चल रहा लोकसभा चुनाव आज़ादी के बाद का सबसे महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण चुनाव है, क्योंकि यह लोकतंत्र और संविधान को बचाने का चुनाव है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि पिछले 10 साल में हिंदुत्ववादी दक्षिणपंथी सत्ता ने भारत की अस्मिता और उसकी सांस्कृतिक विरासत को लहूलुहान किया है। एक तरह से आजादी के समय देश की जो परिस्थितियां थीं, आज वही स्थितियां बना दी गई हैं।
यह इतिहास में वर्णित है कि किस तरह स्वाधीनता आंदोलन में हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति ने ऐसे हालात पैदा कर दिए थे कि आजादी के साथ भारत को विभाजन का दंश झेलना पड़ा। विभाजन के दरमियान हुई सांप्रदायिक हिंसा और अमानवीयता ने भारत की स्वतंत्रता पर ही सवाल खड़े कर दिए थे। यहां तक कि विंस्टन चर्चिल जैसे नेता नवनिर्मित भारतीय राष्ट्र के टूटने की भविष्यवाणी कर रहे थे। लेकिन गांधी, नेहरू के दूरदर्शी चिंतन और डॉ. आंबेडकर के सामाजिक न्याय ने देश को मजबूत बुनियाद दी। तमाम आशंकाओं को दरकिनार करते हुए वैचारिक दरारों के बावजूद अगर भारत आज भी मजबूती से खड़ा हुआ है तो उसकी बुनियाद भारत का संविधान है।
डॉ. आंबेडकर इस बात से अवगत थे कि संविधान के समक्ष चुनौतियां आएंगीं। उन्होंने संविधान सभा के अंतिम भाषण में उन चुनौतियों और आशंकाओं को सूत्रबद्ध किया। संविधान सभा में करीब 50 मिनट तक दिए गए इस भाषण की तमाम खूबियां हैं। दुखद यह कि इस भाषण की चर्चा अगले पचास साल तक लगभग नहीं के बराबर हुई।
25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिया गया डॉ. आंबेडकर का यह भाषण 20वीं सदी का सबसे महत्वपूर्ण, बौद्धिक और भावी चेतावनियों से भरपूर भाषण है। जिस तरह नेहरू द्वारा 15 अगस्त, 1947 की अर्धरात्रि को दिया गया भाषण ‘नियति से साक्षात्कार’ की चर्चा भारत की गरीबी, बदहाली की चुनौतियों से निपटने और भारत के निर्माण के विषय में है। उसी तरह डॉ. आंबेडकर का यह भाषण वैचारिक और सामाजिक-राजनीतिक चुनौतियों की चर्चा से भरा हुआ है। लेकिन जहां नेहरू के भाषण की चर्चा हमेशा की जाती रही, वहीं आंबेडकर के विचार और व्यक्तित्व की तरह उनके भाषण को भी भुला दिया गया। अगर उस भाषण को आने वाली कांग्रेसी सरकारों और उस समय के बुद्धिजीवियों ने ध्यान से पढ़ा और परखा होता तो शायद हिंदुत्ववाद के ये दुर्दिन नहीं देखने पड़ते।
दूसरी ओर आरएसएस और उसके अनुषांगनिक संगठन संविधान निर्माण से लेकर उसके पारित होने के बाद से ही संविधान के खिलाफ खड़े रहे। यहां तक कि वर्तमान में आरएसएस की राजनीतिक इकाई भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता गाहे-बगाहे भारतीय संविधान को औपनिवेशिक दासता का प्रतीक और विदेशी बताते रहे। असल में आरएसएस का लक्ष्य एक ऐसे संविधान का निर्माण करना है, जो भारतीयता के नाम पर मनुस्मृति पर आधारित हो। इसी कारण संविधान को उनके द्वारा बार-बार अप्रासंगिक और असफल कहा जाता रहा है।
जबकि डॉ. आंबेडकर ने अपने भाषण में कहा था कि “संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों ना हो, वह बुरा साबित होगा, अगर उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे होंगे।”
करीब 90 साल के स्वाधीनता आंदोलन और लाखों कुर्बानियों के बाद प्राप्त आजादी को लेकर डॉ. आंबेडकर बेहद चिंतित थे। भारत के भविष्य के बारे में चिंता व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा था कि “26 जनवरी, 1950 को भारत एक स्वतंत्र राष्ट्र होगा। उसकी स्वतंत्रता का भविष्य क्या है? क्या वह अपनी स्वतंत्रता बनाए रखेगा या फिर उसे खो देगा?” सदियों से जारी सामंतवाद और ब्राह्मणवाद पर आधारित समाज स्वतंत्रता के बाद कैसा होगा? वर्चस्व और वंचित में विभाजित समाज एकसाथ कैसे रहेगा? भारत की जनता कैसा आचरण करेगी?
डॉ. आंबेडकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक दलों को लेकर भी सचेत थे। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “यदि पार्टियां अपने मताग्रहों को देश के ऊपर रखेंगी तो हमारी स्वतंत्रता संकट में पड़ जाएगी। संभवतया वह हमेशा के लिए खो जाए। लेकिन हमें अपने खून की आखिरी बूंद तक अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करनी है।”
वहीं आरएसएस के लिए भारत का विचार ही हिंदुत्व है, समावेशी राष्ट्र नहीं। राष्ट्रवाद के नाम पर उसने हिंदुत्व को पोसा और अब खुले तौर पर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने की मुनादी की जा रही है। भारतीय राष्ट्र के लिए आरएसएस के विचार बेहद खतरनाक थे और आज उससे भी ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे हैं।
इस बारे में भी डॉ. आंबेडकर ने मनन किया था कि कोई राजनीतिक दल अगर बड़ा बहुमत हासिल करता है तो यह खतरा और भी ज्यादा बढ़ जाता है। अपने भाषण में आंबेडकर ने कहा था कि “इस नवजात लोकतंत्र के लिए यह बिल्कुल संभव है कि वह आवरण लोकतंत्र का बनाए रखे, परंतु वास्तव में वह तानाशाही हो। चुनाव में महाविजय की स्थिति में दूसरी संभावना के यथार्थ बनने का खतरा अधिक है।”
इस लोकसभा चुनाव में भाजपा द्वारा खुले तौर पर “अबकी बार 400 पार” का नारा दिया जा रहा है। 400 सीटें जीतने का एजेंडा भी भाजपा के नेताओं ने स्पष्ट कर दिया है कि उन्हें संविधान बदलने के लिए दो-तिहाई से अधिक बहुमत चाहिए।
खैर, बाबा साहब की सबसे बड़ी चिंता स्वतंत्रता खो देने की थी। दरअसल, आजादी के बाद पूरे देश में नेहरू की लोकप्रियता सिर चढ़कर बोल रही थी। भारत के कोने-कोने में नेहरू को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी। आंबेडकर नेहरू जैसे लोकप्रिय नेता के तानाशाह बनने की आशंका से घिरे हुए थे। जॉन स्टुअर्ट मिल को उद्धृत करते हुए चेतावनी भरे अंदाज में उन्होंने कहा, “अपनी स्वतंत्रता को एक महानायक के चरणों में भी समर्पित न करें या उस पर विश्वास करके उसे इतनी शक्तियां प्रदान न कर दें कि वह संस्थाओं को नष्ट करने में समर्थ हो जाए।”
लेकिन पिछले दस वर्षों में यही हुआ है। कारपोरेट मीडिया के जरिए नरेंद्र मोदी की महानायक की छवि गढ़ी गई। मोदी ने तमाम संवैधानिक संस्थाओं को नख-दंत विहीन बना दिया। मीडिया के जरिए विपक्ष को अप्रसांगिक बना दिया गया। मुख्य धारा की मीडिया सरकार के कामों की समीक्षा करने और गलत नीतियों की आलोचना करने के बजाय मोदी का स्तुतिगान करने में मगन है। उसने नागरिकों के सवालों को उठाना बंद कर दिया है। उसने सरकार के काम को दायित्व नहीं, बल्कि कृपा बना दिया है। साथ ही, हिंदुत्ववादी तंत्र और मीडिया द्वारा लोगों को सरकार के प्रति कृतज्ञ होना सिखाया जा रहा है। जबकि डॉ. आंबेडकर ने आयरिश देशभक्त डेनियल ओ कोनेल को उद्धृत करके चेतावनी के तौर पर कहा था कि “जैसे कोई पुरुष अपने सम्मान की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता, कोई महिला अपने सतीत्व की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकती, उसी तरह कोई राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर कृतज्ञ नहीं हो सकता।” वे आगे कहते हैं कि “यह सावधानी किसी अन्य देश के मुकाबले भारत के मामले में अधिक आवश्यक है, क्योंकि भारत में भक्ति या नायक पूजा उसकी राजनीति में जो भूमिका अदा करती है, उस भूमिका के परिमाण के मामले में दुनिया का कोई देश भारत की बराबरी नहीं कर सकता।”
कहने की आवश्यकता है कि भारत एक अत्यंत आस्थावान देश है। यहां भक्ति और आध्यात्मिकता की एक लंबी परंपरा है। राजनीति में यह भाव लोकतंत्र के लिए खतरा है। इसलिए डॉ. आंबेडकर ने आगाह करते हुए कहा था कि “धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है, परंतु राजनीति में भक्ति या नायक पूजा पतन और अंततः तानाशाही का सीधा रास्ता है।”
बहरहाल, यह खतरा आज देश के सामने है। देखना होगा कि क्या भारत के लोग इस चुनाव में तानाशाही को पराजित करके संविधान और लोकतंत्र को बचाएंगे?
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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