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सुप्रीम कोर्ट का फैसला, उपवर्गीकरण, क्रीमीलेयर और दिकू नॅरेटिव

इस फ़ैसले में इस बात पर विचार ही नहीं किया गया है कि अब तक लागू आरक्षण की व्यवस्था में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व और भागीदारी की वास्तविक स्थिति क्या है? उसका मानक कितना पूरा हुआ है या नहीं। बता रहे हैं अनुज लुगुन

फरवरी, 2019 में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने लगभग 19 लाख आदिवासियों को जंगल से बाहर निकाल देने का फैसला दिया था। कोर्ट ने राज्यों को आदेश दिया था कि 24 जुलाई, 2019 तक या उससे पहले जंगल में रहने वाले आदिवासियों को जंगलों से बाहर निकाल दिया जाए। इस आदेश का तर्क था कि आदिवासी अवैध तरीके से जंगलों में निवास कर रहे हैं और वे पर्यावरण के लिए खतरा हैं। यह आदेश वन विभाग और उन दिकू (गैर-आदिवासी व बाहरी) तथाकथित वन्य-जीव प्रेमियों की याचिका एवं उनके तथ्यों के आधार पर दिया गया था, जो यह मानते हैं कि आदिवासी पर्यावरण के लिए खतरा हैं। कोर्ट का यह फैसला आदिवासी जीवन के अवास्तविक तथ्यों और दिकू नॅरेटिव पर आधारित था।

अब सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण के संबंध में फैसला सुनाया है। महत्वपूर्ण यह कि सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 16 के उपबंध 4 को ध्यान में रखकर दिया है, जिसमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति दोनों शामिल हैं, इसलिए बेशक अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने अभी केवल अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण की बात कही है, लेकिन आनेवाले समय में इसका असर अनुसूचित जनजाति के मामले में भी होगा, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। महत्वपूर्ण यह कि सात में से चार जजों ने दलितों और आदिवासियों के आरक्षण में क्रीमीलेयर लागू करने की बात भी कही है।

उपवर्गीकरण और क्रीमीलेयर का यह नॅरेटिव भी 2019 में दिये गए आदेश की तरह ही न केवल अवास्तविक तथ्यों पर आधारित है, बल्कि इस विषय पर कोर्ट की पूरी कार्रवाई असंवैधानिक प्रतीत होती है।

सवाल है कि अनुच्छेद-342, अनुच्छेद-244 (1) और (2), जिसके तहत संविधान की पांचवीं अनुसूची और छठी अनुसूची के प्रावधान हैं, के होते हुए न्यायालय इस विषय पर फैसला कैसे कर सकती है?

अब भी मूलभूत सुविधाओं से बहुत दूर हैं आदिवासी

स्मरण रहे कि इन्हीं संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर ही इस वर्ष 21 फरवरी, 2024 को एक समीक्षा याचिका की सुनवाई करते हुए मणिपुर हाईकोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर अपने ही पुराने आदेश को रद्द किया था, जिसमें उन्होंने मैतेई समुदाय को एसटी वर्ग में शामिल करने हेतु राज्य को शीघ्रता से विचार करने का आदेश दिया था, जिसके बाद मणिपुर में हिंसा भड़क उठी थी। स्मरण रहे कि ई.वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश मामले में वर्ष 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अदालतें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सूची में संशोधन का आदेश नहीं दे सकतीं।

जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी ने इन्हीं आधारों पर वर्गीकरण को असंवैधानिक कहते हुए इस फैसले का समर्थन नहीं किया। इस फैसले की संवेदनशीलता पर कई तरह के सवाल खड़े होते हैं और जस्टिस बेला एम. त्रिवेदी के मंतव्य को समुचित माना जा सकता है। मसलन–

  1. इस फ़ैसले में इस बात पर विचार ही नहीं किया गया है कि अब तक लागू आरक्षण की व्यवस्था में अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों के प्रतिनिधित्व और भागीदारी की वास्तविक स्थिति क्या है? उसका मानक कितना पूरा हुआ है या नहीं।
  2. केंद्रीय और राज्याधीन संस्थाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति वर्गों की भागीदारी अब भी न्यूनतम है। आंकड़े बताते हैं कि इन वर्गों में बैकलॉग की सीटें वर्षों से ठंडे बस्ते में डाल दी गई हैं। बावजूद इसके इस मुद्दे को कभी संज्ञान में क्यों नहीं लिया जाता है?
  3. निर्धारित आरक्षण के लक्ष्य को पूरा करने की वास्तविक स्थिति को कोर्ट ने कभी संज्ञान में क्यों नहीं लिया? जातीय वर्चस्व और वैमनस्य की सोच की वजह से आरक्षण संबंधी प्रावधानों को लागू नहीं किए जाने पर इसी तरह के आदेश क्यों जारी नहीं होते?
  4. क्या यह फैसला गैर-अनुसूचित जातियों/जनजातियों के आरक्षण विरोधी समूहों के प्रचलित नॅरेटिव से प्रभावित नहीं है?
  5. अनुसूचित जातियों/जनजातियों में आरक्षण की मूल भावना ‘सोशल मोबिलिटी’ पर आधारित है। क्या ‘इकनोमिक स्टेटस’ बदलने से ‘सोशल मोबिलिटी’ बदल जाती है? क्या इस पर विचार किया गया?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अनुज लुगुन

लेखक प्रसिद्ध आदिवासी कवि हैं। इनके प्रकाशित काव्य संग्रहों में ‘अघोषित उलगुलान’, ‘पत्थलगड़ी’, ‘बाघ और सुगना मुंडा की बेटी’ (साहित्य अकादमी युवा पुरस्कार-2019 से सम्मानित) शामिल हैं। संप्रति दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

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