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गणतंत्र दिवस से चार दिन पहले ही पत्थर में ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ क्यों?

अगर फरवरी में मंदिर का उद्घाटन होता तो क्या लोकसभा चुनाव में उसका फायदा नहीं मिलता? इसीलिए असली सवाल यह है कि देशव्यापी आयोजन आखिर 22 जनवरी को ही क्यों? बता रहे हैं प्रो. रविकांत

आज 22 जनवरी, 2024 को राम मंदिर में तथाकथित उद्घाटन होने जा रहा है। यह उद्घाटन ही है, क्योंकि तमाम हिंदू धर्मशास्त्रों के जानकार कह रहे हैं कि यह समय किसी मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के लिए उचित नहीं है। उनके मुताबिक, आगामी 25 जनवरी को पूस माह की पूर्णिमा है और तब तक इस तरह का धार्मिक आयोजन नहीं हो सकता। एक सवाल यह उठता है कि क्या राम मंदिर ट्रस्ट और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मुद्दे पर विचार नहीं किया होगा? क्या उन्होंने धर्माचार्यों से सलाह नहीं ली होगी? उनसे नहीं पूछा होगा? जाहिर तौर पर ऐसा उन्होंने अवश्य किया होगा। फिर भी अगर 22 जनवरी, 2024 को ही पत्थर की मूरत में तथाकथित प्राण-प्रतिष्ठा का आयोजन हो रहा है तो इसका अपना मतलब है और मकसद भी। 

ज्यादातर विश्लेषकों और विपक्षी दलों ने इसका संबंध आने वाले लोकसभा चुनाव से जोड़ा है। उनका मानना है कि मोदी के पास चुनाव में जाने के लिए कोई मुद्दा नहीं है। इसलिए वह राम मंदिर के सहारे चुनावी वैतरणी को पार करना चाहते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि नरेंद्र मोदी राम मंदिर को चुनावी लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं। लेकिन वे इस बात को बखूबी जानते हैं कि केवल राम मंदिर के सहारे चुनाव नहीं जीता जा सकता। यह सत्य भी है कि भारतीय जनता पार्टी कभी हिंदुत्व के सहारे चुनाव नहीं जीतती। चुनाव जीतने के पीछे उसकी विभाजक सोशल इंजीनियरिंग है, जो कि विशुद्ध जाति की राजनीति है। हिंदुत्व केवल सवर्ण जातियों के लिए कारगर है। राम मंदिर जैसे आयोजन से भाजपा का सवर्ण वोट बैंक और ज्यादा मजबूत होगा। लेकिन दलितों और पिछड़ों को जोड़ने का यह नुस्खा नहीं है। असल मकसद है– विपक्ष को राम मंदिर के नॅरेटिव में फंसाना और बुनियादी मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाना। 

लेकिन सवाल यह है कि यह काम तो 25 जनवरी के बाद भी हो सकता था। अगर फरवरी में मंदिर का उद्घाटन होता तो क्या लोकसभा चुनाव में उसका फायदा नहीं मिलता? इसीलिए असली सवाल यह है कि देशव्यापी आयोजन आखिर 22 जनवरी को ही क्यों?

अयोध्या में प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम में भाग लेते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

इसको डिकोड करने के लिए आरएसएस की वैचारिकी और उसके इतिहास की तरफ चलना होगा। नरेंद्र मोदी उसी आरएसएस के प्रचारक हैं, जिसने कभी भी भारतीय लोकतंत्र और संविधान को स्वीकार नहीं किया, बल्कि इसका लगातार विरोध किया। आरएसएस की संकल्पना संवैधानिक लोकतंत्र की जगह हिंदू राष्ट्र बनाने की है। 

गौर तलब है कि आरएसएस के साथ हिंदू महासभा और रामराज्य परिषद जैसे संगठन भी खड़े थे। स्वाधीन भारत में भी आरएसएस ने कभी हिंदू राष्ट्र के मकसद से इनकार नहीं किया, बल्कि इसके लिए निरंतर प्रयत्नशील रहा। गांधी की हत्या से लेकर बाबरी मस्जिद विध्वंस तक हिंदू राष्ट्र की ही प्रयोगशाला के हिस्से थे। दलितों-आदिवासियों का उत्पीड़न और अल्पसंख्यक वर्गों की मॉब लिंचिंग इसी हिंदू राष्ट्र की कल्पना का मवाद है। अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना और दलितों, पिछड़ों, आदिवासियों को सेवक और गुलाम बनाकर रखना है। उन्हें संसाधन और शिक्षाविहीन करना है। उनके विवेक और ज्ञान को कुंद करके संविधान और नागरिक अधिकारों के प्रति उनकी चेतना को खत्म करना है। नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले दस साल के कार्यकाल में हिंदू राष्ट्र की संकल्पना को बहुत बारीकी से आगे बढ़ाया है।

अविमुक्तेश्वरानंद और निश्चलानंद सरस्वती जैसे शंकराचार्यों के विरोध और आने से इनकार के बावजूद राम मंदिर का उद्घाटन 22 जनवरी को ही क्यों? क्या इस आयोजन को कुछ दिनों के लिए नहीं टाला जा सकता था? सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर बनने वाले राम मंदिर को भला कोई रोक सकता था! सरकार बदल जाती तब भी राम मंदिर पूर्ण होता। लेकिन अधूरे मंदिर के उद्घाटन के पीछे असली मकसद कुछ और है। यह उद्घाटन हिंदू राष्ट्र की ओर बढ़ता हुआ एक कदम और है।

आगामी 22 जनवरी को उद्घाटन के पीछे असली वजह है– गणतंत्र दिवस की छवि को धूमिल करना। इसीलिए यह आयोजन देश की आजादी के संकल्प, संविधान के मूल्य और गणतंत्र की अवहेलना है। गणतंत्र दिवस के ठीक पहले एक देशव्यापी आयोजन करना, जो बेहद भावनात्मक हो, जिसमें जश्न हो, दीप जलाए जाएं। इस माहौल के जरिए ठीक चौथे दिन बाद 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस समारोह को फीका बनाना है। आज पूरे देश में चारों तरफ भगवा झंडों की बहार है। क्या इस तरफ आपका ध्यान नहीं जाता कि चार दशक तक आरएसएस ने अपने कार्यालय पर तिरंगा क्यों नहीं फहराया? 

दरअसल, आरएसएस भगवा को राष्ट्रध्वज बनाना चाहती थी। आज के आयोजन में उसका यह मकसद भी कामयाब होता दिख रहा है। चौतरफा भगवा झंडों की बाढ़ में तिरंगे की शान को कम करने की रणनीति छिपी है। 

अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति के बाद देश के लिए दो तारीखें बुनियाद बनीं। एक, 15 अगस्त यानी आज़ादी के जश्न की तारीख और दूसरी, 26 जनवरी यानी देश के नवनिर्माण की तारीख। इस लिहाज से 26 जनवरी देश के लोगों के लिए बहुत मायने रखता है। संविधान लागू होने की तारीख! संविधान की पहली पंक्ति है– “हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न लोकतांत्रिक गणराज्य …।” 

ध्यातव्य है कि 26 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में भारत का संविधान पारित हुआ। लेकिन संविधान को लागू करने की तारीख 26 जनवरी, 1950 तय की गई। इसके पीछे एक स्वर्णिम ऐतिहासिक कारण था। दरअसल, 1929 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज की मांग ही नहीं की गई बल्कि पूर्ण स्वराज पाने का संकल्प करते हुए 26 जनवरी, 1930 को पहला स्वाधीनता दिवस मनाया भी गया। इस तारीख को अक्षुण्ण और अविस्मरणीय बनाए रखने के लिए संविधान लागू करने की तारीख 26 जनवरी, 1950 तय की गई। गणतंत्र का दूसरा मतलब है कि राष्ट्र का प्रधान कोई ‘आनुवंशिक राजा’ नहीं, बल्कि लोगों के द्वारा चुना जाएगा। ‘लोकतांत्रिक गणराज्य’ ने किसी भी भारतीय नागरिक को ‘राजा’ बनने का अधिकार दिया। लोकतंत्र का राजा मतलब विधायक, सांसद, मंत्री, प्रधानमंत्री। संविधान ने हजारों सालों की दलितों वंचितों की गुलामी मिटा दी। 

फिर 26 जनवरी को यह गारंटी प्राप्त हुई कि भारत का शासन संविधान के जरिए संचालित होगा। लेकिन उल्लेखनीय है कि जब 26 नवंबर, 1949 को भारत का संविधान पारित हुआ, उसके ठीक 3 दिन बाद यानी 30 नवंबर, 1949 को आरएसएस ने अपने मुखपत्र ‘ऑर्गेनाइजर’ में संविधान की भर्त्सना ही नहीं की, बल्कि उसे विदेशी तक करार दिया। यह सीधे तौर पर स्वाधीनता आंदोलन के संघर्षों और संकल्पों की अवहेलना थी और बतौर प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ अंबेडकर का घोर अपमान। ‘ऑर्गेनाइजर’ ने लिखा था कि “भारत के संविधान में कुछ भी भारतीय नहीं है, क्योंकि इसमें मनु की संहिताएं नहीं हैं।” यानी आरएसएस को मनुस्मृति के आधार पर निर्मित संविधान चाहिए था।

आज जब यह आयोजन होने जा रहा है तो इसके मायने समझना होंगे। जिस तरह से 15 अगस्त, 1947 यानी स्वतंत्रता दिवस की स्मृतियों को मिटाने के लिए और हिंदू राष्ट्र के संकल्प को आगे बढ़ाने के लिए 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका दिवस मनाने की शुरुआत नरेंद्र मोदी सरकार ने की है, उसी तरह से गणतंत्र के इतिहास, उसके राष्ट्रव्यापी आयोजन और नागरिकों के अधिकार की गारंटी देने वाले संविधान को लागू करने की बुनियाद को कमजोर करने साजिश की जा रही है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रविकांत

उत्तर प्रदेश के जालौन जिले के दलित परिवार में जन्मे रविकांत ने जेएनयू से एम.ए., एम.फिल और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की डिग्री हासिल की है। इनकी प्रकाशित पुस्तकों में 'समाज और आलोचना', 'आजादी और राष्ट्रवाद' , 'आज के आईने में राष्ट्रवाद' और 'आधागाँव में मुस्लिम अस्मिता' शामिल हैं। साथ ही ये 'अदहन' पत्रिका का संपादक भी रहे हैं। संप्रति लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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