बीते 5 फरवरी, 2024 को उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना वार्षिक बजट पेश किया, और इस बजट को नाम दिया– ‘संकल्प रामराज्य।’ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि आज का बजट प्रभु श्रीराम को समर्पित है और रामराज्य से प्रेरित है। उन्होंने कहा कि “इस बजट के शुरू में, इसके मध्य में और इसके अंत में भी श्रीराम हैं। इसके विचार में, संकल्प में, एक-एक शब्द में श्रीराम हैं।” उन्होंने कहा कि श्रीराम लोकमंगल के पर्याय हैं, इसलिए यह बजट भी लोकमंगल को समर्पित है। रामराज्य लाने के लिए इस बजट में आध्यात्मिक पर्यटन पर जोर दिया गया है, जिसके अंतर्गत अयोध्या, काशी, मथुरा, नैमिषारण्य, विंध्याचल, देवीपाटन और प्रयागराज में कुंभ के विकास के लिए भारी भरकम राशि की व्यवस्था की गई है।
जिस दिन बजट पेश हुआ, उससे एक दिन पहले, यानी 4 फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने असम के दौरे पर गुवाहाटी में एक रैली को संबोधित करते हुए भाजपा की सरकारों से अपने राज्यों में हिंदूधर्म-स्थलों के विकास पर जोर देने की अपील की थी। वहां उन्होंने कामाख्या मंदिर कॉरिडोर प्रोजेक्ट का उद्घाटन करते हुए कहा कि जब हमने बनारस में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बनाया, तो वहां रिकार्ड संख्या में श्रद्धालु पहुंचे, एक साल में साढ़े आठ करोड़ श्रद्धालु। उन्होंने यह भी बताया कि 19 लाख श्रद्धालु केदार धाम गए। और अयोध्या में रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद 12 दिन में 24 लाख लोगों ने दर्शन किए। अगर मां कामाख्या दिव्यलोक परियोजना बन गई, तो लोग यहां भी आएंगे।
अत: उत्तर प्रदेश सरकार के बजट में हिंदूधर्म-स्थलों के विकास का प्रावधान यूं ही नहीं है। यह आरएसएस की सुनियोजित हिंदूराष्ट्र-योजना का हिस्सा है। यह लोकतंत्र की राजनीति नहीं है। यह बहुसंख्यकवाद की खतरनाक राजनीति है, जो अन्य धार्मिक अल्पसंख्यक समुदायों पर थोपी जा रही है। यह धार्मिक अल्पसंख्यकों को चिढ़ाने वाली राजनीति है, जो न सिर्फ़ उन्हें बल्कि उनकी धर्म-संस्कृति को भी असुरक्षित होने का अहसास कराती है। यह बहुसंख्यकवाद की अहंकारी राजनीति है, जो अल्पसंख्यकों पर राज करना अपना दैवीय अधिकार समझती है। वरना क्या संविधान की शपथ लेकर लोकतंत्र चलाने का संकल्प लेने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इतने अहंकारी लहजे में यह कहते कि “भगवान श्रीकृष्ण ने तो दुर्योधन से पांच गांव मांगे थे, लेकिन हम तो केवल अयोध्या, काशी और मथुरा के लिए ही बात कर रहे हैं? ये सामान्य नहीं, बल्कि ईश्वर के अवतरण-स्थल हैं।” उन्होंने यह भी कहा कि “अयोध्या का उत्सव दुनिया ने देखा तो नंदी बाबा ने भी कहा, हम काहे इंतज़ार करेंगे? काशी में रातों-रात बैरिकेडिंग तुड़वा दी। हमारे कृष्ण कन्हैया कहां मानने वाले हैं?” और यह सुनते ही सदन में बेंचों पर बैठे हुए हिंदू विधायक “जय श्रीराम, हर-हर महादेव, और राधे-राधे” के नारे लगाने लगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को संविधान की धज्जियां उड़ाते हुए बहुसंख्यकवाद की यह अलोकतांत्रिक राजनीति करने का साहस कहां से आया? तो इसका उत्तर है, यह साहस उन्हें सदन में और सदन से बाहर तालियां बजाने वाले, जय श्रीराम के नारे लगाने वाले और दीवाली मनाने वाले अंधभक्तों से मिला है। इन अंधभक्तों में एक दलित-पिछड़ी जातियों का झुंड है, जो अपना विवेक खो चुका है, और दूसरा वह पेट-भरा वर्ग है, जिसे रामराज्य में सबसे ज्यादा लाभ होना है, और यह ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया वर्ग है। इस पेट भरे वर्ग से तो कोई सवाल नहीं किया जा सकता, क्योंकि यही वह वर्ग है, जिसके हाथों में देश के सारे संसाधन और सारी प्रशासनिक व्यवस्था है। इसे रामराज्य इसलिए पसंद है, क्योंकि यही वर्ग उसका सर्वेसर्वा और शासक होगा, जिसमें दलित-पिछड़ी-आदिवासी जातियां उनके नियंत्रण में शासित बनी रहेंगी। रामराज्य इनके लिए स्वर्ग की तरह है, क्योंकि लोकतंत्र में उनके स्वर्ग में कटौती की संभावना हमेशा बनी रहती है।
लेकिन दलित-पिछड़ी जातियों का जो विवेकहीन झुंड है, वह सचमुच अंधभक्त है। इस अंधे के हाथ बटेर भी नहीं लगने वाली है। इसका हित अगर किसी व्यवस्था में है, तो वह लोकतंत्र की संवैधानिक व्यवस्था में ही है। लोकतंत्र है, तो उसका अस्तित्व है, वरना रामराज्य में उसका अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। इन अंधभक्तों का राजनीतिक नेतृत्व रामराज्य के सम्राट ने पहले ही खत्म कर दिया है। मायावती को वह ठिकाने लगाने चुके हैं, और रामदास अठावले, उदित राज, नीतीश कुमार, चिराग पासवान, जीतन राम मांझी को उन्होंने किसी काम का छोड़ा नहीं है। हालांकि लालू प्रसाद यादव और अखिलेश यादव अभी भी एक फांस हैं, जो उनकी खोपड़ी में कील की तरह चुभते हैं। लेकिन बहुसंख्यकवाद की हिंदू राजनीति शायद ही इन्हें उठने दे। रामराज्य के सम्राट ने ये सब दलित-पिछड़ी जातियों को अंधभक्त बनाने के लिए किया है।
रामराज्य का संकल्प लोकतंत्र के विनाश का संकल्प है। रामराज्य में राज्य-शक्तियां एक राजा में निहित होती हैं, जनता में नहीं। लेकिन लोकतंत्र में राज्य-शक्तियां किसी राजा में नहीं, बल्कि जनता में निहित होती हैं, जो उसके प्रतिनिधियों द्वारा संचालित होती हैं। राजा निरंकुश होता है, क्योंकि वह स्वयं कानून होता है। इसके विपरीत लोकतंत्र में संविधान का शासन होता है, जो समाज के सभी वर्गों और समुदायों के साथ न्याय करता है। रामराज्य में व्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई महत्व नहीं है, जबकि लोकतंत्र व्यक्ति की स्वतंत्रता पर ही जोर देता है। रामराज्य में जनता प्रजा होती है, वह कभी शासक नहीं बन सकती। लेकिन लोकतंत्र में कोई राजा और कोई प्रजा नहीं होती। लोकतंत्र में वोट से शासक बनता हैं, पेट से नहीं। लोकतंत्र में सभी नागरिक समान होते हैं, जबकि रामराज्य में सभी नागरिक समान नहीं होते, वहां सामाजिक स्तर वर्णव्यवस्था के अनुसार निर्धारित होता है। रामराज्य एक धर्म केंद्रित न्याय-प्रणाली है, जिसकी नीतियां सम्राट द्वारा धर्म को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं। किन्तु लोकतंत्र एक संविधान-आधारित न्याय-प्रणाली है, जिसकी नीतियां जनहित को केंद्र में रखकर बनाई जाती हैं। रामराज्य का अर्थ है राजतंत्र, जिसे पुन: कायम करना देश को पीछे ले जाना है। इसलिए रामराज्य लोकतंत्र का विकल्प कभी नहीं बन सकता। रामराज्य में प्रतिरोध के लिए कोई स्थान नहीं है। इसलिए प्रतिरोध चाहे रावण का हो, या शंबूक का, रामराज्य में उसे मरना ही है। जिस रामराज्य में प्रतिरोध का दंड मृत्यु हो, वह राज्य तानाशाह होता है। योगी आदित्यनाथ जिस लोकमंगल की बात करते हैं, उसके मूल में स्त्रियों और शूद्रों का दमन निहित है। स्वामी धर्म तीर्थ ने 1941 में प्रकाशित किताब ‘हिस्ट्री ऑफ हिंदू इम्पेरिअलिज्म’ में लिखा है कि ब्राह्मणों ने राम और सीता दोनों को उत्पीड़ित किया था। रामराज्य वास्तव में ब्राह्मण राज्य है, और ब्राह्मण-मंगल ही वास्तव में लोकमंगल है। रामराज्य हिंदू राष्ट्रवाद, ख़ास तौर से ब्राह्मण-राष्ट्रवाद का पर्याय है, जबकि लोकतंत्र भारतीय राष्ट्रवाद का पर्याय है।
रामराज्य का बजट ऐसा ही हो सकता है, जैसा योगी आदित्यनाथ ने पेश किया है, जिसमें जनता की बेरोजगारी दूर करने और चिकित्सा और उच्च शिक्षा में सुधार पर कोई जोर नहीं है। यहां उल्लेखनीय है कि जिस दिन योगी सरकार ने अपना बजट पेश किया, उसी दिन केरल सरकार ने भी बजट पेश किया था। केरल के बजट में राज्य को मेडिकल हब में बदलने, अंतरराष्ट्रीय छात्रों को आकर्षित करने के लिए उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आमूल-चूल परिवर्तन लाने और कृषि तथा उद्योग में निवेश प्राप्त करने के लिए भूमि-क्षेत्र में आवश्यक सुधार लाने की योजनाएं हैं। इसे कहते हैं, लोकतंत्र का बजट। लेकिन योगी आदित्यनाथ के रामराज्य को समर्पित बजट में उत्तर प्रदेश को आध्यात्मिक हब में बदलने की योजना है। क्या उत्तर प्रदेश को अंतरराष्ट्रीय स्तर की उच्च शिक्षा वाले विश्वविद्यालय नहीं चाहिए? कृषि क्षेत्र में सुधार नहीं चाहिए। क्या हिंदू बहुसंख्यकवाद की राजनीति ने कृषि को बर्बाद करने वाले छुट्टा पशुओं की समस्या पैदा नहीं की है? यह समस्या क्या इससे पहले की सरकारों में थी? इन छुट्टा पशुओं को बाड़े में बंद करने और उनकी सुरक्षा करने की कोई व्यवस्था योगी सरकार ने नहीं की है। वह कर भी नहीं सकती, क्योंकि लाखों पशुओं के लिए पशु-शालाएं बनाने और उनके लिए चारे का इंतजाम करना किसी सरकार के बश की बात की नहीं है। ये हाड़-मांस के चलते-फिरते शरीर हैं, जिनमें रोज वृद्धि होती है, और जिन्हें भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी, बीमारी सब लगती है। होंगी हजारों की संख्या में गोशालाएं, पर उन्हीं में हजारों गायें भूख और बीमारी से मर भी रही हैं। ये सरकार की मुफ्त राशन पाने वाली जनता नहीं है, जो एक महीने राशन न मिलने पर सड़कों पर आ जाएगी। ये पशु हैं, सरकार-वरकार को नहीं जानते हैं। जब भूख-प्यास से विकल होते हैं, तो बाड़ा तोड़कर सड़कों पर आते हैं, जो शहरों में राहगीरों का चलना दूभर करते हैं, और गांवों में खेतों में घुसकर किसानों की फसल बर्बाद करते हैं। हाल की ही खबर है कि उत्तर प्रदेश के अमरोहा जिले के आदमपुर क्षेत्र में पांडली गांव के किसान भगवान सिंह की नौ बीघे जमीन में खड़ी गेंहू की फसल को छुट्टा पशुओं ने बर्बाद कर दिया। किसान यह सदमा बर्दाश्त नहीं कर सका, और हार्ट अटैक से उसकी मौत हो गई। किसान इन छुट्टा पशुओं से इस कदर परेशान हैं कि उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई जिला होगा, जहां इसके खिलाफ किसानों ने विरोध-प्रदर्शन न किया हो। लेकिन रामराज्य के बजट में इस समस्या का क्या कोई निदान है?
इस देश को रामराज्य की नहीं, लोकतंत्र की जरूरत है। हमारा पड़ोसी देश नेपाल भी कभी एक हिंदू राष्ट्र था। हिंदू राष्ट्र के रहते उसकी अर्थव्यवस्था चौपट हो गई थी। वहां की जनता ने इस सच्चाई को समझा और उसने सम्राट और हिंदू राष्ट्र के खिलाफ बगावत कर दी। परिणामत: जनता की जीत हुई और राजशाही विदा हुई। भारत की जनता को भी, और ख़ास तौर से अंधभक्त जनता को, जो यह समझती है कि शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा से ज्यादा धर्म महत्वपूर्ण है, जितनी जल्दी हो सके, इस सच्चाई को समझ लेना चाहिए कि रामराज्य उसे शिक्षा, रोजगार, मानवीय गरिमा, समान अधिकार और स्वतंत्रता नहीं दे सकता, जो उसका मौलिक अधिकार है। उसका विकास अगर हो सकता है, तो लोकतंत्र में ही संभव है, रामराज्य में नहीं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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