क्या आप जानते हैं कि निजी पूंजीवाद, जो एक तरह का सामंती पूंजीवाद भी है, जनता को आर्थिक रूप से कैसे कमजोर करता है या उसे अपने शिकंजे में कैसे जकड़ता है? अगर नहीं जानते हैं, तो जान लें कि वह पहला हमला जनता की बचत पर करता है। यह बचत ही है, जो उसे भविष्य को संवारने के काम आती है। वह अपनी बचत से ही घर का बंदोबस्त करता है, कपडे-लत्ते बनवाता है, शादी-व्याह की योजनाएं बनाता है, और अपने बच्चों को किसी काबिल बनाने की सोचता है। बचत वह नाभि है, जिसमें जीवन का अमृत होता है। पूंजीवाद उपभोग की जरूरी चीजों के दाम बढ़ाकर इसी नाभि को सुखाता है। मिसाल के तौर पर, यदि कोई आम आदमी अपनी आमदनी से एक महीने में सौ रुपए और एक वर्ष में हजार-डेढ़ हजार रुपए की बचत करता है, तो वह बचत उसके भविष्य को संवारने में मदद करती है। पूंजीवाद बाकायदे देश में इसका सर्वे कराता है। यहां पूंजीवाद मनु के इस सिद्धांत या नियम पर चलता है कि मजदूर अगर धन का संग्रह करता है, तो वह मालिक के लिए खतरा बनने का काम करता है। इसलिए पूंजीवाद हर क्षेत्र में महंगाई बढ़ाकर जनता की क्रय-शक्ति को कम करके लोगों की बचत को खा जाता है। पूंजीवाद के इस कुकर्म में सरकार उसका सहयोग करती है, क्योंकि जनता को लाभार्थी बनाने की सरकारी योजनाएं इसी आधार पर बनती हैं। और इसी से शुरू होता है लाभार्थी को कर्जदार बनाने का सरकारी-गैरसरकारी सिलसिला भी।
इसे इलेक्टोरल बॉन्ड के मामले से समझते हैं। सुप्रीम कोर्ट की पहल पर इलेक्टोरल बॉन्ड का मामला खुल गया और काले धन का एक बड़ा घोटाला सामने आ गया। हालांकि चुनाव के ठीक पहले नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और ‘एक देश-एक चुनाव’ की रिपोर्ट और अब लोकसभा चुनावों की घोषणा ने इस मुद्दे से जनता का ध्यान जरूर हटा दिया है, लेकिन यह मुद्दा भुलाने लायक नहीं है, वरन् यह देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा वह मुद्दा है, जिसे नज़रअंदाज़ करना जनहित में नहीं होगा। इस मामले में जो चौकाने वाले तथ्य सामने आए हैं, वह सिर्फ भ्रष्टाचार या काले धन का ही मामला नहीं है, बल्कि देश की गरीबी और बेरोजगारी से भी उसका सीधा संबंध है। सवाल सिर्फ भाजपा को सबसे ज्यादा लगभग सात हजार करोड़ रुपए से अधिक चंदा मिलने का नहीं है। वह केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी है, और ईडी, सीबीआई तथा आयकर जैसी तमाम जांच एजेंसियों का डंडा भी उसके पास है, इसलिए भाजपा को सर्वाधिक चंदा मिलना ही था। लेकिन राज्यों में सत्तारूढ़ अन्य दलों को भी करोड़ों का चंदा मिला है, जिसमें पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के बाद तमिलनाडु में सत्तारूढ़ पार्टी द्रमुक मुनेत्र कड़गम (डीएमके) दूसरे नंबर पर है।
हैरतअंगेज़ बात यह है कि घाटे में चलने वाली अनेक कंपनियों ने भी करोड़ों का चंदा दिया है। एक कंपनी का वार्षिक कारोबार दस करोड़ रुपए का था, लेकिन उसने 130 करोड़ के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे। ऐसे ही एक कंपनी का न तो दफ्तर है, न वेबसाइट है, बस वह रजिस्टर्ड भर है। उसका भी सालाना कारोबार दस करोड़ का है, पर चंदा उसने पांच सौ करोड़ रुपए का दिया है।
लेकिन इससे भी ज्यादा हैरतंगेज़ खुलासा यह है कि ज्यादातर कंपनियों ने ईडी और इनकम टैक्स का छापा पड़ने के बाद, या छापा पड़ने के डर से भाजपा को चंदा दिया। इस तरह की कंपनियों की संख्या चार दर्जन से भी अधिक हो सकती है। एक अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार, जिस दिन उनके यहां छापा पड़ा, उसके कुछ ही दिन बाद उन्होंने भाजपा को करोड़ों का चंदा दिया।
विचारणीय सवाल यह है कि अगर इन कंपनियों पर भ्रष्टाचार की कानूनी कार्यवाही की गई थी, तो उनसे चंदा क्यों लिया गया? उनको जेल क्यों नहीं भेजा गया, जैसे भ्रष्टाचार के आरोप में ईडी द्वारा कई नेताओं को जेल भेजा जा चुका है? लेकिन दिलचस्प यह है कि उनको जेल भेजना तो दूर, वे कंपनियां करोड़ों का चंदा देने के बाद, न सिर्फ पाक-साफ़ हो गईं, बल्कि उनको लाभ भी पहुंचाया गया। एक रिपोर्ट के मुताबिक छापे के बाद, जब मेघा इंजीनियरिंग एंड इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड ने 821 करोड़ के रुपए के मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदकर भाजपा को दिए, तो उसके एक महीने बाद ही महाराष्ट्र में उसे 14,400 करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट मिल गया। इसी तरह हैदराबाद की नवयुग इंजीनियरिंग कंपनी लिमिटेड ने 2019 और 2022 में 55 करोड़ का चंदा भाजपा को दिया, जिसके एवज में उसे उत्तराखंड में सिलक्यारा बेंड बरकोट सुरंग बनाने का ठेका मिला। यह वही सुरंग है, जिसमें गत नवंबर, 2023 में 41 मजदूर 17 दिनों तक फंसे रहे थे।
सवाल है कि क्या यह दफ्तरों की वही अफसर या बाबू-प्रणाली नहीं है, जिसमें रिश्वत लेकर काम किये जाते हैं? विडंबना देखिये कि दफ्तरों की रिश्वतखोरी के विरुद्ध कानून है, लेकिन इलेक्टोरल बांड्स के रूप में ली गई रिश्वत के विरूद्ध कोई कानून नहीं है, क्योंकि उसे खूबसूरत नाम दिया गया है– ‘चंदा’। सोशल मीडिया पर किसी का अद्भुत व्यंग्य है– “क्या मशीन है, इधर से रेड डालो, उधर से चंदा निकलता है।”
कांग्रेसी नेता राहुल गांधी ने ठीक ही इसे ‘हफ्ता वसूली’ की संज्ञा दी है। जैसे इलाके के दादा यानी दबंग बाज़ार से हफ्ता-वसूली करते हैं, यह ठीक वैसा ही है। जो हफ्ता नहीं देता, वह कारोबार नहीं कर पाता; जो देता है, वह सुरक्षित रहता है। यह खौफ की राजनीतिक प्रणाली है।
यह भी एक विडंबना है कि सरकार ने इस सच्चाई को स्वीकार नहीं किया। जैसा कि केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने सफाई दी है कि ईडी की कार्यवाही और चुनावी चंदे के बीच कोई संबंध नहीं है। वह कहती हैं कि ये सिर्फ धारणाएं हैं। लेकिन जनता जानती है कि ये धारणाएं नहीं हैं, बल्कि साफ-साफ दिखाई देने वाला ‘भयादोहन’ है। सबसे बड़ी बात यह कि यह एक ऐसा बड़ा घोटाला है, जो सरकार द्वारा किया गया है। और इस घोटाले की कोई जांच शायद ही होगी।
लेकिन विचारणीय मुद्दा यह है कि जनता के दिमाग में कभी यह ख्याल क्यों नहीं आता कि कोई कंपनी इतनी कमाई कैसे कर लेती है कि वह सौ-दो सौ नहीं, बल्कि पांच सौ से हजार करोड़ रुपए तक का चंदा दे देती है? यह बात उसे हैरान क्यों नहीं करती कि जहां लोग हाड़-तोड़ मेहनत करके भी दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पा रहे हैं, और इन्हीं कंपनियों में दिहाड़ी मजदूर और छोटे कर्मचारी इतना भी अर्जित नहीं कर पाते कि अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा-लिखा लें, या अपने सिर पर ठीकठाक छत बना लें, वहीं इन्हीं कंपनियों के मालिक अकूत धन कैसे अर्जित कर लेते हैं?
कंपनियों के मालिक और सीईओ हर महीने लाखों रुपए वेतन के रूप में कैसे लेते हैं? उदाहरण के लिए रिलायंस या अन्य कंपनियों के शापिंग मॉलों पर एक नज़र डालिए। वहां सेल्स मैन्स और सेल्स गर्ल्स को देखिए। वे सुबह दस बजे से रात के दस बजे तक काम करते हैं। वे ये बारह घंटे खड़े होकर ड्यूटी करते हैं, शायद ही कहीं कुर्सी की व्यवस्था उनके लिए हो। इन कंपनियों का सारा आर्थिक साम्राज्य इन्हीं कर्मचारियों के बल पर खड़ा हुआ है, लेकिन इन कर्मचारियों के वेतन बेहद मामूली हैं।
निर्माण और उत्पादन से जुड़ीं जिन कंपनियों ने सरकार को पांच सौ करोड़ या हजार करोड़ का चंदा दिया है, क्या उन्होंने उससे कई गुना धन की वसूली उपभोगकर्ताओं से नहीं की होगी? भारत की लगभग तीस फार्मा कंपनियों ने लगभग चार सौ करोड़ का चंदा दिया है। उसी समय उन्हें अपने उत्पाद के दाम बढ़ाने की हरी झंडी सरकार से मिल गई। जो कफ सीरप 140 रुपए में मिलता था, वह 180 रुपए का हो गया। दस रुपए की गोली पंद्रह रुपए की हो गई। और जैसा कि राहुल गांधी ने दावा किया था कि आठ सौ रुपए में मिलने वाली कैंसर-रोधी गोली कंपनी के साथ मोदी जी की वार्ता के बाद आठ हजार रुपए की हो गई। वर्ष 2014 से पहले मेरी और मेरी पत्नी की एक महीने की दवाई का खर्च पांच और छह हजार रुपए के बीच था। लेकिन अब वह बढ़कर दस से बारह हजार रुपए हो गया है। फार्मा कंपनियों का मुनाफा ऐसे ही नहीं बढ़ता है। दो रुपए की गोली की जब अधिकतम खुदरा कीमत दो सौ रुपए की जाती है, तभी वे डाक्टरों को भी लाखों की रिश्वत देती हैं और स्वयं भी करोड़ों का मुनाफा अर्जित करती हैं। यह मुनाफा इस लूट के बगैर संभव ही नहीं है। रोचक बात तो यह है कि चंदा, रिश्वत, कमीशन का सारा बोझ जनता झेलती है।
पिछले नौ सालों में जो महंगाई बढ़ी है, वह आकस्मिक नहीं है, बल्कि यह चंदे के कारण की गई लूट का ही दुष्परिणाम है। जनता नहीं जान पाती कि नमक से लेकर तेल, आटा, चावल, घी, दालें, मिर्च-मसाले और ईंधन तक की कीमतों में अचानक यह अकल्पनीय वृद्धि कैसे हो गई? यह हो सकता है कि इस अकल्पनीय महंगाई से मध्य वर्ग परेशान न हो, पर मध्य वर्ग ही तो देश नहीं है। भले ही निम्न वर्गों को उनके हाल पर छोड़ा हुआ है, लेकिन क्या निम्नमध्य वर्ग उससे प्रभावित नहीं है?
सरकार इस महंगाई को रोक सकती थी। यह उसके नियंत्रण में था। लेकिन क्या कारण है कि उसने महंगाई को नहीं रोका? इस कारण को समझना जरूरी है, क्योंकि इसे समझे बगैर सरकार और पूंजीवाद के लूट के रिश्ते को नहीं समझा जा सकता। इस संबंध में पहली बात यह समझने की है कि मौजूदा सरकार हिंदुत्व की सरकार है, जिसकी वर्णव्यवस्था में निजी पूंजीवाद धर्मसम्मत है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि इससे पूर्व की सरकारें पूंजीवादी नहीं थीं। निस्संदेह, भारत ने राजतंत्रों के विनाश के बाद लोकतंत्र को स्वीकार किया था, लेकिन यह लोकतंत्र भी पूंजीवादी तानाशाही के रूप में हमारे सामने आया। इसका कारण यह था कि भारत का जो शासक वर्ग (ब्राह्मण, राजे-महाराजे, नवाब और उद्योगपति वर्ग) था, उसी के हाथों में देश के शासन की बागडोर आई। वह अपने कर्म और विचार दोनों से समाजवादी नहीं था, बल्कि सामंती-पूंजीवादी था। उसने लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को केवल सर्वधर्म समभाव के रूप में लिया, और राज्य के संरक्षण में विकास हिंदुत्व का ही किया। इन लोगों ने लोकतंत्र में विधायिका के ज़रिए अपने ठाठबाट के लिए ऐसे संरक्षण सुनिश्चित किए, (जो आज तक चले आ रहे हैं) जो उनके अपने राजसी शान-ओ-शौकत को बरकरार रखते थे। वे आम आदमी के संपर्क में न पहले थे, और न सरकार में आने के बाद रहे। उन्होंने अपने रुतबे को कायम रखा और जनता को अपनी प्रजा ही समझा।
इस तरह भारत में मिश्रित अर्थव्यवस्था के बावजूद, पूंजीवादी अर्थतंत्र कायम हुआ, जो लोकतंत्र के अधीन होकर भी लोक-कल्याण के दायित्व से मुक्त है। इस पूंजीवाद में कुछ भी लोकतांत्रिक नहीं है। कोई भूखा है, तो उसकी चिंता उसे नहीं है। कोई बेघर है, तो उसे कोई परवाह नहीं। किसी के तन पर कपडे नहीं हैं, तो उसे उसकी भी शर्म नहीं है। वह न गरीबी देखता है, न भुखमरी देखता है और न बदहाली देखता है। वह बस अपना मुनाफा देखता है, और यह देखता है कि इस मुनाफे को और किस तरह बढ़ाया जाए। यही वह पूंजीवाद है, जो शोषण पर आधारित है और जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने राजनीतिक लाभ के लिए न सिर्फ पाल रहे हैं, बल्कि संरक्षण भी दे रहे हैं। यह संरक्षण यहां तक है कि निजी कंपनियों का ग्यारह लाख करोड़ का कर्जा सरकार द्वारा माफ़ किया गया है, जो उन्हें सरकारी बैंकों से दिलवाया गया था। यह बोझ भी जनता पर पड़ा, जिसे बैंकों ने तमाम तरह के टैक्स लगाकर जनता से वसूला है।
अब प्रश्न यह है कि जनता इसे समझती क्यों नहीं? यह बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न है, इसे समझना जरूरी है।
कार्ल मार्क्स ने कहा था कि दुनिया में सिर्फ दो ही वर्ग हैं– उच्च और निम्न वर्ग। यानी धनी और गरीब। लेकिन बाद में कार्ल मार्क्स को भी अहसास हो गया था कि सिर्फ दो ही वर्ग नहीं हैं, एक तीसरा मध्यवर्ग भी है। लेकिन भारत के सन्दर्भ में ये तीनों विभाजन पर्याप्त नहीं हैं। भारत में इसके अलावा भी कई और वर्ग हैं। मोटे तौर पर जो उच्च वर्ग है, उससे भी बड़ा एक और उच्च वर्ग है। ये दोनों उच्च वर्ग पूंजीवाद के ही घटक हैं, जिनसे समाजवादी चिंतन की अपेक्षा करने या गरीबों के हित में सोचने का मतलब है, रेगिस्तान में पानी की तलाश करना। मतलब यह कि जो वर्ग शोषण के आविष्कारक हैं, वे क्यों शोषण खत्म करेंगे? एक तीसरा वर्ग सरकारी धन पर सारी सुविधाओं का मुफ्त उपभोग करने वाला राजनीतिक और नौकरशाह वर्ग है, जो सदैव पूंजीवाद द्वारा जनता के शोषण पर अपने नेत्र बंद रखता है। इसमें भी राजनीतिक वर्ग में आने वाले सांसद और विधायक, जो लगभग सभी जातियों से आते हैं, भारी वेतन और भत्तों के साथ-साथ आवास, टेलीफोन, हवाई, रेल, बस यात्रा, अस्पतालों में इलाज आदि की सारी सुविधाएं मुफ्त प्राप्त करते हैं। उनसे यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे पूंजीवाद से पीड़ित जनता के हित में सोचेंगे, क्योंकि उन्हें कोई दुख ही नहीं व्यापता और न वे अपने ऊपर पूंजीवाद के दुष्प्रभाव को महसूस करते हैं। यह वह वर्ग है, जिसे जनता के हित में कानून बनाने का दायित्व दिया गया है, पर हकीकत में वह सदन में भी पूंजीवाद का ही प्रतिनिधित्व करता है। चौथा वर्ग मध्य वर्ग है, जिसमें व्यापारी, ठेकेदार, बिल्डर्स, लघु उद्यमी और बड़े किसान इत्यादि आते हैं, जो वास्तव में उसी पूंजीवाद का हिस्सा हैं, जिसका चेहरा जनविरोधी है। इस वर्ग से भी पूंजीवाद के विरोध में जाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती। पांचवें वर्ग में वह निम्नमध्य वर्ग आता है, जो सरकारी और गैर-सरकारी क्षेत्र में कार्यरत हैं। इस वर्ग में कुछ बुद्धिजीवी भी हैं, जो सोचते हैं, पर अधिकांश यथास्थितिवादी हैं, और अक्सर अवसरों से लाभ उठाने की तलाश में रहते हैं। छठा वर्ग पूंजीवाद द्वारा पाले गए साधू-संतों और धर्मगुरुओं का है, जो जनता में ईश्वर और भाग्यवाद का प्रचार-प्रसार करके, शोषण और अन्याय के प्रति उनमें सोच ही पैदा नहीं होने देते हैं। इनके प्रवचनों और खुत्बों में आम लोगों का हुजूम सदैव उमड़ा रहता है।
इनके सिवा जो सबसे अंतिम वर्ग है, वह अशिक्षितों, मजदूरों, गरीबों, फल, सब्जी और फेरी लगाकर छोटा-मोटा खुदरा सामान बेचने वाले लोगों का है, जिसमें व्यवस्था को समझने की न चेतना है, और न समझ। अपनी न्यूनतम आय में किसी तरह गुजर-बसर करने वाला यही वह वर्ग है, जो धर्म और पूंजीवाद के दो पाटों के बीच सबसे अधिक पिसता है। इसलिए इस देश में पूंजीवाद के विरुद्ध जनता में सोच पैदा होना आसान नहीं है।
(संपादन : नवल/अनिल)