1857 के गदर को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम बताया जाता है। इस बारे में विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। दक्षिणपंथी हिंदू विद्वान, जिनमें कुछ मुस्लिम विद्वान भी शामिल हैं, इसे अंग्रेजी राज्य से मुक्ति की लड़ाई के रूप में ही देखते हैं। वामपंथी विद्वानों की राय भी कुछ भिन्न नहीं है। वे भी घूम-फिरकर इसे अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जन-विद्रोह ही मानते हैं। लेकिन दलित-चिंतन इसे हिंदू-मुसलमानों, खासकर ब्राह्मणों और सामंतों का धर्म-युद्ध मानता है, जो अंग्रेजी राज्य के समाज-सुधारों के विरोध में किया गया। इसमें आम जनता को भ्रमित करके शामिल किया गया था।
वस्तुत: भारत का ब्राह्मण वर्ग अपनी धर्म-व्यवस्था पर इतना मुग्ध था कि वह उसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहता था। करीब आठ सौ साल के मुस्लिम शासन में भी ब्राह्मणों की धर्म-व्यवस्था सुरक्षित थी। उसमें कोई ख़ास हस्तक्षेप मुस्लिम शासकों ने नहीं किया था। इसीलिए वे आठ सौ साल तक शासन कर सके, और यदि उनके दुर्भाग्य से अंग्रेज न आए होते, तो मुस्लिम शासन का अभी शायद ही अंत होता। क्या यह महत्वपूर्ण प्रश्न नहीं है कि भारत में मुस्लिम साम्राज्य के खिलाफ एक भी स्वतंत्रता संग्राम नहीं लड़ा गया।
किसी भी आंदोलन को नेतृत्व और गतिशीलता देने का काम देश का बुद्धिजीवी वर्ग करता है और दुर्भाग्य से भारतीय समाज का नेतृत्व जिस बुद्धिजीवी वर्ग ने किया, वह ब्राह्मण रहा है। मुस्लिम शासकों ने ब्राह्मण वर्ग को सारी स्वतंत्रता और सुख-सुविधाएं देकर उसके वर्चस्व को कायम रखा था। लेकिन यही काम भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी ने आकर नहीं किया। उसने उनकी धर्म-व्यवस्था में दखल देना शुरु किया और हिंदू समाज-व्यवस्था में कई सुधार किए। इसी दखल के परिणामस्वरूप कंपनी सरकार को ब्राह्मणों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। दूसरे शब्दों में अंग्रेजों का समाज-सुधार एजेंडा ही उनके विरुद्ध आंदोलन का कारण बना। कम-से-कम दो बड़े विद्रोह भारत में समाज सुधार के फलस्वरूप ही हुए, जिनमें पहला 1806 में वेल्लौर का सिपाही विद्रोह और दूसरा 1857 का सिपाही विद्रोह। डॉ. आंबेडकर ने लिखा है कि वेल्लौर का विद्रोह एक छोटी चिंगारी की तरह था, पर 1857 का विद्रोह एक बड़ा अग्निकांड बन गया था। (डॉ. आंबेडकर राइटिंग्स एंड स्पीचेस, वाल्यूम 12, पृष्ठ 140)
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वेल्लौर का विद्रोह सिर्फ इस आधार पर हुआ था कि मद्रास आर्मी के चीफ कमांडर जान क्रैडोक ने एक रेगूलेशन जारी करके सिपाहियों के लिए धार्मिक और जातीय पहचान वाली यूनिफार्म समाप्त करके उसकी जगह नया यूनिफार्म लागू कर दी थी, जिसमें पगड़ी, दाढ़ी और हाथों में अंगूठियां पहनने की मनाही कर दी गई थी और इन सबके बदले एक नई टोपी निर्धारित की गई थी। सिपाहियों ने इसे अपने ईसाईकरण के रूप में देखा। हिंदुओं ने नई टोपी को गाय की खाल से बनी टोपी समझा और मुसलमानों ने दाढ़ी हटाने को अपने धर्म में दखल समझा। अतः दोनों धर्मों के सिपाहियों ने धर्म के नाम पर विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को वेल्लौर किले में मौजूद टीपू के परिवार ने मदद की थी।
इस विद्रोह को भी ब्राह्मण लेखकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम कहा है और यहां तक लिखा है कि इसी विद्रोह ने 1857 में सिपाही विद्रोह के रूप में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का मार्ग प्रशस्त किया था। (द हिंदू, संडे मैगजीन, 6 अगस्त 2006 में देखिए ए. रंगराजन का लेख ‘व्हेन द वेल्लौर सिपायस रिबेल्ड’)
क्या यह सचमुच स्वतंत्रता संग्राम था? यदि यह वास्तव में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम था, तो वे कंपनी की सेना में भर्ती ही क्यों हुए थे? फिर, यह विद्रोह नए यूनिफार्म रेगूलेशन जारी होने के बाद ही क्यों हुआ? इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि यह विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ नहीं था, बल्कि उसके द्वारा जारी रेगूलेशन के विरोध में था, जिसने सिपाहियों की धार्मिक और जातीय पहचान समाप्त कर दी थी। यदि कंपनी इस रेगूलेशन को जारी नहीं करती, तो विद्रोह नहीं होता। तब यह स्वतंत्रता संग्राम किस आधार पर हुआ? इसे हम धार्मिक आज़ादी के लिए बगावत कह सकते हैं, क्योंकि यह धार्मिक और जातीय स्वतंत्रता के लिए हुई थी, भारत की स्वतंत्रता के लिए नहीं।
दूसरा विद्रोह 1857 में हुआ। इस विद्रोह का श्रेय सिपाही मंगल पांडे को दिया जाता है। वह एक रूढ़िवादी और अस्पृश्यता को मानने वाला ब्राह्मण था। बंगाल की उसी बैरक में, जिसमें मंगल पांडे था, मातादीन सफाई का काम करता था। घटना है कि एक दिन झाड़ू लगाते समय पांडे का लोटा मातादीन से छू गया। अस्पृश्यता-धर्म को मानने वाले मंगल पांडे से लोटे का छूना सहन नहीं हुआ और उसने मातादीन को गालियां देकर अपमानित किया। इस पर मातादीन ने फटकारते हुए कहा कि लोटा छूने से तुम धर्मभ्रष्ट हो जाते हो, पर जब उन कारतूसों को दांतों से पकड़कर खोलते हो, तो भ्रष्ट नहीं होते, जिनके मुंह पर गाय और सुअर की चर्बी लगी होती है। मंगल पांडे ने जब यह सुना तो उसे लगा कि सभी हिंदू सिपाहियों का धर्म-भ्रष्ट हो गया है। यही घटना सिपाही विद्रोह का कारण बनी।
क्या सचमुच सिपाही विद्रोह का यही एक कारण था? यह गले नहीं उतरता, क्योंकि कारतूसों में चर्बी रहती थी, यह सभी सिपाही जानते थे, भले ही वह किसी भी पशु की हो। यदि मंगल पांडे मांसाहारी नहीं था, तो उसके लिए किसी भी पशु की चर्बी वर्जित थी। फिर गाय की चर्बी को लेकर ही विद्रोह क्यों? दूसरे, यह भी गौरतलब है कि बगावत के समय भी सिपाहियों ने कारतूसों का उपयोग किया था, तब वे उन्हें किस तरह खोलते थे? संभवत: मामला चर्बी का नहीं था, कुछ और ही था।
गाय और सुअर ये दो पशु हिंदू और मुसलमानों के धर्म से जुड़े हैं। हिंदू गाय को माता कहते हैं, जो उनके धर्म में एक पूजनीय पवित्र पशु है, जबकि मुसलमानों के लिए सुअर एक गंदा पशु है और इस्लाम में उसका छूना और मांस खाना हराम माना गया है। हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में लड़ाने के काम में सांप्रदायिक शक्तियां प्रायः इन्हीं दो पशुओं का उपयोग करती आयी हैं। 1857 में भी ब्राह्मण शक्तियों ने यही किया। उन्होंने कारतूसों में गाय की चर्बी को अपनी धर्म-व्यवस्था की लड़ाई के लिए एक कारगर हथियार के रूप में देखा। इस धर्म-युद्ध में मुसलमान भी ब्राह्मणों के साथ आ जाएं, इसलिए गाय के साथ सुअर को भी एक साथ जोड़ा गया। हो सकता है कि मातादीन इस काम में ब्राह्मणों का ही संदेशवाहक रहा हो।
यहां भी वही सवाल विचारणीय है, जो वेल्लौर विद्रोह में विचारणीय था। जिन ब्राह्मणों ने इसे भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम कहा, जैसा कि सावरकर और हरदयाल आदि ने, तो वे इस बात पर विचार नहीं करते कि यदि कारतूसों में गाय या सुअर की चर्बी न लगाई गई होती, या इसका भान ही न हुआ होता, तो क्या तब भी कोई विद्रोह होता? यदि चर्बी ही मुख्य कारण था, तो भले ही यह बगावत हो, पर उसे स्वतंत्रता संग्राम किस आधार पर कहा जा सकता है? यह विद्रोह दरअसल अपनी धर्म-व्यवस्था को बचाने के लिए हुआ था। यह हिंदुओं की धार्मिक स्वतंत्रता का मामला था, जिसका भारत की स्वतंत्रता से कोई संबंध नहीं था। इस विद्रोह की योजना बनाने का काम रूढ़िवादी ब्राह्मणों और कुछ उन देशी राजाओं और नवाबों ने किया था, जिनकी रियासतें अंग्रेजी राज में खतरे में थीं।
सिपाही-विद्रोह के मूल कारण पर आते हैं। यह विद्रोह बंगाली आर्मी ने किया था। यह सिर्फ नाम की बंगाली आर्मी थी, इसमें बंगाल का कोई भी सिपाही नहीं था। यह आर्मी मुख्य रूप से अवध और दोआबा क्षेत्र के उच्च जातीय लोगों को लेकर बनी थी। इसमें अधिकतर ब्राह्मण सैनिक थे, जो अपने चरित्र में ही सांप्रदायिक और जातिवादी थे। इसलिए, यह आर्मी ब्राह्मण साजिश का आसानी से शिकार हो गई।
अवध प्रांत और बनारस के ब्राह्मण, अंग्रेज सरकार के सामाजिक सुधार कानूनों से क्षुब्ध थे। वे चाहते थे कि मुगलों की तरह अंग्रेज भी उनकी धर्म-व्यवस्था में दखल न दें, पर अंग्रेजों ने कई मामलों में दखल देना जरूरी समझा।
इस संबंध में डॉ. आंबेडकर ने कुछ सुधारों का उल्लेख किया है, जिनका संक्षिप्त वर्णन करना यहां जरूरी है। वे लिखते हैं– सारी सामाजिक बुराइयां धर्म पर आधारित हैं। एक हिंदू, चाहे स्त्री हो या पुरुष, वह जो भी काम करता है, धर्म के अनुसार करता है। वह खाता धर्म के अनुसार है, पीता धर्म के अनुसार है, नहाता धर्म के अनुसार है, पहनता धर्म के अनुसार है, उसका जन्म धर्म के अनुसार होता है, विवाह धर्म के अनुसार होता है और दाह संस्कार भी धर्म के अनुसार होता है। उसके सारे क्रिया-कलाप धर्म के अनुसार होते हैं। इसलिए धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण से जो बुराइयां पापपूर्ण दिखायी देती हैं, वे उसके लिए पापपूर्ण नहीं होतीं, क्योंकि उसका धर्म उन्हें पुण्य मानता है। इसलिए पाप के दोषी हिंदू का उत्तर यह होता है– “यदि मैं पाप कर रहा हूं तो धर्म के अनुसार कर रहा हू।” (देखिए, डॉ. आंबेडकर: राइटिंग्स एण्ड स्पीचेस, वाल्यूम-12, पृष्ठ 116-137)
समाज हमेशा रूढ़िवादी होता है। वह तभी बदलता है, जब उसे बदलने के लिए दबाव डाला जाता है। ऐसे दबाव जब भी डाले जाते हैं, पुरातन और नवीन के बीच हमेशा संघर्ष होता है। इसलिए कानून की सहायता के बिना किसी बुराई को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता, खास तौर से धर्म पर आधारित बुराई को तो बिल्कुल भी नहीं।
अंग्रेजों की कंपनी सरकार ने छह सामाजिक बुराइयों को रोकने के लिए कानून बनाने की जरूरत समझी। इनमें पांच कानून विद्रोह के पहले बने और छठवां कानून विद्रोह के बाद 1860 में बना, जो स्त्री के यौन-उत्पीड़न और बलात्कार को रोकने के लिए पैनल कोड सेक्शन 375 के अंतर्गत लाया गया था। विद्रोह के पहले के पांच कानून निम्नांकित थे–
- बंगाल रेगूलेशन एक्ट 1795, जो बनारस प्रांत में, ब्राह्मणों के ‘कुर्रा’ की प्रथा को रोकने के लिए लाया गया था, जिसमें वे अपनी स्त्रियों की हत्या कर देते थे। इसी कानून के तहत ब्राह्मण को पहली बार मृत्यु दंड के दायरे में लाया गया था, जिससे वह अभी तक बाहर था।
- 1802 का रेगूलेशन एक्ट, जो मासूम बच्चों की धर्म के नाम पर बलि देने की प्रथा को रोकने के लिए लाया गया था।
- 1829 का रेगूलेशन एक्ट, जो सती प्रथा को रोकने के लिए लाया गया था, जिसमें हिंदू अपनी विधवा स्त्रियों को जिंदा जला देते थे।
- जाति-निर्योग्यता निवारण अधिनियम एक्ट, 1850, सेक्शन-9, रेगूलेशन एक्ट, 1832 का विस्तार था। यह अछूत जातियों के हित में अस्पृश्यता को रोकने के लिए था।
- हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1856, जो हिंदू विधवा के पुनर्विवाह को न्यायिक मान्यता प्रदान करने के लिए लाया गया था।
ब्रिटिश सरकार के इस सुधार कार्यक्रम से यह स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि ये कानून ब्राह्मणों की धर्म-व्यवस्था में हस्तक्षेप थे। जिस ब्राह्मण को किसी की भी हत्या करने पर मृत्युदंड नहीं दिया जा सकता था, उसे अन्य हत्याभियुक्तों के समान ही दण्ड के दायरे में लाने का कानून ब्राह्मणों के लिए, खास तौर से बनारस प्रांत के ब्राह्मणों के लिए, जो अपनी ‘कुर्रा’ प्रथा के तहत किसी भी स्त्री अथवा लड़की की हत्या करने में कोई संकोच नहीं करते थे, विद्रोह की चिंगारी बनने के लिए काफी था।
1857 में बंगाल आर्मी के विद्रोह के मूल में समाज सुधार की यही चिंगारी थी। दूसरी चिंगारी लार्ड डलहौजी की विलय नीति थी। इस नीति के तहत सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, उदयपुर, झांसी और नागपुर की रियासतें विलय कर ली गई थीं। अन्य रियासतों के अस्तित्व भी संकट में थे। मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर तक भयभीत थे और यह नहीं समझ पा रहे थे कि वह अंग्रेजों का विरोध करें या समर्थन।
अब हम झांसी को लेते हैं, जिसकी भूमिका इस विद्रोह में सबसे ज्यादा विख्यात है। झांसी पेशवा आश्रित राज्य था। झांसी के राजा गंगाधर एक विलासी और अत्याचारी शासक था। उसका कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उसने अपने भतीजे के पुत्र को गोद ले लिया था, जिसको वह अपने बाद राज्य का उत्तराधिकारी बनाना चाहता था। उसके पूर्वज सदैव कंपनी सरकार के वफादार रहे। लेकिन कंपनी सरकार ने रानी को 5 हजार रुपए मासिक की पेंशन देकर झांसी को अपने राज्य में मिला लिया। रानी ने पेंशन लेने से इनकार कर दिया और कहा कि “मैं अपनी झांसी नहीं दूंगी।” रानी ने झांसी को बचाने के लिए अंग्रेजों से युद्ध किया।
ये सभी राजे अपनी रियासतों में अपनी सत्ता वापस चाहते थे। इसलिए ब्राह्मणों के साथ इन राजाओं ने भी विद्रोह में साथ दिया।
यहां इस प्रश्न पर विचार करने की जरूरत है कि क्या यह स्वतंत्रता संग्राम था? यदि यह स्वतंत्रता संग्राम था, तो क्या सैकड़ों रियासतों में विभाजित भारत में एक अखंड स्वराज की अवधारणा तब तक विकसित हो गई थी? स्पष्ट उत्तर है– नहीं। स्वराज की हिंदू अवधारणा भी ठीक से 1900 के बाद बनी थी। 1930 तक यानी गोलमेज सम्मेलन के समय तक पूर्ण स्वतंत्रता की परिकल्पना तक अस्तित्व में नहीं थी। गांधी और कांग्रेस के नेता डोमिनियन स्टेटस की मांग कर रहे थे।
जब बीसवीं शताब्दी में यह स्थिति थी तो, उन्नीसवीं शताब्दी में 1857 के विद्रोह को प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम कहने का क्या अर्थ है? यह उन मूर्खों का आलाप था, जो सिर्फ हिंदुओं की स्वतंत्रता चाहते थे, और इस बात से उन्हें कोई मतलब नहीं था कि यदि 1857 का विद्रोह, यदि दुर्भाग्य से सफल हो जाता, तो अलग-अलग रियासतों की स्वतंत्र सत्ताएं उन्हीं व्यवस्थाओं को जीवित रखतीं, जिनमें अछूत समस्त मानवाधिकारों से वंचित थे, विधवा स्त्रियों को जिंदा जलाया जाता था, मासूम बच्चों की बलि दी जाती थी, अय्याश सामंत चाहे जिस स्त्री या लड़की का अपहरण कराते और बलात्कार करते और ब्राह्मण की हर हिंसा और बर्बरता क्षमा योग्य होती। न पूरे देश में कानून एक होता और न कानून की नजर में सब समान होते।
इस विद्रोह को भारत का पहला स्वतंत्रता संग्राम कहने वाले और अखंड हिंदू भारत का स्वप्न देखने वाले ब्राह्मण लेखकों ने यह देखने के लिए अपनी आंखों का मोतियाबिंद साफ नहीं किया कि रियासतों को विलय करके भारत को अविभाज्य राज्य बनाने का क्रांतिकारी कार्य तो अंग्रेज कर रहे थे।
कहावत है कि बारह साल बाद घूरे के भी दिन फिर जाते हैं। फिर ये तो इस देश के लाखों दबे-कुचले, दलित, पिछड़े, गरीब, आदिवासी, मेहनतकश लोग थे। उनकी हजारों सालों की बिगड़ी नियति को भी क्यों नहीं बदलना था? ब्राह्मण और राजे-महाराजे भले ही चाहते थे कि अंग्रेज के विरुद्ध विद्रोह सफल हो, अंग्रेज विदा हों और उनकी सामंती धर्म-व्यवस्था बहाल हो, पर पीड़ित बहुजनों के हित में नियति को यह स्वीकार नहीं था। इसलिए विद्रोह देशव्यापी नहीं हो सका। दिल्ली, लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बनारस, झांसी, ग्वालियर और बिहार के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रहा और शीघ्र ही इसको कुचल दिया गया। बंबई और मद्रास की सेनाओं ने इस विद्रोह में भाग नहीं लिया, वरन् उसे दबाने में भूमिका निभायी। यहां यह जानकारी देना जरूरी है कि बंबई और मद्रास की सेनाओं का गठन अछूत जातियों के लोगों से किया गया था। उनमें अधिकतर बंबई की महार और मद्रास की परिया अछूत जाति के लोग थे। यही कारण था कि उन्होंने ब्राह्मणों के इस विद्रोह में भाग नहीं लिया। इसलिए मार्च, 1857 में शुरू हुआ यह विद्रोह जुलाई, 1857 तक पूरी तरह शांत हो गया था और देश निरंकुश राजतंत्रों को विदा कर जनतंत्र की राह पर चलने लगा था।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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