h n

ओशो रजनीश पर पुनर्विचार करें दलित-बहुजन

चूंकि ओशो रजनीश ने बुद्ध की अत्यधिक प्रशंसा और गांधी की अतिरंजित निंदा की है, इसलिए दलित-बहुजन समाज ओशो की व्याख्याओं के जाल में आसानी से फंसता जा रहा है। बता रहे हैं डॉ. संजय जोठे

“मैं सिर्फ़ अमीरों का गुरु हूं, ग़रीब आदमी आध्यात्मिक नहीं हो सकता”, “गौतम बुद्ध अध्यात्म के हिमालय हैं और भविष्य का धर्म बुद्ध का धर्म होगा”, “मेरे शरीर में गौतम बुद्ध ने प्रवेश किया, उनकी वजह से मेरे सिर में दर्द हो गया, मैंने उन्हें कहा कि अब आप आउट-डेटेड हो गये हो मेरे शरीर से बाहर जाइए”, “गांधी कोई महात्मा नहीं थे, वे एक चालाक बनिया थे”, “आंबेडकर को भी गांधी के ख़िलाफ़ उपवास पर बैठ जाना चाहिए था, आंबेडकर मोटे आदमी थे, गांधी उनके सामने ज्यादा दिन नहीं टिक पाते”, “हिंदुओं का कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत जाति व्यवस्था को बनाये रखने का हथियार है”– ये सारे वक्तव्य आचार्य रजनीश अर्थात् ओशो के हैं। 11 दिसंबर को उनकी जन्मतिथि आती है। जिन लोगों ने भी उन्हें पढ़ा और सुना है, वे ओशो के बारे में तटस्थ नहीं रह सकते, या तो उनका विरोध करना होगा या फिर उन्हें उनका समर्थन करना होगा। ये बात ख़ुद ओशो ने कही है।

अपने समय का स्वघोषित विद्रोही 

भारत में 1980-2000 के बीच होश संभालने वाले हर चिंतनशील व्यक्ति ने आचार्य रजनीश उर्फ़ ओशो को ज़रूर पढ़ा-सुना है। आज़ादी के पहले 1920-1950 के दशकों में ऐसा कोई न था, जिसने गांधी को ना पढ़ा या जाना हो। इसी दौर में सामाजिक राजनीतिक बदलाव की बात करने वालों ने कार्ल मार्क्स को भी ज़रूर जाना-पढ़ा है। ओशो के भक्त दावा करते हैं कि वे बुद्ध, महावीर, कृष्ण, मुहम्मद, जीसस इत्यादि की श्रेणी के रहस्यवादी और गुरु थे। उनका दावा है कि ओशो ने भारत का धार्मिक, आध्यात्मिक विमर्श बदल दिया है। वहीं ओशो के विरोधी उन्हें एक सेक्स गुरु, अराजकतावादी और अवसरवादी तक कहते हैं। उनपर आरोप लगते हैं कि उन्होंने ‘संभोग से समाधि’ जैसे विवादास्पद शीर्षक और आक्रामक मीडिया रणनीति का इस्तेमाल किया।

नेटफ़्लिक्स पर उनके बारे में ‘वाइल्ड-वाइल्ड कंट्री’ नाम से एक वेब सीरीज आई थी। इसमें बताया गया था कि उनकी और उनके आश्रम की सच्चाई क्या थी। ओशो के भक्त कहते हैं कि अमेरिका में सच्चे अर्थों में ‘कम्यून’ बन रहा था, इसलिए अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार ने ओशो को ज़हर देकर मार दिया। वहीं अमेरिकी सरकार का कहना था कि ओशो के आश्रम से निकट के शहर के ख़िलाफ़ जैविक आतंकवाद के प्रयोग चल रहे थे। ओशो आश्रम पर आरोप थे कि वहां अपने ही सन्यासियों की हत्या के षड्यंत्र चल रहे थे।

एक ओशो के भीतर कई आदमी

क्या ओशो रजनीश के बारे में कोई तार्किक बात हो सकती है? क्या हम उनके अपने कृत्यों के आधार पर ओशो का कोई मूल्यांकन कर सकते हैं? आजकल भारत पर फाइव स्टार बाबाओं, गुरुओं, प्रवचनकारों का प्रकोप-सा छाया हुआ है। हर शहर में कोई ना कोई बाबा अजीबो-ग़रीब किस्से कहानी सुनाकर लोगों को ठग रहा है। उनकी बातों में न कोई तर्क होता है, ना ही शैव, वैष्णव, यौगिक, तांत्रिक शास्त्रों की सच्चाई होती है। वे बस लच्छेदार भाषण देकर जनता को उलझाए रखते हैं। इसके अलावा ये सारे कथाकार बाबा इत्यादि अरबों खरबों की संपत्ति के मालिक होते हैं। इनके अपने जीवन में कोई शुचिता या नैतिकता नहीं होती। ये अपरिग्रह, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सादगी, त्याग आदि की बातें सिखाते हैं। लेकिन ख़ुद फाइव स्टार जीवन जीते हैं। दुखद यह कि भारत की ग़रीब और अनपढ़ जनता ये सब नहीं देख-समझ पाती और इनके जाल में फंसी रहती है। ऐसे कई बाबा और कथाकार लोग आजकल जेलों में हैं। इसी वजह से हमें आज ओशो रजनीश पर पुनर्विचार करना चाहिए।

ओशो रजनीश (11 दिसंबर, 1931 – 19 जनवरी,1990)

ओशो रजनीश ने अपनी ज़िंदगी में कई बार अपने नाम बदले। नाम बदलते ही उनका काम करने का ढंग, उनकी भाषा-शैली, उनका स्टैंड और जीवन शैली भी बदल जाती थी। उदाहरण के लिए 1965-70 के बीच वे धार्मिक पाखंडों और धर्म-गुरुओं के ख़िलाफ़ एक वामपंथी क्रांतिकारी की भाषा बोलते थे। तब उन्होंने अपना नाम आचार्य रजनीश और श्री रजनीश रखा। फिर 1970 के दशक की शुरुआत में वे ख़ुद ही नव-संन्यास आंदोलन की शुरुआत करके भगवान रजनीश बन जाते हैं। फिर 1980 की शुरुआत से 1985 तक वे भगवान और भगवान श्री रजनीश बने रहते हैं। फिर 1988-89 के बीच वे ओशो रजनीश और अंत में सिर्फ़ ओशो बन जाते हैं।

कई बार नाम बदलने का कारण

इस तरह नाम बदलने का एक ठोस कारण था। ख़ुद उन्होंने कई बार ये कहा है। उदाहरण के लिए 1965-68 के बीच में बहुत सारे विद्रोही और वामपंथी उनसे जुड़ गये, इन लोगों से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने धर्म, रहस्यवाद, साधना, मोक्ष और गांधी की तारीफ़ करना शुरू किया, वामपंथी भाग गए। फिर 1968-72 के बीच में गांधीवादी उनसे जुड़ने लगे, तब उन्होंने गांधी के ख़िलाफ़ बोलना शुरू किया और गांधीवादी भाग गए। इसी तरह वे क्रमशः हिंदू धर्म, जैन धर्म, योग, तंत्र, सूफ़ी, क़बाला, ईसाई धर्म, कम्युनिज्म, सोशियलिज़्म इत्यादि जैसे नए-नए विषयों पर बोलकर पुराने लोगों से पिंड छुड़ाते रहे और नए-नए लोगों को आकर्षित करते रहे। ये स्वयं उनके शब्द हैं।

ओशो दूसरे तरीक़ों से भी नए लोगों को आकर्षित करते थे और खूब पैसा भी इकट्ठा करते थे। उदाहरण के लिए अस्सी के दशक के अंत में उन्होंने कुछ लोगों के बुद्धत्व की घोषणा की, फिर उन लोगों ने ओशो को बड़ा भारी चंदा दिया। ओशो की बहुत करीबी शिष्या शीला कहतीं हैं कि अमेरिका में जब भी उन्हें धन की ज़रूरत होती थी तब वे अपने धनवान सन्यासियों में से कुछ को ‘इनलाइटेंड’ घोषित कर देते थे। वे आश्रम के बाहर ही नहीं, भीतर के लोगों को भी इसी तरह इस्तेमाल करते थे। ओशो ने अपने दौर के सबसे प्रतिभाशाली लोगों को आकर्षित करने के लिए उन्होंने फाइव स्टार गुरु की छवि गढ़ी थी। इसीलिए वे 99 रॉल्स रॉयस कारों का ज़ख़ीरा, फाइव स्टार आश्रम, प्राइवेट जेट, अपना हवाई अड्डा इत्यादि चाहते थे।

ओशो रजनीश पर पुनर्विचार क्यों?

आज हमें रजनीश पर पुनर्विचार की क्या ज़रूरत है? इसके तीन बड़े कारण हैं। पहला, आज भारत में धर्म और धार्मिकता सहित संस्कृति और अध्यात्म के नाम पर बहुत बड़ी ठगी चल रही है, इसमें भारत के ग़रीब किसान, मज़दूर और ग्रामीण वर्गों को ठगा जा रहा है। दूसरा कारण, आज पूरी दुनिया में और ख़ासकर भारत के ग़रीब लोगों में गौतम बुद्ध को लेकर जो नई प्यास जगी है, उस प्यास को ‘ईश्वर-आत्मा-पुनर्जन्म’ की ज़हरीली त्रिमूर्ति के ज़रिए नष्ट करने की कोशिशें बहुत तेज हो गई है। और इसकी शुरुआत थियोसॉफ़िकल सोसाइटी ने की थी और स्वयं ओशो रजनीश ने इस काम को आगे बढ़ाया था। रजनीश ने जिस तरह से बुद्ध की व्याख्या की है उसमें बुद्ध के मुंह से सनातन आत्मा और पुनर्जन्म सहित ईश्वर की भी प्रशंसा करवाई गई है। तीसरा कारण चूंकि ओशो रजनीश ने बुद्ध की अत्यधिक प्रशंसा और गांधी की अतिरंजित निंदा की है, इसलिए दलित-बहुजन समाज ओशो की व्याख्याओं के जाल में आसानी से फंसता जा रहा है। इसी वजह से पूरे भारत में एक ख़ास क़िस्म का धार्मिक ध्रुवीकरण और सांप्रदायिकता का ज़हर फैल रहा है। मेरी नज़र में ये तीन कारण भारत के ग़रीब लोगों की तरक़्क़ी की संभावना सहित भारत के लोकतंत्र के लिए बड़े ख़तरे लेकर आते हैं। इसीलिए ओशो के ईमानदार मूल्यांकन की ज़रूरत है।

ओशो रजनीश की अपनी समझ और शैली

ओशो ने बहुत बचपन से ही कहानी सुनाने और लोगों के मनोविज्ञान का इस्तेमाल करने की तकनीक सीख ली थी। उनकी आत्मकथा ‘ग्लिंप्सेज ऑफ़ गोल्डन चाइल्डहुड’ में वे बताते हैं कि उन्होंने लोगों के व्यवहार का सूक्ष्म अध्ययन करके उन्हें फुसलाना, नाराज़ करना, खुश करना इत्यादि सीख लिया था। वे इसके ज़रिए कई फ़ायदे भी उठाते थे, और कई लोगों की मदद भी करते थे। उन्होंने आरंभ में ही बहुत लच्छेदार और लुभावनी भाषा में लोगों से बात करना सीख लिया था। वे बहुत अच्छे पढ़ाकू थे, बहुत जल्दी और स्पष्टता से कई किताबें पढ़कर अपनी क़िस्सागोई की शैली में उसका इस्तेमाल करने लगते थे। इसीलिए वे अपने आसपास के लोगों पर एक बौद्धिक धाक जमा लेते थे। युवा अवस्था में उन्होंने इस कला का खूब फ़ायदा उठाया। वे ख़ुद बताते हैं कि एक बार डॉ. मानवेंद्रनाथ रॉय से उनकी बात हुई। डॉ. रॉय भारत में 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापकों में एक थे। हालांकि रॉय भारत में कुछ ख़ास सफलता नहीं हासिल कर सके। तब उन्होंने डॉ. रॉय की असफलता देखकर कहा कि भारत में कुछ भी करना हो तो एक पवित्र पुरुष की, एक गुरु या बाबा की छवि बनानी पड़ती है। उन्होंने गांधी का उदाहरण दिया और बताया कि गांधी एक फ़क़ीर और संन्यासी की तरह काम करते रहे, इसलिए सफल हुए। डॉ. रॉय ने उनकी बात सुनी या नहीं, लेकिन ख़ुद ओशो ने बीस सालों तक इस तकनीक का इस्तेमाल किया। शुरू में बहुत सादी वेशभूषा – सफ़ेद चादर और धोती – पहने रहे। एक पारंपरिक संन्यासी जैसा जीवन जिया। फिर जैसे-जैसे लोग जुड़ते गए और धन आने लगा, उन्होंने नई तकनीकों का उपयोग भी किया।

कुछ समय बाद वे बहुत ज़्यादा वैभवपूर्ण और महंगे कपड़े पहनने लगते हैं। ये सब वे विदेशी लोगों को आकर्षित करने के लिए करते हैं। उस जमाने में दो विश्व युद्धों के बाद थियोसॉफ़िकल सोसाइटी ने गौतम बुद्ध के पुनर्जन्म का माहौल बना दिया था। शीतयुद्ध के दौर में अमेरिका-यूरोप में हिप्पी आंदोलन चल रहा था। हिप्पी युवा अमीरी और सुख-भोग से तंग आकर एशिया के धर्मों का स्वाद चखना चाहते थे। उनके पास बहुत पैसा था। इन लोगों को आकर्षित करने के लिए ओशो ने बौद्ध धर्म से ध्यान और समाधि, विलियम रीच के ह्यूमन पोटेंशियल मूवमेंट से कांशियस कैथार्सिस, साईकोथेरेपी, फ़्रायडीयन मनोविज्ञान आदि लेकर उसमें रशियन गुरु ‘गुर्जियेफ़’ के ‘गुर्जियेफ़ मूवमेंट्स’ और भारत के वज्रयान बौद्ध तंत्र को मिलकर एक नया फार्मूला तैयार किया। ये प्रयोग बहुत सफल रहे। इसी की सफलता ने उन्हें पूरी दुनिया में पहुंचा दिया। फिर जब वे बहुत सफल और ताकतवर हो गए तो उनके अपने आश्रम में शिष्यों के बीच समस्या आने लगी।

नैतिकता और स्वस्थ उदाहरण का अभाव

ओशो की बातें कितनी भी सफल रही हों, उनके शिष्यों और आश्रम प्रबंधकों को पता था कि ये सब रणनीतिक तकनीकें हैं। वे अपना नाम, शैली, भाषा, पहनावा इत्यादि बहुत सोच-समझकर बदलते थे। वे भारत की सेक्स की भूखी जनता सहित यूरोप की सेक्स से ऊब गई युवा पीढ़ी को ‘संभोग से समाधि’ जैसे टाइटल के माध्यम से एकसाथ पकड़ लेते थे। उनकी आक्रामक मीडिया स्ट्रेटेजी धीरे-धीरे उनपर भारी पड़ने लगी। उनके बीमार और कमजोर होने के साथ ही उनके शिष्यों में भारी विवाद और लड़ाई-झगड़े होने लगे। आश्रम की संपत्ति और कॉपीराइट के झगड़े तो आज भी जारी हैं।

आप बुद्ध, महावीर और जीसस के जीवन को देखिए। वे हमेशा अपने जीवन में सर्वोच्च नैतिक आचरण करके दिखाते हैं। वे कभी अपने शब्दों से या आचरण से किसी को लुभाने या लूटने की कोशिश नहीं करते हैं। बुद्ध ने तो राज महल को लात मार दी। बुद्ध और महावीर दोनों एक भिक्षु का जीवन जीते हुए सामान्य बीमारियों से आम आदमी की तरह मरे। जीसस क्राइस्ट ने संकट के समय अपने शिष्यों को अकेला नहीं छोड़ा। उन्हें भागने के लिए कहा गया, वे नहीं भागे और गिरफ़्तार होकर सूली पर चढ़ गये। इसी तरह कबीर, नानक, गुरु अर्जुनदेव और रैदास का जीवन है, उन्होंने सर्वोच्च नैतिक आचरण का प्रदर्शन किया। इसी कारण बुद्ध, महावीर, जीसस, कबीर और नानक के बाद करुणावान और नैतिक शिष्यों की फ़ौज खड़ी हुई। उन्हीं लोगों ने उनके मूवमेंट को आगे बढ़ाया।

आज ओशो का मूवमेंट कहां है?

आज ओशो का आंदोलन लगभग ख़त्म हो चुका है। ओशो के अपने आचरण में नैतिकता और शुचिता सहित सहज मानवीय करुणा का अभाव था। इसीलिए उनके शिष्यों में नैतिकता तो छोड़िए एक सामान्य सामाजिक शिष्टाचार तक पैदा नहीं हो सका। वे भारत के ग़रीब किसान, मज़दूर और ग्रामीणों को मूर्ख, अधार्मिक, कुंठित आदि कहते रहे और उनसे कभी जुड़ ही नहीं पाए। उन्होंने भारत के ग़रीबों की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक समस्याओं के मद्देनज़र व्यक्तिगत और सामाजिक नैतिकता को ऊपर उठाने का कोई प्रयास नहीं किया। इसी कारण ओशो और ओशो के शिष्यों में ना कोई बड़ी नैतिकता जन्मी और ना ही बड़ी प्रतिभा जन्मी। जब गुरु का ही आचरण विचित्र था तो शिष्यों में अच्छी प्रेरणा भला कहां से आएगी?

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

संजय श्रमण जोठे

डॉ. संजय श्रमण जोठे एक लेखक, अनुवादक और शोधकर्ता हैं। ब्रिटेन की ससेक्स यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीस से अंतरराष्ट्रीय विकास में एमए हैं और मुंबई के टीआईएसएस से पीएचडी हैं। इसके अलावा सामाजिक विकास के मुद्दों पर पिछले 20 वर्षों से विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत रहे हैं। जोतीराव फुले और रामसामी पेरियार पर इनकी किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं। वर्तमान में जर्मनी के एर्फ़र्ट विश्वविद्यालय में रिसर्चर हैं। साथ ही, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं व वेब-पोर्टलों के लिए लेखन में सक्रिय हैं।

संबंधित आलेख

दिल्ली विधानसभा चुनाव : बसपा के पास न जीतने की रणनीति और न नीयत
बसपा की आदत अपने उम्मीदवारों को टिकट देकर भूल जाने की है। उम्मीदवारों को अपने दम पर चुनाव लड़ना पड़ता है। पार्टी न तो...
जब आरएसएस के सवाल पर लोहिया से भिड़ गए थे मधु लिमये
मधु लिमये बहुत हद तक डॉ. आंबेडकर से प्रेरित दिखते हैं। जाति प्रथा के ख़ात्मे तथा आरक्षण, जिसे वह सामाजिक न्याय के सिद्धांत का...
आंबेडकरवादी राजनीति : फैशन या लोकतांत्रिकरण?
सच तो यह है कि आंबेडकर का नाम बार-बार लेना (अमित शाह के शब्दों में फैशन) राजनीतिक संस्कृति के लोकतांत्रिकरण का एक प्रमाण है।...
दिल्ली विधानसभा चुनाव : सांप्रदायिकता का खेल तेज
दिल्ली में ज्यादातर गरीब मुसलमानों और दलितों की ऐसी बस्तियां हैं, जहां पानी, सड़क और सफाई जैसी बुनियादी समस्याएं हैं। लेकिन राजनीतिक दल इन...
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : दलित, ओबीसी और मुसलमानों के लिए तमिलनाडु मॉडल ही एकमात्र विकल्प (अंतिम भाग)
ओबीसी, दलित और मुसलमानों को सुरक्षा और स्वाभिमान की राजनीति चाहिए जो कि मराठा-ब्राह्मण जातियों की पार्टियों द्वारा संभव ही नहीं है, क्योंकि सत्ता...