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लोकतंत्र में हिंसक राजनीति का जवाब लोकतांत्रिक राजनीति से ही मुमकिन

जिस दिन बहुजन समाज की प्रगति को थामे रखने के लिए बनाया गया नियंत्रित मुस्लिम-विरोधी हिंसा का बांध टूटेगा, उस दिन दुष्यंत दवे जैसे संवेदनशील ब्राह्मण अकेले विलाप नहीं करेंगे। पूरा ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग – चाहे वह संवेदनशील हो या न हो – उनके साथ विलाप करेगा और उनके आंसू इस बांध में बाढ़ ला देंगे। बता रहे हैं अयाज़ अहमद

इस साल जनवरी में अयोध्या में नवनिर्मित राममंदिर में प्राणप्रतिष्ठा समारोह के जुनून के बीच ‘दि इंडियन एक्सप्रेस’ के 20 जनवरी, 2024 के अंक में जावेद आनंद का लेख प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के पहले वर्ष 1991 में इस मसले पर जो कुछ कहा था, उसे सही साबित करने का प्रयास किया। इस लेख का शीर्षक था– “व्हाय मुस्लिम्स शुड हैव गिफ्टेड अवे द बाबरी मस्जिद: द मंदिर देट कुड हैव बीन” (क्यों मुसलमानों को हिंदुओं को मंदिर बनाने के लिए बाबरी मस्जिद दे देना चाहिए था?) यह शीर्षक वर्ष 1991 में व्यक्त उनकी राय का सटीक संक्षिप्तीकरण है। मगर उस समय भी इस तरह के सरलीकृत दूरंदेशी ज्ञान के नतीजों को समझना मुश्किल नहीं था।

अब जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के ब्राह्मण-सवर्ण तबके द्वारा मस्जिदों और मजारों पर कानूनी दावों की बाढ़ आ गई है, मुझे नहीं लगता कि जावेद आनंद 1991 की अपनी सलाह को दोहराना चाहेंगे, या उसे दूरंदेशी ज्ञान के सहारे सही ठहराना चाहेंगे। मस्जिदों और मजारों के बहाने, मुसलमानों पर हमलों का यह जो नया दौर शुरू हुआ है और उसके साथ जो हिंसा हो रही है, उस पर पीड़ा महसूस करने वाले और उसके नतीजों की अनिश्चितता से चिंतित होने वाले वे अकेले नहीं हैं। इस विषय पर करण थापर को इंटरव्यू देते हुए वरिष्ठ वकील और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष दुष्यंत दवे का गला भर आया था। उनके आंसू हर उस भारतीय की पीड़ा और दुख को अभिव्यक्त कर रहे थे, जिसमें मानवीयता है और जो लोकतांत्रिक सिद्धातों के प्रति संवेदनशील है।

मगर आंसू, चाहे वे कितने भी सच्चे क्यों न हों, नरसंहार के उस उन्माद को ख़त्म करने या उसकी तीव्रता को घटाने में किसी काम के नहीं हैं, जो उन्माद पिछले एक दशक से जोर पकड़ रहा है। इस सच से कोई इंकार नहीं कर सकता कि नरसंहार का उन्माद केवल उन व्यक्तियों को अपनी चपेट में नहीं लेता जो उसके प्रत्यक्ष और मूल शिकार होते हैं। इस उन्माद की लपटें कई अनभिप्रेत वर्गों को भी अपनी जद में ले लेती हैं। यह बात दुष्यंत दवे जैसे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से संपन्न ब्राह्मण भी समझ सकते हैं। बशर्ते वे सजग और संवेदनशील हों। मगर हमारे सामने चुनौती यह है कि एक संवैधानिक लोकतंत्र में पनपती इस हिंसक राजनीति से निपटने के लिए हम एक लोकतांत्रिक राजनीति को आकार कैसे दें?

इस दिशा में पहला कदम होगा– पिछली कुछ सदियों में यूरोप और अमरीका में जिस लोकतंत्र ने आकार लिया, उसकी प्रकृति को समझना। इस काल में औपनिवेशिक हिंसा जारी रही, दो विश्वयुद्ध हुए एवं नाज़ीवाद और यहूदीवाद भी पनपे तथा संबंधित देश लोकतांत्रिक भी बने रहे। हमारे यहां लोकतंत्र का आगाज़ ब्रिटिश राज में हुआ। इसके साथ ही संगठित जातिगत और सांप्रदायिक हिंसा भी जारी रही, जिसका अंत देश के बंटवारे के रूप में हुआ। इस दौरान खूब खून बहा। ब्रिटिश राज का स्थान ब्राह्मण राज ने ले लिया और जातिगत और सांप्रदायिक हिंसा नियमित रूप से होती रही। मगर इस हिंसा के कर्ताधर्ता इस पर अफसोस जताते रहे। और निश्चित रूप से जातिगत हिंसा ने प्रणालीगत और संस्थागत स्वरूप ले लिया। इसके तहत स्कूली शिक्षा की जगह, फोकस उच्च शिक्षा पर हो गया और बहुजनों को योजनाबद्ध तरीके से उच्च शिक्षा, नौकरशाही और न्यायपालिका से बाहर रखा जाने लगा। दलितों और आदिवासियों का समावेशीकरण और गरीबी हटाओ राजनीतिक नारे भर बन कर रह गए। मगर 1980 के दशक के बाद से, जिस सांप्रदायिक हिंसा ने भयावह रूप अख्तियार कर लिया, उसके कर्ताधर्ता इस पर कतई शर्मिंदगी महसूस नहीं करते थे। एक विशेष राजनीतिक दल ने मुस्लिम-विरोधी हिंसा की ज़िम्मेदारी राज्य तंत्र के बाहर के तत्वों से छीनकर स्वयं संभाल ली। उसने उसे तर्कसंगत बताना शुरू कर दिया। अब अध्येता जोर देकर कहते हैं कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि निम्न और मध्यम जातियों ने सफलतापूर्वक लोकतंत्र को अपने सशक्तिकरण का उपकरण बना लिया। ब्राह्मण-सवर्णों ने प्रत्यक्ष, खुल्लमखुल्ला और बेशर्म मुस्लिम-विरोधी राजनीति का वरण कर लिया। यह उनके उस स्वार्थपूर्ण और आपराधिक प्रयास का हिस्सा था, जिसका लक्ष्य उनका राज बनाए रखने और बहुजन लोकतंत्र की स्थापना की ओर की यात्रा को बाधित करना था।

मल्लिकार्जुन खरगे, राष्ट्रीय अध्यक्ष, कांग्रेस पार्टी और लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी व साथ में जयराम रमेश व के. सी. वेणुगोपाल गत 19 दिसंबर, 2024 को केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह द्वारा डॉ. आंबेडकर पर टिप्पणियों के विरोध में संसद परिसर में विरोध प्रदर्शन के बाद प्रेस कांफ्रेंस को संबोधित करते हुए

यह साफ़ है कि शासन के एक आधुनिक तरीके के प्रणाली के रूप लोकतंत्र में भी हिंसक राजनीति के उर्वर बीज छिपे रहते हैं। जब भी लोकतंत्र के समतावादी और मानवीय आयाम कमज़ोर पड़ते हैं या गाफिल हो जाते हैं, हिंसक और स्वार्थपूर्ण आयाम उस पर हावी हो जाते हैं। यह बात भारतीय लोकतंत्र के बारे में जितनी सही है, उतनी ही वह अमरीकी और यूरोपीय लोकतंत्रों के बारे में भी सही है। अमरीका और यूरोप में अति-दक्षिणपंथी राजनीति के उदय और इन कथित पुराने व परिपक्व लोकतंत्रों द्वारा की जा रही भू-राजनीतिक हिंसा से यह साबित होता है कि लोकतंत्र में भी हमें कुछ सावधानियां रखने की ज़रूरत है। भारत के मामले में, ब्राह्मण-सवर्ण शासक जातियों ने अत्यंत होशियारी, चालाकी और कुशलता से मियादी मगर नियंत्रित मुस्लिम-विरोधी हिंसा के ज़रिए, बहुजन लोकतंत्र के विस्तार और प्रगति को रोके रखा है। इस प्रयास में ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग को अशराफगीरी का मज़बूत समर्थन मिला है, क्योंकि अशराफ कुछ अलोकतांत्रिक सामाजिक, कानूनी, सांस्कृतिक और राजनीतिक आचरणों को जिंदा रखे हुए हैं। मगर दोनों ही पक्षों की यह रणनीति, जो अब तक सफल रही है, को जल्द ही कुछ कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ेगा।

पहली बात तो यह कि आरएसएस-भाजपा के ब्राह्मण-सवर्ण नियंताओं ने नियंत्रित मुस्लिम-विरोधी हिंसा के लिए जिन अलग-अलग रक्तपिपासु गिरोहों को खड़ा किया है, वे उनके नियंत्रण से बाहर जाते लग रहे हैं। यह आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि हर सत्ता को एक न एक दिन अपने ही बनाए रक्तपिपासु गिरोहों का सामना करना पड़ता है। एक समय ऐसा भी आता है जब रक्तपिपासु खून की गंध महसूस करते ही अनियंत्रित हो जाते हैं, विशेषकर तब जब पूर्व में उनकी रक्तपिपासा को बार-बार, लगातार सत्ताधारियों द्वारा बुझाया गया हो। हर बीतते दिन के साथ, ऐसा होने की संभावना बढ़ती जा रही है। दूसरे, कोई भी ताकत, चाहे वह कितनी ही हिंसक क्यों न हो, कभी भी पीड़ितों का अनंत काल तक दमन नहीं कर सकी है। मानवीय चेतना बर्बर से बर्बर ताकत के खिलाफ भी एक न एक दिन विद्रोह कर देती है। मुस्लिम-विरोधी हिंसा के मामले में वह दिन उतना दूर नहीं है जितना कि सत्ताधारी मानते हैं।

जिस दिन बहुजन समाज की प्रगति को थामे रखने के लिए बनाया गया नियंत्रित मुस्लिम-विरोधी हिंसा का बांध टूटेगा, इस दिन दुष्यंत दवे जैसे संवेदनशील ब्राह्मण अकेले विलाप नहीं करेंगे। पूरा ब्राह्मण-सवर्ण वर्ग – चाहे वह संवेदनशील हो या न हो – उनके साथ विलाप करेगा और उनके आंसू इस बांध में बाढ़ ला देंगे। अब समय आ गया है जब कि एक वर्ग के रूप में ब्राह्मण-सवर्ण, बहुजन लोकतंत्र में अपने लिए सम्मानजनक स्थान बनाने के बारे में सोचें और हिंसा की स्वार्थपूर्ण राजनीति का परित्याग करें। बहुजनों की सबसे अहम मांगों को अपनी मांगें बताकर और उनकी भाषा में बात कर, राहुल गांधी ठीक यही कर रहे हैं। उनकी जाति के लोगों को भी यही करना चाहिए और वह भी पहले से अधिक निष्ठा और ईमानदारी के साथ। सैयद-अशराफों को लोकतांत्रिक राजनीति का एक नया मॉडल विकसित करना चाहिए जो देश को पंगु करने वाले अशराफ मॉडल का स्थान ले। इसके साथ ही, सैयद-अशराफों को भी पसमांदा बहुजन चिंतकों, अध्येताओं और कार्यकर्ताओं की दिखाई राह पर चलना चाहिए। लोकतंत्र में कोई भी समूह, सत्ता की राजनीति की दशा और दिशा के प्रति उदासीन नहीं रह सकता।

लोकतंत्र के समतावादी और मानवीय आयामों के विस्तार को बाधित कर, अशराफ अनजाने में सही, मगर लोकतांत्रिक व्यवस्था में फासीवाद के उदय को सुगम बना रहे हैं। मगर वे सिर्फ आंसू ही नहीं बहाएंगे, बल्कि बहुत लोगों को जान भी गंवानी पड़ेगी!

(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अयाज़ अहमद

डॉ. अयाज़ अहमद कर्णावती विश्वविद्यालय, गांधीनगर, गुजरात में विधि शास्त्र के प्रोफेसर व कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयॉर्क, अमेरिका के दर्शन शास्त्र विभाग में फुलब्राइट विजिटिंग स्कॉलर हैं।

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