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‘असम के हर क्षेत्र में दिखता है ऊंची जातियों का वर्चस्व’  

असम के पुराने राष्ट्रवादी नेताओं ने प्रवासियों को असमिया भाषा अपनाने के लिए प्रेरित किया। संस्कृत के साथ असमिया के पुरातन जुड़ाव ने भी असमिया बोलने वालों में श्रेष्ठता भाव उत्पन्न किया। वे गैर-आर्य मूलनिवासियों को अपने से अलग, निम्न व आदिम मानने लगे, बता रहे हैं उत्तम बथारी 

{असम में इस समय विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। ईमेल के जरिये फारवर्ड प्रेस के साथ साक्षात्कार में उत्तम बथारी राज्य के जटिल ज़मीनी यथार्थ का विवरण देते हुए बता रहे हैं कि वहां के मूल रहवासियों के साथ अतीत में किस तरह के अन्याय हुए और वहां की सरकारों कैसे उन्हें नज़रंदाज़ करती रहीं हैं। बथारी दिमासा जनजाति से हैं और गुवाहाटी विश्वविद्यालय में मध्यकालीन और आधुनिक असम का इतिहास पढ़ाते हैं।} 

सामाजिक और नस्लीय दृष्टि से देश के सबसे विविधवर्णी राज्यों में असम शामिल है। क्या इस तथ्य का अहसास आपको तब होता है जब आप अपने विश्वविद्यालय के कैंपस या गुवाहाटी के किसी सरकारी दफ्तर में होते हैं? क्या आपको लगता है कि असम की राजनीति इस विविधता को प्रतिबिंबित करती है? क्या यह विविधता नागरिक विमर्श में झलकती है? 

भारत में विविधता केवल शाब्दिक जुगाली का विषय है। इसके अनुरूप आचरण नहीं होता। जैसे, देश में इतनी भाषाई विविधता होते हुए भी बार-बार हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित करने की बात कही जाती है। भेदभाव का एक और उदहारण है संविधान की आठवीं अनुसूची, जो केवल कुछ दर्जन भाषाओं को मान्यता देती है। दूसरी ओर सैकड़ों भाषाएं दम तोड़ने की कगार पर हैं, क्योंकि उन्हें प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है …  

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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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