उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (इलाहाबाद) जिले के बारा प्रखंड की बेमरा बस्ती को सपेरों की बस्ती के तौर पर जाना जाता है। सपेरन रीना और गोद में उनकी दुधमुंही बेटी को देखकर कलेजा मुंह को आ जाता है। दोनों इतनी दुबली, इतनी कमज़ोर, ओह! रीना के पास कोई दुधारू जानवर नहीं है और न ही 50-60 रुपए प्रति लीटर का दूध और सौ रुपए रुपए किलो का दाल ख़रीदने की क्षमता है। वह खुद मांड़-भात खाती है और अपनी बेटी को मांड़ पिलाती है, जिससे उनका सिर्फ़ पेट भरता है, पोषण नहीं मिलता। रीना का पति दिन भर शहर गांव मे घूम-घूमकर लोगों को सांप दिखाता है। उसी से कुछ मिल जाता है तो परिवार का पेट पलता है। परिवार के पास मतदाता पहचान पत्र है, परंतु राशनकार्ड नहीं है, जिससे उसे भी भारत सरकार द्वारा दी जा रही पांच किलो राशन नसीब हो सके।
इसी तरह फूलपुर ब्लॉक की मुसहर समुदाय की रामरतिया ने चार दिन पहले एक बच्चे को जन्म दिया है। कुपोषित रमरतिया के स्तनों में दूध नहीं है। स्तनों में दूध आने के लिए कोई उसे सतावर (एक औषधीय पौधा) खाने की सलाह दे रहा है तो कोई कच्चा पपीता। कोई सौंफ-गुड़ खाने की सलाह दे रहा है तो कोई लहसुन और दूध खाने से दूध उतरने की बात बता रहा है। कोई अजवाइन का पानी पीने को कारगर उपाय बता रहा है। लेकिन भूमिहीन खेतिहर मजदूर रमरतिया के कुपोषित देह को कोई नहीं देख रहा। जब उसकी देह ही कुपोषित है तो स्तनों मे दूध कहां से आएगा। रमरतिया के पास न तो आधार कार्ड है न ही राशन कार्ड। वह भी राज्य की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित है।
पाली ग्रामसभा में लोनिया समुदाय की एक स्त्री तपती दोपहरी में भैंसा से माटी ढो रही है। उसका सात-आठ माह का भूखा बच्चा उसके सूखे स्तनों को चिंचोड़ रहा है। स्तनों में बच्चे की भूख मिटाने भर का दूध नहीं है। स्त्री दोपहर बाद अपने बसेरे पर लौटेगी। तब कुछ रींधेगी, पकाएगी, वही खुद भी खाएगी और बच्चे को भी खिलाएगी। लेकिन तब तक उसका बच्चा उसके दूधहीन स्तनों से अपनी भूख मिटाने की व्यर्थ चेष्टा करता रहेगा।
शाम का समय है। आसमान में बादल हैं। प्रयागराज के शिब्बनघाट करेगाबाग़ में फुटपाथ पर 4 स्त्रियां ईंटों को जोड़कर चूल्हा जला रही है। उनकी गोद में दुधमुंहे बच्चे हैं। ये स्त्रियां कूड़ा बीनने का काम करती हैं। ये कई पीढ़ियों से शिब्बनघाट पर ही झुग्गियों में रहती आ रही थीं, लेकिन 2019 में अर्द्धकुम्भ के समय नगर निगम ने इस ज़मीन को अपना बताकर इन लोगों की झुग्गियों पर बुलडोजर चला दिया। तब से ये लोग ऐसे ही मारी-मारी फिर रही हैं। कहीं पन्नी तानती हैं तो नगर निगम उजाड़ देता है। अब ये लोग खुले में रहती हैं, खुले में पकाती-खाती हैं और दिन भर कूड़ा बीनती हैं। कई बार दिन मे एक ही बार खाना पकाती है। अमूमन बच्चों को दिन भर में चार से छह बार खाने की ज़रूरत होती है, लेकिन यहां इन बच्चों को हासिल नहीं होता है। ये सिर्फ़ कुछ नवजात, दुधमुंहे बच्चों की बात नहीं है। देश में ऐसे 60 लाख से अधिक बच्चे हैं, जिन्हें लगातार 24 घंटों तक बिना पोषण के गुज़ारा करना पड़ता है।
जर्नल ऑफ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (जेएएमए) के ‘जेएएमए नेटवर्क ओपेन’ में प्रकाशित एक अध्ययन में भारत में शून्य खाद्य बच्चों की व्यापकता 19.3 फीसदी पाई गई है, जो देश में बच्चों में अत्यधिक भोजन अभाव की ओर ध्यान आकर्षित करती है। बीते 12 फरवरी 2024 को जेएएमए नेटवर्क पर एक अध्ययन रिपोर्ट प्रकाशित हुई। इस रिपोर्ट में शून्य खाद्य बच्चों (जीरो फूड चिल्ड्रेन) के अधिकतम प्रतिशत के मामलों में गिनी (21.8) और माली (20.5) से ऊपर भारत को तीसरा सबसे बड़ा प्रतिशत वाला देश माना गया है। ये तो रही प्रतिशत की बात। अगर हम संख्या के लिहाज से देखें तो भारत 60 लाख से अधिक शून्य खाद्य बच्चों वाला देश है।
बता दें कि ‘शून्य खाद्य बच्चे’ की श्रेणी में उन बच्चों को रखा जाता है, जिन्होंने 24 घंटों तक कुछ खाना नहीं खाया था। भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में यह समस्या सबसे ज़्यादा गंभीर है, जहां 28.4 प्रतिशत शून्य खाद्य बच्चे पाए गए। इसके बाद बिहार 14.2 प्रतिशत, महाराष्ट्र 7.1 प्रतिशत, राजस्थान 6.5 प्रतिशत, मध्य प्रदेश 6 प्रतिशत का स्थान आता है। इन पांच राज्यों में भारत के दो-तिहाई शून्य खाद्य बच्चे पाए गए। उत्तर प्रदेश की आबादी में दलित 21 प्रतिशत और आदिवासी 1 प्रतिशत हैं। इसी तरह बिहार में दलित आबादी लगभग 19.65 प्रतिशत और आदिवासी आबादी 1.68 प्रतिशत है। महाराष्ट्र में दलित आबादी 10.5 प्रतिशत है। राजस्थान में 18 प्रतिशत दलित और 13 प्रतिशत आदिवासी आबादी है। मध्य प्रदेश में 16 प्रतिशत दलित और 21 प्रतिशत आदिवासी हैं।
‘जेएएमए नेटवर्क ओपेन’ की रिपोर्ट बताती है कि छह महीने का होने के बाद सिर्फ़ स्तनपान से शिशुओं को आवश्यक पोषण नहीं मिल पाता है। स्तनपान के साथ साथ ठोस या अर्द्ध ठोस खाद्य पदार्थों की शुरुआत बचपन की वृद्धि और विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। खाद्य और कृषि संगठन के अऩुसार 9-11 माह की उम्र के बच्चों के लिए कैलोरी आवश्यकताओं में योगदान देने वाले खाद्य पदार्थों का हिस्सा लगभग 50 प्रतिशत होना चाहिए (जो कि 700 किलो कैलोरी / दिन में से 300 है। जबकि 6-8 माह की उम्र के बच्चों की कैलोरी आवश्यकता में स्तन दूध (ब्रेस्टमिल्क) का हिस्सा अन्य भोजन से अधिक होना चाहिए (जो कि 600 किलो कैलोरी/दिन में से 400 है)।
इससे पहले 30 मार्च, 2023 को प्रकाशित ‘ईक्लीनिकल मेडिसिन’ की एक अध्ययन में भी दावा किया गया था कि भारत में शिशुओं और छोटे बच्चों के बीच शून्य खाद्य पाया गया है। भारत के 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में पांच राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण रिपोर्ट के डेटा के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया। दरअसल वंचित शोषित पृष्ठभूमि की महिलाएं अपने परिवार का पोषण करने के लिए काम करती हैं, जिसके चलते छः महीने से अधिक उम्र के बच्चों को स्तनपान कराने के लिए उनके पास पर्याप्त समय नहीं होता है। हाशिए पर जीवन बसर कर रही अधिकांश महिलाओं को 0-6 वर्ष के आयुवर्ग के बच्चों पर केंद्रित सरकार के प्रमुख पोषण अभियानों के बारे में पता ही नहीं होता है। बच्चों के ऊपर अपर्याप्त पोषण का दीर्घकालिक प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विशेषज्ञों का दावा है कि तेजी से हो रहे शहरीकरण से देश में कुपोषण को बढ़ावा दिया है।
वहीं केंद्र सरकार ने ‘जेएएमए नेटवर्क ओपेन’ की रिपोर्ट का खंडन करते हुए कहा है कि ‘शून्य खाद्य बच्चे’ शब्द की कोई वैज्ञानिक परिभाषा नहीं है और अध्ययन में अपनाई गयी पद्धति अपारदर्शी है। सरकार ने कहा है कि फर्ज़ी ख़बरों को सनसनीखेज बनाने के लिए यह जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण प्रयास है। साथ ही सरकार ने दावा किया है कि जेएएमए का लेख स्तन के दूध के महत्व को स्वीकार नहीं करता है। सरकार का आरोप है कि देश के 13.9 लाख आंगनबाड़ी केंद्रों के माध्यम से पोषण ट्रैकर पर मापे गये 8 करोड़ से अधिक बच्चों के सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटा का रिपोर्ट में उल्लेख नहीं किया गया है।
लेकिन आरोप लगाते समय केंद्र सरकार भूल गई कि कुपोषित माताओं के स्तनों में दूध नहीं होता है। इस अध्ययन को नकारते समय सरकार राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की उस रिपोर्ट को भी झुठलाती है जो यह बताती है कि भारत में शिशु मृत्यु दर 25.799 है। जबकि कुपोषण दर भी ज्यादा है। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक भारत में कुपोषण से हर साल 10 लाख से अधिक बच्चों की मौत होती है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट मे लिखा गया है कि– “भारत में अनुसूचित जनजाति (28 प्रतिशत), अनुसूचित जाति (21 प्रतिशत) पिछड़ी जाति (20 प्रतिशत) और ग्रामीण समुदाय (21 प्रतिशत) पर अत्यधिक कुपोषण का बहुत बड़ा बोझ है।” कुपोषण को संयुक्त राष्ट्र ने ब्लैक डेथ कहा है।
‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 5 वर्ष से कम आयु के 35.5 प्रतिशत बच्चे स्टंटिंग (आयु के अनुरूप निम्न कद) के शिकार हैं, जो कि प्रायः अपर्याप्त कैलोरी ग्रहण करने के चलते होता है। वहीं 19.3 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग (कद के अनरूप निम्न वजन) के शिकार हैं। यह तब होता है जब खाने के लिए पर्याप्त भोजन नहीं मिलता है या कोई संक्रामक बीमारी हो जाती है। करीब 32.5 प्रतिशत बच्चे अल्प वजन के शिकार हैं। और 3 प्रतिशत बच्चे अति-वजन के शिकार हैं। भोजन पोषक तत्वों की कमी के चलते प्रतिरक्षा प्रणाली कमज़ोर हो जाती है। कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण कुपोषित व्यक्तिगत संक्रमण के प्रति अधिक भेद्य और संवेदशील होते हैं, जिससे रुग्णता और मृत्युदर में वृद्धि होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौतों का लगभग आधा हिस्से के लिए कुपोषण जिम्मेदार है।
‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ रिपोर्ट के मुताबिक 15-49 आयु वर्ग की महिलाओं में कुपोषण का स्तर 18.7 प्रतिशत है। विश्व की खाद्य सुरक्षा और पोषण की स्थिति-2023 में भारत की स्थिति यह है कि लगभग 74 प्रतिशत आबादी पौष्टिक आहार ग्रहण करने के मामले में निचले स्तर पर है। जबकि 39 प्रतिशत आबादी खाद्य सुरक्षा और पोषण प्राप्त करने अक्षम है और यह तब है जबकि केंद्र सरकार लगातार 80 करोड़ आबादी को मुफ़्त राशन देने की ढोल पीट रही है। वहीं वैश्विक भुखमरी स्कैनर में भारत का साल 2023 का ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) स्कोर 28.7 प्रतिशत है। यह भारत में गंभीर स्थिति को दर्शाता है।
‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5’ रिपोर्ट के मुताबिक प्रजनन आयु की 57 प्रतिशत महिलाएं और 0-5 आयुवर्ग के 67.1 प्रतिशत बच्चे एऩीमिया (रक्त की कमी) से पीड़ित हैं। जबकि मां बनने योग्य आयु की एक चौथाई महिलाएं कुपोषित हैं। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि एक कुपोषित मां कुपोषित बच्चे को जन्म देती है और कुपोषण दर-पीढ़ी-दर पीढ़ी चलता रहता है। इसी तरह कुपोषित लड़कियों में कुपोषित मां बनने की संभावना अधिक होती है, जिससे कम वजन के बच्चों को जन्म देने की स्थिति अधिक होती है और इस प्रकार कुपोषण का चक्र पीढ़ियों तक बना रहता है।
(संपादन : नवल/अनिल)