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बिहार में दलितों के साथ हकमारी

बिहार सरकार अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत आवंटित धनराशि का उपयोग सड़कों, पुल-पुलिया, सरकारी भवनों और अन्य बड़े बुनियादी ढांचा आदि के लिए कर रही है। इन परियाेजनाओं से इन समुदायों को कोई सीधा लाभ नहीं मिलता। दूसरी ओर जब छात्रवृत्ति या समुदाय-विशेष के कल्याण योजनाओं की बात आती है, तो सरकार फंड की कमी का हवाला देती है। बता रहे हैं कुमार दिव्यम

गत 19 मार्च, 2025 को बिहार विधानसभा में भाकपा (माले) विधायक दल के उपनेता सत्यदेव राम सहित आठ विधायकों ने आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक की तर्ज पर बिहार में एससी-एसटी उपयोजना के सही क्रियान्वयन और निगरानी के लिए कानून बनाने की मांग की। यह मुद्दा ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के तहत उठाया भी गया, लेकिन राज्य सरकार ने इस बारे में कोई उत्तर नहीं दिया।

यह स्थिति तब है जब बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं। और यह कि राज्य सरकार ने एक के बाद एक अनेक आयोगों का गठन कर दिया है। हालांकि महिला आयोग, सवर्ण आयोग और अनुसूचित जाति आयोग के पुनर्गठनों से राजनीतिक हलकों में हलचल भी मची। महिला आयोग की अध्यक्ष के रूप में जदयू नेता अप्सरा मिश्रा को और सवर्ण आयोग के अध्यक्ष के रूप में भाजपा नेता व भूमिहार समुदाय से आने वाले महाचंद्र प्रसाद सिंह को तथा अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष के रूप में चिराग पासवान के रिश्तेदार मृणाल पासवान को नियुक्त किया गया। सियासी हलके में यह कहा गया कि आयोगों के अध्यक्षों व अन्य सदस्यों के रूप में ‘रिश्तेदारों’ को सेट कर उन्हें आर्थिक लाभ पहुंचाने की कोशिश की जा रही है।

खैर, नीतीश कुमार, जो खुद को सामाजिक न्याय और दलित उत्थान का पक्षधर बताते हैं, उनके 20 वर्षों के शासन में अब तक बिहार में अनुसूचित जाति (एससी) और अनुसूचित जनजाति (एसटी) उपयोजना के लिए कोई कानून नहीं बना है। यह सवाल भाजपा-जदयू गठबंधन की ‘विकास गाथा’ पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगाता है। वहीं खुद को दलित नेता कहने वाले चिराग पासवान और जीतनराम मांझी भी सत्ता में हिस्सेदारी पाकर दलितों की इतनी बड़ी हकमारी पर चुप्पी साधे हुए हैं।

दरअसल, 1974-75 की पांचवीं पंचवर्षीय योजना में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जगजीवन राम के प्रयास से अनुसूचित जनजाति उपयोजना की शुरुआत हुई। इसके बाद 1979-80 की छठी पंचवर्षीय योजना में अनुसूचित जाति उपयोजना लागू की गई। इनका मुख्य उद्देश्य एससी और एसटी की जनसंख्या के अनुपात में उनके कल्याण हेतु बजट में विशेष प्रावधान करना और प्रावधानित राशि का सीधा उपयोग इन वर्गों के सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक विकास से जुड़ी योजनाओं के लिए करना था।

देशभर के राज्यों, जिनमें बिहार भी शामिल है, को यह सुनिश्चित करने के निर्देश हैं कि अनुसूचित जनजाति उपयोजना, अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत आवंटित राशि का उपयोग केवल उन परियोजनाओं पर खर्च हो जिनसे इन समुदायों को प्रत्यक्ष लाभ मिले। इसके लिए योजना आयोग (वर्तमान में नीति आयोग) ने इन राशियों के लेखा-जोखा को लघु शीर्ष कोड 789 (एससी) और 796 (एसटी) के तहत रखने का प्रावधान किया, ताकि आवंटित राशियों के दुरुपयोग को रोका जा सके।

सियासत : डॉ. आंबेडकर की जयंती के मौके पर आयोजित एक कार्यक्रम में बाबा साहब की तस्वीर के सामने सिर नवाते मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

लेकिन बिहार सरकार अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति उपयोजना के तहत आवंटित धनराशि का उपयोग सड़कों, पुल-पुलिया, सरकारी भवनों और अन्य बड़े बुनियादी ढांचा आदि के लिए कर रही है। इन परियाेजनाओं से इन समुदायों को कोई सीधा लाभ नहीं मिलता। दूसरी ओर जब छात्रवृत्ति या समुदाय-विशेष के कल्याण योजनाओं की बात आती है, तो सरकार फंड की कमी का हवाला देती है।

सीएजी, बिहार ने अपनी रिपोर्ट 2021-22 में बिहार सरकार पर एससी-एसटी उपयोजना की राशि को डायवर्ट करने की बात की। रिपोर्ट में कहा गया कि जिस धनराशि का उपयोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण व विकास हेतु किया जाना था, उस धनराशि में से 4,518 करोड़ रुपए की राशि सड़कों के निर्माण के मद में खर्च कर दी गई। इसी तरह एससी-एसटी उपयोजना की राशि के 1191 करोड़ रुपए से सरकारी कार्यालयों का निर्माण कराया गया। करीब 1,526 करोड़ रुपए की राशि का उपयोग बांधों के रखरखाव में किया गया। एससी-एसटी उपयोजना के तहत आवंटित धनराशि में से 2,537 करोड़ रुपए सिंचाई परियोजनाओं पर और बिजली कंपनियों के अनुदान के लिए 4,518 करोड़ रुपए खर्च किए है।

गत 17 मई, 2025 को इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार 2021-22 में 16,777 करोड़ रुपए के बजटीय प्रावधान में से 10,799 करोड़ रुपए, 2022-23 में 19,688 करोड़ रुपए में से 18,450 करोड़ रुपए डायवर्ट किए गए। इसके बाद 2023-24 में 16,939 करोड़ रुपए में से 11,796 करोड़ रूपए सामान्य योजनाओं और बड़े बुनियादी ढांचों के निर्माण में खर्च किए गए।

एससी-एसटी उपयोजना की राशि की बंदरबांट का आलम तब है जब बिहार के जाति-आधारित आर्थिक-सामाजिक सर्वेक्षण के मुताबिक अनुसूचित जाति की केवल 12.31 प्रतिशत आबादी की मासिक आय 20,000 या अधिक है, 42.93 प्रतिशत अनुसूचित जाति के सदस्य रोज़ 200 रुपए या उससे कम में गुज़ारा करते हैं। अनुसूचित जनजाति के 57.32 प्रतिशत और अनुसूचित जाति के 52.05 प्रतिशत लोगों के पास पक्का मकान नहीं है।

इसके बावजूद, प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण) के पोर्टल के अनुसार, 2018-19 से 2020-21 के बीच बिहार में एससी-एसटी उपयोजना से करीब 3,000 करोड़ रुपए खर्च हुए।

ऊर्जा विभाग को हर साल एससी-एसटी उपयोजना के तहत हज़ारों करोड़ रुपए दिए जाते हैं। लेकिन बिजली कंपनियों ने लिखित रूप में स्वीकार किया है कि वे एससी या एसटी समुदाय के लिए कोई विशेष योजना नहीं चलातीं। इसका मतलब, यह पैसा भी अन्य सामान्य परियोजनाओं में इस्तेमाल हो रहा है। दलितों को मिलने वाले केंद्र-प्रायोजित पोस्ट मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना के लिए भी राज्य सरकार के पास पैसा नहीं है और यह बात सरकार द्वारा कोर्ट में एफिडेविट देकर कही गई है।

जाहिर तौर पर जब इतने बड़े पैमाने पर बिहार में दलित आबादी विकास से वंचित है और उनकी वंचना के किस्से बिहार सरकार के ही आंकड़े कह रहे हैं। तब भी सरकार द्वारा एससी-एसटी उपयोजना के लिए कानून नहीं बनाना और उनके पैसों को ऐसी योजनाओं में खर्च कर देना, सरकार को दलित विरोधी साबित करता है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

कुमार दिव्यम

लेखक पटना विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में स्नातकोत्तर छात्र व स्वतंत्र लेखक हैं

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