h n

बहुत याद आएंगे मानववाद के लिए प्रतिबद्ध रामाधार जी, जिन्होंने ‘सच्ची रामायण’ को समूर्त किया

रामाधार जी किसी संगठन वगैरह से नहीं जुड़े थे। वे बस शिक्षक थे और अध्यापन ही करते थे। यहां तक कि वे किसी कार्यक्रम वगैरह में भी नहीं जाते थे। उन्हें किसी पद-प्रतिष्ठा की लालसा नहीं थी। वे जब तक सक्रिय रहे उनकी लेखनी मानववाद के पक्ष में चलती रही। स्मरण

कल 24 मार्च, 2025 को रामाधार जी के निधन की दुखद जानकारी मिली। वे उम्र में मुझसे करीब छह-सात साल बड़े होंगे। वे मेरे पड़ोस के एक गांव दलेलपुर [कानपुर देहात, उत्तर प्रदेश] के निवासी थे। उनसे ऐसे तो अनेक बार मुलाकातें हुईं, लेकिन तीन-चार मुलाकातें बेहद खास रहीं। रामाधार जी एक प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे और महामना रामस्वरूप वर्मा जी के विचारों से बहुत प्रभावित थे। एक बार की बात है कि जिस विद्यालय में वह शिक्षक थे, वहां सुबह-सुबह बच्चों से एक प्रार्थना करवाई जाती थी, जिसमें मिथकीय चरित्र होते थे और प्रार्थना के अंत में जिस जाति, वंश में जन्म लिया, उसके लिए सर्वस्व अर्पित करने की बात थी। रामाधार जी ने इसका विरोध किया।

उनका एक तर्क तो यह था कि इस प्रार्थना में जाति और वर्ण व्यवस्था को बनाए रखने की जो बात है, वह गलत है। जाति और वर्ण के खात्मे से ही समाज में समानता आएगी और समाज मानववादी बनेगा। उनका दूसरा तर्क था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है, जहां कई धर्म हैं। यदि स्कूल में एक धर्म से संबंधित प्रार्थना करवाया जाता है तो यह संविधान के प्रतिकूल है। यदि प्रार्थना होनी ही है तो सभी धर्मों से जुड़ी प्रार्थनाएं हों, लेकिन इसमें समय बहुत लग जाएगा। स्कूल पढ़ने-पढ़ाने के लिए होते हैं न कि प्रार्थनाओं के लिए।

रामाधार जी का यह तर्क तब राज्य सरकार और शिक्षा विभाग के अधिकारियों के गले नहीं उतरा। उन्हें सस्पेंड कर दिया गया। मुझे याद है कि उसी दौरान जब रामस्वरूप वर्मा जी पुखरायां आए थे, तब मैं और कुछ अन्य लोग स्टेशन पर उनका इंतजार कर रहे थे। उसी समय रामाधार जी भी आए थे। उन्होंने रामस्वरूप वर्मा जी से कहा कि साहब, मानववाद की राह पर चलना बहुत कठिन है। इस पर वर्मा जी ने उनसे विस्तार में पूछा तो रामाधार जी ने अपनी आपबीती बता दी कि कैसे प्रार्थना नहीं कराने पर उन्हें सस्पेंड कर दिया है। तब वर्मा जी ने उनकी सहायता की। जिला अधिकारी से लेकर शिक्षा विभाग के अधिकारियों तक को पत्र लिखकर कहा कि रामाधार जी न तो असंवैधानिक बात कह रहे हैं और न ही अवैज्ञानिक।

स्मृति शेष – अपने परिजनों के साथ जन्मदिन मनाते रामाधार जी

लंबे समय तक रामाधार जी सस्पेंड बने रहे। बाद में वर्मा जी के हस्तक्षेप के कारण उनका निलंबन वापस लिया गया। लेकिन वे जहां भी जिस स्कूल में रहे, उन्होंने धार्मिक प्रार्थनाओं को नहीं होने दिया। मानववाद की स्थापना और पाखंडवाद के उन्मूलन के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ही थी।

रामाधार जी बहुत तेज बुद्धि के थे। अंग्रेजी के भी अच्छे ज्ञाता थे। एक बार उन्होंने पेरियार की किताब ‘रामायणा : अ ट्रू रीडिंग’ का हिंदी अनुवाद कर दिया। उसका नाम रखा– ‘सच्ची रामायण’। तो हुआ यह कि इस बात की खबर पेरियार ललई सिंह यादव को मिली। वे रामाधार जी से मिलने उनके घर गए और कहा कि वे ‘सच्ची रामायण’ को प्रकाशित करना चाहते हैं। रामाधार जी को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी। उनकी सहमति के उपरांत जब यह किताब प्रकाशित हुई तब राज्य सरकार भड़क गई। उसने किताब को जब्त कर लिया। इसकी लड़ाई पेरियार ललई सिंह यादव ने लड़ी। पहले हाई कोर्ट में उन्हें जीत मिली और बाद में जब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी तब वहां से भी उन्हें जीत मिली। इस प्रकार ‘सच्ची रामायण’ लोगों के बीच पहुंची।

रामाधार जी किसी संगठन वगैरह से नहीं जुड़े थे। वे बस शिक्षक थे और अध्यापन ही करते थे। यहां तक कि वे किसी कार्यक्रम वगैरह में भी नहीं जाते थे। उन्हें किसी पद-प्रतिष्ठा की लालसा नहीं थी। वे जब तक सक्रिय रहे उनकी लेखनी मानववाद के पक्ष में चलती रही। आज जब वे इस फानी दुनिया में नहीं हैं तो उनकी बहादुरी और मानववाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता हमें प्रेरित कर रही है।

(दूरभाष पर नवल किशोर कुमार से बातचीत के आधार पर)  

(संपादन : राजन/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

रामचंद्र कटियार

लेखक रामस्वरूप वर्मा और जगदेव प्रसाद द्वारा गठित शोषित समाज दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं

संबंधित आलेख

रोज केरकेट्टा, एक विद्वान लेखिका और मानवाधिकार की उद्भट सिपाही
रोज दी जितनी बड़ी लेखिका थीं और उतनी ही बड़ी मानवाधिकार के लिए लड़ने वाली नेत्री भी थीं। वह बेहद सरल और मृदभाषी महिला...
जोतीराव फुले और हमारा समय
असहिष्णुता और प्रतिगामी सोच के इस दौर में फुले को पढ़ना और समझना मुश्किल ही नहीं, बल्कि असंभव हो सकता है। हाल में ‘फुले’...
सामाजिक न्याय का पेरियारवादी मॉडल ही समयानुकूल
आमजनों को दोष देने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि उनके दलित-ओबीसी नेताओं ने फुले-आंबेडकरवाद को ब्राह्मणों और मराठों के यहां गिरवी रख दिया...
एक नहीं, हजारों डॉ. रोज केरकेट्टा की आवश्यकता
डॉ. रोज केरकेट्टा के भीतर सवर्ण समाज के ज़्यादातर प्रोफेसरों की तरह ‘सभ्य बनाने’ या ‘सुधारने’ की मानसिकता नहीं थी। वे केवल एक शिक्षिका...
महाबोधि विहार मुक्ति आंदोलन : सिर्फ फेसबुक पर ही मत लिखिए, आंदोलन में शामिल भी होइए
इस आंदोलन का एक यह भी दुखद पहलू है कि जिस बिहार की धरती पर ब्राह्मणवादियों का आजादी के सात-आठ दशक बाद भी अभी...