, उन्हें एक-दूसरे का दुश्मन भी बनाती है। इसलिए धर्मविशेष का राज कभी भी निष्पक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि उसके एजेंडे में ही धार्मिक भेदभाव होता है।

इसी भेदभाव के कारण इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज और फैजाबाद का नाम बदलकर अयोध्या रखा गया। इसी फैजाबाद की बेगम अख्तर संगीत जगत की एक बड़ी हस्ती थीं, पर हिंदुत्व की राजनीति ने फैजाबाद में संगीत का जो चौक बनाया, उसका नाम सरकार ने ‘लता मंगेशकर चौक’ रखा, जिनका फैजाबाद से कोई संबंध नहीं था। एक और बड़ी मिसाल इस धार्मिक भेदभाव की भाजपा सरकार का नागरिकता कानून है, जिसमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश के हिंदू, सिख और बौद्ध शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दिए जाने का प्रावधान तो है, पर ईसाई और मुस्लिम शरणार्थियों के लिए नागरिकता के दरवाजे बंद रखे गए हैं। मुसलमानों के प्रति हिंदुत्व ने सामूहिक नफरत को इस सीमा तक पहुंचा दिया कि भाजपा के शीर्ष नेता भी सार्वजनिक मंचों से मुस्लिम औरतों के साथ, कब्र से भी निकालकर, बलात्कार करने और शत्रुओं को कपड़ों से पहचानने का आह्वान कर रहे थे।
पिछले कुछ महीनों से भाजपा अयोध्या के राम मंदिर को राजनीति के क्षितिज पर इस तरह उभार रही है, जैसे इससे ज्यादा अहम भारत के लिए कुछ है ही नहीं। आरएसएस और भाजपा ने अपने सारे आईटी सेल, मीडिया, अखबारों, नेताओं, साधु-संतों और अपने सभी आनुषंगिक संगठनों को अयोध्या की रोज कमेंट्री करने पर लगा दिया है। जैसे खेल के मैदान से पल-पल की कमेंट्री की जाती है, उसी तरह ये सारे माध्यम पल-पल की रिपोर्टिंग करने के काम पर लगे हुए हैं। अब अयोध्या में दो चीजें साथ-साथ चल रही हैं। एक ओर अयोध्या की दर-ओ-दीवारों को ‘राममय’ बनाया जा रहा है, तो दूसरी ओर देश की फिजा को ‘मोदीमय’ बनाया जा रहा है। और यह सब इसी वर्ष होने वाले आम चुनावों को हिंदू रंग में रंगने के मकसद से किया जा रहा है।
आगामी 22 जनवरी को अयोध्या में रामलला की प्राणप्रतिष्ठा होगी। दूसरे शब्दों में मूर्ति का शुद्धिकरण करके उसे स्थापित किया जायेगा। इस संबंध में आरएसएस और भाजपा का प्रबंधन काबिले गौर है, बल्कि तारीफ़ के भी काबिल है, और यह कहना कदाचित गलत न होगा, कि धर्म चलाने के मामले में विश्व का कोई भी संगठन आरएसएस और भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकता। साम, दाम, दंड, भेद; हर तरह के प्रबंधन में निष्णात भाजपा सरकार ने सोनी चैनल पर आने वाला ‘कौन बनेगा करोड़पति’ कार्यक्रम बंद करवाकर उस पर बीते एक जनवरी से ‘रामायण’ सीरियल शुरू करा दिया है, ताकि 22 जनवरी तक घर-घर जयश्रीराम का हिंदू उन्माद पैदा होता रहे। प्राण-प्रतिष्ठा से पहले उत्तर प्रदेश सरकार सभी जिलों में सभी मंदिरों में रामकथा का आयोजन करने, कीर्तन करने, राम मंदिर रथ और कलश यात्रा निकालने के कार्यक्रम कराएगी। इस आशय के आदेश उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव दुर्गाशंकर मिश्र द्वारा सभी जिलाधिकारियों को दे दिए गए हैं। हिंदू संगठनों के चार लाख कार्यकर्त्ता घर-घर राम का निमंत्रण देने पर लगा दिए गए हैं, जिसकी शुरुआत अयोध्या की वाल्मीकि बस्ती से की गई। सफाई कर्मचारियों को प्रभावित करने के लिए 30 दिसंबर, 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अयोध्या के नवनिर्मित हवाई अड्डे का उद्घाटन किया और उसका नामकरण रामायण के रचयिता ऋषि वाल्मीकि के नाम पर रखने की घोषणा की, जिसे सुनते ही वाल्मीकि समुदाय गदगद हो गया, जबकि इससे उनके सामाजिक विकास का कोई संबंध नहीं है।
अयोध्या को राममय और फ़िज़ा को मोदीमय बनाने में सबसे ज्यादा उत्साहित व सक्रिय ब्राह्मण, राजपूत और बनिया वर्ग हैं। इसका कारण है, भाजपा के हिंदूराज में सबसे लाभान्वित ये ही तीनों वर्ग हैं। ये वर्ग मर जाएंगे, पर शूद्रों और मुसलमानों का शासन बर्दाश्त नहीं करेंगे। 1925 में आरएसएस का गठन शूद्रों और मुसलमानों से मिलने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए रणनीति बनाने के उद्देश्य से ही हुआ था। इसी रणनीति के तहत हिंदूराज की परिकल्पना की गई। आरएसएस की नीति-नियामक किताबों में स्पष्ट रूप से लिखा है कि हिंदूराज में वर्णव्यवस्था और मनुस्मृति का शासन होगा। इसलिए ये तीनों वर्ग नरेंद्र मोदी को एक महान हिंदू शासक के रूप में देख रहे हैं, जो शूद्रों और मुसलमानों को हाशिए पर रखने के लिए अद्वितीय काम कर रहे हैं। हम यह नहीं कह सकते कि राजनीति में शूद्रों की भागीदारी नहीं है, पर यह भागीदारी शूद्रों के सामाजिक और आर्थिक विकास से नहीं, बल्कि हिंदुत्व के ही विकास से जुड़ी हुई है। इसलिए शूद्रों की यह भागीदारी शूद्रों के प्रति होने वाले हिंदू राज के अन्याय पर सदन में मौन रहती है, और मोदी के हिंदुत्व के प्रचार में मुखर रहती है।
भारत के बहुत से जिलों से बनिया और व्यापारी वर्ग अयोध्या में महीने भर तक चलने वाले भंडारे के लिए ट्रक के ट्रक राशन भिजवा रहे हैं, और देश-विदेश से अकूत धन भी मंदिर निर्माण के लिए इसी वर्ग द्वारा भेजा गया है। दो कैरेट से अधिक के हीरे, पन्ने, नीलम, मोती, मूंगा, पुखराज जैसे कीमती रत्न भी इसी समुदाय द्वारा मंदिर के लिए भेंट किए गए हैं। केंद्र सरकार द्वारा कई परियोजनाएं अयोध्या को दी गई हैं, जिसका प्रचार ‘मोदी की सौगात’ के नाम से किया जा रहा है, जैसे किसी देश का राजा अपनी प्रजा को सौगातें बांटता है। ये सौगातें 15,700 करोड़ रुपए की बताई गई हैं। दो अमृत ट्रेन और 6 भारत मंदिर ट्रेन शुरू की गई हैं। इतना ही नहीं, 22 जनवरी के उद्घाटन कार्यक्रम में देश-भर से लोगों के आने के लिए अलग से एक हजार विशेष ट्रेनें भी चलाई जा रही हैं। अयोध्या में मोदी के कटआउट वाला सेल्फ़ी पॉइंट भी बनाया गया है। पिछले हफ्ते अयोध्या में आयोजित रैली में हिंदुत्व के इस भव्य प्रदर्शन पर नरेंद्र मोदी का कहना था, “प्रभु राम अयोध्या लौट आए हैं।” किसी ने भी उनसे नहीं पूछा कि प्रभु राम कहां से लौटकर आए हैं? लेकिन वास्तव में वह कह रहे थे कि जिस तरह प्रभु राम रावण को मारकर अयोध्या लौटे थे, उसी तरह हिंदुत्व के दुश्मनों को परास्त करके सैकड़ों साल बाद हिंदू राज की वापसी हुई है। इस ख़ुशी पर गर्व करते हुए भाजपा की इंडियन कौंसिल फॉर कल्चरल रिलेशंस के अध्यक्ष विनय सहस्रबुद्धे ने 2 जनवरी के इंडियन एक्सप्रेस में लेख लिखकर अयोध्या-आयोजन को ‘भारत का पुनर्जागरण’ कहा है। इससे आसानी से समझा जा सकता है कि ब्राह्मण किस हद तक हिंदू राज पर लट्टू हैं।
सिर्फ़ ब्राह्मण ही नहीं, बल्कि सभी सवर्ण जातियां लट्टू हैं, और इसलिए लट्टू हैं, क्योंकि हिंदू राज में वे अपने उस स्वर्णकाल को देख रहे हैं, जिसमें शूद्र जातियां उनके पैरों के नीचे रहती थीं। यह संकेत सिर्फ़ मोदी सरकार ही नहीं, बल्कि जहां-जहां भी भाजपा की सरकारें कायम हैं, स्पष्ट रूप से ब्राह्मणों और सवर्णों को दे चुकी हैं। उदाहरण के तौर पर :
- नई शिक्षा नीति, जो पूरी तरह हिंदू शिक्षा पर आधारित है।
- सभी शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में आरएसएस-शिक्षित ब्राह्मणों की नियुक्ति।
- सभी रिक्त पदों पर ब्राह्मणों और सवर्णों को नियुक्त करना, और दस प्रतिशत आर्थिक आधार पर उनकी अतिरिक्त भर्ती।
- साक्षात्कार बोर्ड में ब्राह्मण विशेषज्ञों को बैठाकर दलितों और ओबीसी जातियों को अयोग्य घोषित करके नौकरियों से बाहर रखना।
- जहां दलितों और ओबीसी को रखना अनिवार्य हो, वहां अनुबंध पर रखना, और अनुबंध खत्म होने पर हिंदुत्व के पक्ष में न होने पर निकाल देना।
- दलितों के आर्थिक सशक्तिकरण को रोकने के लिए नगरपालिकाओं और निगमों के निर्माण कार्यों में दिए जाने वाले ठेकों में दलितों के आरक्षण को खत्म करना।
- मंडल आयोग की सिफारिशों के विरुद्ध ओबीसी के आरक्षण को खत्म करना।
- जातीय जनगणना कराने से मना करना।
- वर्णव्यवस्था को लागू करने के लिए शूद्रों का संघर्ष खत्म करने की दिशा में सामाजिक समरसता को लागू करना।
- शूद्रों को अधिकार देने वाले संविधान और लोकतंत्र के विरुद्ध काम करना।
लेकिन इसी अयोध्या-उन्माद के दौरान इस घटना पर किसी का ध्यान नहीं गया कि अनिल अंबानी के 4700 करोड़ रुपए के क़र्ज़ को उनके भाई मुकेश अंबानी के कहने पर नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (एनसीएलटी) ने 455 करोड़ में तय करने की डील को मंजूरी दे दी। क्या यह मोदी सरकार की सहमति के बिना हो गया? उत्तर है– नहीं। तब, इसका मतलब है कि ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद ही भारत के दो सबसे बड़े दुश्मन हैं, जिसकी पहचान सबसे पहले डॉ. आंबेडकर ने की थी।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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