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मोदी दशक में जाति का सवाल

सामाजिक न्याय एक ऐसी चेतना है, जिसे संघ परिवार के लिए मुसलमान-ईसाई का डर दिखाकर भी मिटाना आसान नहीं होगा। यही सामाजिक न्याय के राजनीति की ताकत है और संघ परिवार के लिए चुनौती भी। इसलिए समरसता का प्रयोग सफल तो हो सकता है, लेकिन स्थायी नहीं हो सकता है। पढ़ें, जावेद अनीस का यह आलेख

भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा जब मध्य प्रदेश के जबलपुर के एक चुनावी सभा में यह कहते हैं कि – मोदी ने जाति और तुष्टिकरण की राजनीति खत्म कर दी है – तो वे काफी हद तक सही हैं। यहां जाति का मतलब सामाजिक न्याय और तुष्टिकरण से तात्पर्य अल्पसंख्यकवाद की राजनीति से है। दरअसल 2014 में भाजपा के पहली बार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद से नए मिज़ाज के हुक्मरानों द्वारा जाति के सवाल को नया अर्थ देने की कोशिशें की गई हैं, जिनका एकमात्र लक्ष्य सभी जातियों को हिंदुत्व की छतरी के नीचे लाना रहा है।

हिंदू एकीकरण की कवायद

पदानुक्रम पर आधारित जाति व्यवस्था हिंदुत्‍ववादी एकता में सबसे बड़ी बाधा रही है। 1990 के दशक तक संघ परिवार दलित और पिछड़ों को आकर्षित करने के लिए अपने शैली और भाषा में बदलाव के लिए पूरी तरह से तैयार नहीं था, लेकिन मंडल आयोग के बाद जब पिछड़ी और दलित जातियां पहली बार सत्‍ता में हिस्सेदारी के लिए सामने आईं तो संघ एक ऐसे रणनीति के साथ सामने आया, जो हिंदू समाज में बिना कोई रैडिकल बदलाव किए व्‍यापक राजनीतिक एकता बनाने में कारगार साबित हो। राम मंदिर आंदोलन को इसी कवायद के रूप में देखा जा सकता है। बाद में मंडल आयोग से उपजी राजनीति की कमजोरी ने भी उनके रास्ते को आसान बनाया, जिसे उन्होंने बहुत सलीके से भुनाया है और राजनीतिक विमर्श को बहुसंख्यकवादी बनाने में कामयाब हुए हैं। संघ परिवार का यह एक अनोखा प्रयोग रहा है, जिसमें सामाजिक विभाजन से बिना कोई ख़ास छेड़-छाड़ किए व्यापक राजनीतिक एकता को बखूबी अंजाम दिया गया है। संघ परिवार के इस प्रयोग ने इस भ्रम को भी तोड़ा है कि मंडल आयोग के गर्भ से निकली सामाजिक न्याय की राजनीति हिंदुत्‍व के राजनीति को बेअसर करने की ताकत रखती है।

पिछले दो लोकसभा चुनावों की बात करें तो भाजपा और कई दिग्गज राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा 2014 में भाजपा की जीत जाति के राजनीति पर ‘विकास’ और 2019 को ‘राष्ट्रवाद’ की राजनीति की जीत के तौर पर परिभाषित किया गया। इस संबंध में 2019 की जीत के बाद नरेंद्र मोदी की घोषणा काबिले गौर है, जिसमें उन्होंने ‘जाति के नाम पर राजनीति’ करनेवालों पर निशाना साधते हुए कहा था कि अब इस देश में सिर्फ दो जातियां बची हैं और आगे यही दो जातियां रहने वाली हैं, जिसमें एक जाति गरीबी की है और दूसरी जाति देश को गरीबी से मुक्त करने के लिए अपना कुछ न कुछ योगदान देने वालों की है। यह हिंदू समाज को जाति के स्थान पर आर्थिक आधार पर पुनः परिभाषित करने की कोशिश का ही सिलसिला है, जिसमें जाति व्यवस्था के सामाजिक पिछड़ेपन और छुआछूत के मसले को बहुत ही सफाई के साथ खारिज कर दिया जाता है।

बिहार एक गांव में जातिवार गणना करती एक महिला कर्मचारी

इसे पिछले साल दिसंबर में आरएसएस के विदर्भ सह-संघचालक श्रीधर गाडगे द्वारा जाति आधारित जनगणना को लेकर दिए गए बयान से और अधिक बेहतर तरीके से समझा जा सकता है, जिसमें उन्होंने कहा था कि “जाति आधारित जनगणना नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस तरह की कवायद से ‘कुछ लोगों’ को राजनीतिक रूप से फायदा हो सकता है, लेकिन यह सामाजिक रूप से और ‘राष्ट्रीय एकता’ के संदर्भ में अच्छा नहीं है।” साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि “जाति आधारित जनगणना का आरक्षण से कोई संबंध नहीं है।” हालांकि इसके बाद संघ के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर को कहना पड़ा था कि “संघ जातिगत जनगणना के खिलाफ नहीं है, मगर इस तरह की कवायद का इस्तेमाल ‘समाज के समग्र विकास’ के लिए किया जाना चाहिए। साथ ही, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सामाजिक सद्भाव और एकता को कोई नुकसान न हो।”

सामाजिक न्याय बनाम समरसता का दर्शन

संघ द्वारा संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करना अपना मूल उद्देश्य बताया जाता है, लेकिन जाति आधारित असमानता इसमें सबसे बड़ी बाधा है। साथ ही जाति व्यवस्था के खिलाफ दलित और पिछड़ी जातियों की राजनीतिक-सांस्कृतिक चेतना ने इस बाधा को और गहरा कर दिया है। इन सब चुनौतियों से निपटने के लिए संघ परिवार द्वारा कई रणनीतियां, प्रयोग और सिद्धांत पेश किये जाते रहे हैं, जिसमें सामाजिक समरसता प्रमुख है। हालाकि संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले सामाजिक समरसता संघ की रणनीति का हिस्सा नहीं, बल्कि निष्ठा का विषय मानते हैं, लेकिन असल में यह राजनीति ही है और संघ के विराट हिंदू एकीकरण परियोजना की प्रमुख रणनीति है, जिसे दलित-पिछड़ी जातियों के चेतना के काट के तौर पर लगातार विकसित और धारदार किया जाता रहा है। इसे हम तीन हालिया उदाहरणों से समझने की कोशिश करते हैं।

घटना साल 2018 की है जब भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय द्वारा मीडिया संस्थानों को ‘सलाह’ दी गई कि वे दलित शब्द के स्थान पर अनुसूचित जाति का इस्तेमाल करें क्योंकि यह एक संवैधानिक शब्दावली है। इसके बाद कई दलित संगठनों और बुद्धिजीवियों द्वारा इसका यह कहकर पुरजोर विरोध किया गया कि ‘दलित’ शब्दावली का एक राजनीतिक और सामजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि है, जो एक पहचान और उत्पीड़न के लंबे इतिहास को ध्वनि देती है। साथ ही, ‘दलित’ शब्दावली ब्राह्मणवाद के विरोध की सशक्त प्रतिनिधि है और इस वर्ग को लामबंद करने का आधार है। जबकि ‘अनुसूचित जाति’ केवल संवैधानिक स्थिति बताता है और इसमें सामाजिक, ऐतिहासिक संदर्भ शामिल नहीं हो पाते हैं। जाहिर है कि ‘दलित’ की जगह ‘अनुसूचित जाति’ के उपयोग संबंधी ‘सलाह’ एक पूरे संघर्ष को उसके इतिहास, संदर्भों से काटने की कोशिश है।

इसी प्रकार की एक और कोशिश जाति-व्यवस्था और इसके पापों के घड़े को ‘विदेशी शासकों’ के मत्थे मढ़ने की कोशिशें भी की जाती रही हैं, जिनमें बताया जाता है कि हजार साल तक विदेशी शासकों की यातनाओं के कारण ही यह व्यवस्था मजबूत और दलित-पिछड़ों की स्थित बदतर होती गई है। तीसरा उदाहरण 5 अगस्त, 2020 का है जब अयोध्या में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों राम मंदिर का भूमिपूजन के बाद इसका सबसे पहला प्रसाद एक दलित परिवार को भेजा गया। तो कुल मिलाकर समरसता का मूल दर्शन सामाजिक यथास्थिति को मोटे तौर पर कायम रखते हुए राजनीतिक रूप से चारों वर्णों का एकीकरण है।

संतुलन कायम रखने की चुनौती

2014 की जीत के बाद संघ परिवार द्वारा अपने इस प्रयास में उल्लेखनीय तेजी लाई गई है। इस प्रयास में भाजपा अपने बाहरी स्वरूप में खुद को लगभग एक ओबीसी पार्टी के रूप में ढाल लिया है और साथ ही उसे दलितों को भी साधने में सफलता प्राप्त हुई है। लेकिन इस पूरे प्रयास में इस बात का विशेष ध्यान रखा गया है कि यथास्थिति बनी रहे, जिसमें एक तरफ उसके पुराने बनिया-ब्राह्मण समर्थकों की उम्मीद बनी रही है और उनके हितों का ध्यान रखा जाए। साथ ही साथ दलित-पिछड़ों का हिंदुत्व के विचारधारा में यकीन पक्का हो और इस दिशा में उनका संस्कृतीकरण हो सके। नतीजे के तौर पर आज की तारीख में स्वतंत्र दलित राजनीति बहुत ही कमजोर स्थिति में है। या तो वह समाप्ति की ओर है या फिर किसी ना किसी रूप में भाजपा के साथ जुड़कर उसकी राजनीति को मजबूत करने का काम कर रही है।

लेकिन इन दो विपरीत ध्रुवों का संतुलन इतना आसान भी नहीं है। नतीजे के तौर पर हम देखते हैं कि 2024 के चुनावी रण में संविधान एक प्रमुख मुद्दा बन गया, जिसके केंद्र में दलित और कुछ हद तक पिछड़े भी शामिल रहे हैं। इससे साबित होता है कि दलित चेतना इस बात को बहुत गहराई से महसूस करती है कि संविधान हमारे देश के लोकतंत्र की आत्मा है और इसने उन्हें ताकत, पहचान और इज्ज़त दी है। इसमें किसी तरह का बदलाव उनकी स्थिति को भी बदलने की तरह होगा, जिसे डॉ. आंबेडकर के नेतृत्व में बहुत मुश्किल से हासिल किया गया है। यह एक ऐसी चेतना है, जिसे संघ परिवार के लिए मुसलमान-ईसाई का डर दिखाकर भी मिटाना आसान नहीं होगा। यही सामाजिक न्याय के राजनीति की ताकत है और संघ परिवार के लिए चुनौती भी। इसलिए समरसता का प्रयोग सफल तो हो सकता है, लेकिन स्थायी नहीं हो सकता है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

जावेद अनीस

भोपाल निवासी जावेद अनीस मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं तथा सामाजिक व राजनीतिक विषयों पर नियमित रूप से लेखन करते हैं

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