एससी-एसटी उपवर्गीकरण के संबंध में सुप्रीम कोर्ट के सात सदस्यीय पीठ के फैसले पर आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है?
हम यह समझते हैं कि अदालत ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि उपवर्गीकरण कैसे होगा, इसलिए हम इसका विरोध करते हैं।
पीठ ने अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण की बात कही है, जबकि एक समुदाय के रूप में सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा में इसका प्रतिनिधित्व समाज के कई समुदायों की अपेक्षा अभी भी बहुत कम है। यहां तक कि बैकलॉग के आरक्षित पदों पर भर्तियां नहीं हो पाई हैं। इस बारे में आप क्या कहेंगे?
अगर आरक्षण पूरा होता तो शायद हमलाेग समझते कि किस कम्युनिटी को मिला और किस कम्युनिटी को नहीं मिला। यह आरक्षण जो वर्तमान में है, उसका पचास प्रतिशत भी नहीं दिया जा रहा है, तो आप कैसे कह सकते हैं कि इस कम्युनिटी को मिला और इस कम्युनिटी को नहीं मिला है। कुछ आधार तो हाेना चाहिए। तो सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट का कोई आधार ही नहीं है। यह सिर्फ जुमलेबाजी है। तथ्यों के आधार पर अगर जजमेंट होता तो मैं समझता कि कोई बात कोर्ट ने कही है। लेकिन तथ्यों के परे जब कोई फैसला आता है तो उस पर संदेह उत्पन्न होता है और सवाल उठाए जाते हैं। मैं तो कहूंगा कि यह एक तरीके से इंद्रा साहनी के मामले में जो नौ जजों की पीठ ने फैसला सुनाया था, जिसमें कहा गया कि क्रीमीलेयर एससी-एसटी के ऊपर नहीं लगाया जा सकता है, वही क्रीमीलेयर लगाए जाने की बात सुप्रीम कोर्ट के इस सात सदस्यीय पीठ ने परोक्ष रूप से कही है। सवाल ऐसा है कि ई.वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश (पांच सदस्यीय पीठ) का जो जजमेंट है, जिसमें सही संवैधानिक प्रावधानों के बारे में बताया गया। संविधान कहता है कि एससी-एसटी में कौन-सी जाति शामिल होगी या बाहर की जाएगी, यह तय करने का अधिकार केवल संसद के पास है, विधानसभाओं के पास नहीं। यह हमलोग समझते हैं कि संवैधानिक प्रावधान की सही व्याख्या है। रही बात सामाजिक न्याय की तो किसी एक वर्ग को लेकर हम सामाजिक न्याय की बात नहीं करते। यह तो पूरे देश के स्तर पर कही जाती है। यदि हम न्यायपालिका से ही अपनी बात प्रारंभ करें, आप एससी, एसटी और ओबीसी की बात तो छोड़ दें, सवर्णों के अंदर भी समुचित हिस्सेदारी नहीं है। तो आप यह कैसे कह सकते हो कि एक समुदाय के आधार पर आप उपवर्गीकरण करेंगे और दूसरे के आधार पर नहीं। यह तो ‘इक्वलिटी बिफोर लॉ’ का मामला है। तो मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला वैसे तो कई सारी बातों को सामने लेकर आया है, जिस पर चर्चा होगी। दूसरी बात यह कि इस फैसले ने सुलझाने के बजाय उलझा दिया है।
क्या आपको नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राज्य इस दिशा में कोई विवादास्पद पहल करेगा और न्यायालय में इसे और बड़ी पीठ के संज्ञान में लाया जाएगा, जैसा कि केशवानंद भारती बनाम भारत सरकार के मामले हुआ था, जिसमें 13 सदस्यीय पीठ ने फैसला दिया था?
सवाल ऐसा है कि एससी-एसटी के मामले में राज्य को कोई अधिकार नहीं है। जो अधिकार है, वह केवल संसद के पास है। संविधान इस मामले में राज्य को जीरो पॉवर देता है। और एससी के मामले में किसी के पास पॉवर है तो वह संसद के पास है। जजमेंट जब कह रहा है कि राज्य कोटा तय करे तो यह जजमेंट संविधान के खिलाफ है। इसलिए मैंने लफ्ज इस्तेमाल किया कि इस फैसले ने सुलझाने के बजाय उलझा दिया है। रही बात राज्य (केंद्र सरकार) द्वारा इस बारे में कोई पहल करने की तो मेरा ख्याल है कि यह फैसला उनके इंट्रेस्ट के हिसाब से आया है, इसलिए वह इसे चुनौती नहीं देंगे।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला कहता है कि उपवर्गीकरण का आधार इंपीरीकल डाटा होना चाहिए, जिसकी व्याख्या सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व के रूप में की गई है। लेकिन यह उच्च शिक्षा के क्षेत्र में, मसलन शिक्षक और छात्रों के लिहाज से देखें तो कैसे प्रतिबिंबित होगा?
देखिए, बात यह है कि अभी जो जनगणना होती है, उसमें एससी के विभिन्न जातियों का कॉलम तो होता है, लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया जाता है। एससी समुदाय की कुल आबादी प्रकाशित की जाती है और यह कि कुल आबादी में एससी की आबादी प्रतिशत में कितनी है। जैसे कि यह समझो कि चमार कितने हैं या फिर वाल्मीकि कितने हैं, यह प्रकाशित नहीं किया जाता है। इसलिए उपजातियों की जो आबादी है, उनका डाटा चुनाव आयोग के पास तो जरूर है, लेकिन पब्लिक डोमेन में नहीं है। और पब्लिक डोमेन नहीं होने की वजह से आप यह भी तय नहीं कर सकते कि किस जाति का कितना विकास हुआ है किसका नहीं। मैं इसलिए कह रहा हूं कि सुप्रीम कोर्ट का यह जजमेंट बिना डाटा का है।
सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति वर्ग को सजातीय वर्ग नहीं माना है, जबकि समाज में व्यवहार के स्तर पर उनके बीच अस्पृश्यता एक साझा सत्य है। आप इस बारे में क्या कहेंगे?
अस्पृश्यता तो साझी होती ही है। इसमें दो राय नहीं है। फैसले में यह भी एक गड़बड़ी है।
एक सवाल यह कि सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति श्रेणी के उपवर्गीकरण को इस श्रेणी में किसी जाति को शामिल करने या बाहर करने की प्रक्रिया के समान नहीं माना है, जिसके लिए केवल संसद अधिकृत है, आपकी राय क्या है?
मैं वही तो कह रहा हूं। जब राज्य को अधिकार ही नहीं है तय करने का फिर आपने राज्य को कोटा या उपवर्गीकरण करने का अधिकार कैसे दे दिया। रही बात एससी के आरक्षण की तो यह बात साफ है कि जनगणना में जो आंकड़े आएंगे, उसके आधार पर ही यह तय होगा। तो रही बात यह कि राज्य सब-कोटा तय करे, यह सही नहीं है। सब-कोटा तय करने का अधिकार राज्य के पास है ही नहीं। एससी-एसटी के मामले में संविधान ने राज्य को बाहर रखा है।
आप अनुसूचित जाति में क्रीमीलेयर की संभावना के संबंध में सात सदस्यीय पीठ में शामिल जस्टिस गवई के निष्कर्ष को कैसे देखते हैं? जबकि वे स्वयं दलित समुदाय से आते हैं। क्या आपको लगता है कि उन्होंने यह बात अपने अनुभवों के आधार पर कही है? और यह भी कि क्या वाकई में अनुसूचित जाति के लिए संविधान में निर्धारित आरक्षण के कोटे का अब इस कदर दुरुपयोग हो गया है?
जब उनकी नियुक्ति हुई तो उनके पिताजी स्पीकर और राज्यपाल रह चुके थे, उन्हें अपने जजमेंट में स्वयं को क्रीमीलेयर में शामिल होने की बात लिखना चाहिए था। अपना जजमेंट पहले खुद पर लागू करना चाहिए।
यह फैसला आंबेडकरवादी आंदोलन, ब्राह्मणवाद के विरुद्ध संघर्ष और दलित राजनीति को किस तरह प्रभावित करेगा?
देखिए, यह जो आंबेडकरवाद है, यह अब केवल सरकारी नौकरी-पेशावालों तक सीमित नहीं रह गया है। इसका विस्तार हो चुका है। हर इलाके में फैल चुका है। इसलिए वह सर्वाइव कर रहा है।
जस्टिस पंकज मित्तल ने गीता और मिथकीय पात्र कृष्ण को उद्धृत करते हुए कहा कि जाति-व्यवस्था ब्राह्मणवादी मान्यताओं का विकृत रूप है। उनके मुताबिक, ब्राह्मणवादी अतीत जातिविहीन था और संविधान ने हमें यह अवसर प्रदान किया है कि हम जातिविहीन समाज का निर्माण कर सकें और आरक्षण का उपयोग किफायती तरीके से किया जाना चाहिए। क्या आपको नहीं लगता है कि जस्टिस मित्तल का यह निष्कर्ष सामाजिक न्याय के संबंध में ऊंची जाति व ब्राह्मणवादी मानसिकता का परिचायक है, जो कि पूरी तरह अन्यायपूर्ण है?
वे [जस्टिस पंकज मित्तल] जब स्वयं को वैदिक धर्म से जोड़ते हैं तो उसे बचाने की कोशिश करते हैं। उन्हें तो यह कहना चाहिए कि मनुस्मृति गैर-कानूनी है। उन्हें हिम्मत करनी चाहिए कि राजस्थान हाईकोर्ट के सामने मनु का जो पुतला है, उसे हटवाना चाहिए।
ओबीसी के उपवर्गीकरण को सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के आलोक में कैसे देखा जाय?
देखिए, ओबीसी का जो आरक्षण है, वह आर्टिकल 340 के मुताबिक है, जिसके आधार पर तैयार किए गए सूची को चुनौती दी जा सकती है। लेकिन चूंकि यह संविधान के बाहर की सूची है तो यह राज्य को अधिकार हो सकता है।
अंतिम सवाल यह कि क्या आपको लगता है कि इस फैसले से अनुसूचित जाति के कोटे और उनकी राजनीति पर भी असर पड़ेगा? क्या सभी दलित पार्टियां एक होकर इस मुद्दे पर लड़ेंगीं या क्या आप भी इसमें शामिल हाेंगे।
बिल्कुल, मुझे लगता है कि यूपी में जैसे मायावती हैं, चंद्रशेखर आजाद हैं, उन्हें मिल-बैठकर तय करना चाहिए। चिराग पासवान और रामदास अठावले हैं, को तय करना चाहिए कि उन्हें सरकार में रहना है या नहीं रहना है। रही बात हमारी पार्टी की तो हम तो लड़ रहे हैं। और यदि सब मिलकर तय करें तो हम इस संघर्ष का नेतृत्व करने के लिए भी तैयार हैं।
(संपादन : राजन)
(साक्षात्कार पुनर्वर्द्धित : 6 अगस्त, 2024 01:10 PM)
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