दशहरे का त्योहर आ गया है और साथ ही शक्ति यानि दुर्गा की उपासना के लिए भारत का एक बड़ा हिस्सा उमड़ पड़ा है। दुर्गा की उपासना के साथ असुरों की हार की एक जादुई कहानी है, जो हम बचपन से देखते-सुनते आ रहे हैं। दुर्गा अपने स्तुत्य रूप में महिषासुर मर्दिनी हैं —महिषासुर को पराजित करने वाली देवी।
असुरों के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। युवा लेखक रणेन्द्र ने इसे लेकर एक उपन्यास लिखा है ग्लोबल गाँव के देवता । यह उपन्यास हमें- थोड़ी सी जानकारी देता है। सबसे बढ़कर असुरों के इतिहास पर सोचने के लिए हमें उत्साहित करता है। यह जानकर आपको आश्चर्य होगा कि देवासुर संग्राम से लेकर महिषासुर मर्दन तक में वर्णित असुर आज भी दस हजार से कुछ कम की संख्या में जनजाति के रूप में झारखंड राज्य में रहते हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने धातुओं की खोज की थी और आज भी पारंपरिक रूप से लोहा बनाते हैं। जैसा कि इतिहास ने गैर-आर्यों अथवा आर्येतर जातियों के बारे में हमें जानकारी दी है, ये अनासा और ताम्र वर्णी नहीं, बल्कि ज्यादातर गोरे रंग और लंबी काया के होते है। संभवतः ये वे लोग हैं जिन्होंने मुहन-जो-दड़ों और हड़प्पा की सभ्यता की नींव रखी थी और आर्यों से लड़ते हुए लगातार पीछे हटते गए। इनका अपराध बस इतना था कि इन्होंने आर्यों के समक्ष समर्पण से इनकार कर दिया। इनका प्रतिरोध लगातार बना रहा। हालांकि असुरों ने इसकी बड़ी कीमत चुकाई।
महाभारत कथा की देवयानी असुर कन्या थी — असुरों के पुरोहित शुक्राचार्य की पुत्री — जिसने ययाति से विवाह किया था। ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा भी असुरों के राजा वृषपर्व की बेटी थी। और इस तरह तमाम कुरुवंशी और यदुवंशी इन असुर माताओं की संतानें हैं। इनके सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन होना अभी शेष है, लेकिन 19वीं सदी के सामाजिक क्रांतिकारी महात्मा जोतिबा फुले ने अपनी पुस्तक गुलामगिरी में असुरों की विस्तार से चर्चा की है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब लोग प्राक् इतिहास काल अथवा पौराणिक विवादों के चुनौतीपूर्ण तथ्यों का उद्भेद्न् कर सकेंगे और नए अर्थ ढूंढ पाएँगे। हमें यह स्वीकार होगा कि इतिहास और पौराणिकता पर वर्चस्व प्राप्त और वंचित तबके की एक ही व्याख्य नहीं होती। उपन्यास ग्लोबल गाँव के देवता का एक पात्र रुमझुम असुर एक जगह कहता है, ‘हम वैदिक काल के सप्तसिन्धु इलाके से लगातार पीछे हटते हुए आजमगढ़, शाहाबाद, आरा, गया, राजगीर होते हुए इस वन प्रांतर, कीकट, पौणिड्रक, कोकराह या चुटिया नागपुर पहुंचे। हजारो साल में कितने इंद्रों, कितने पांडवों, कितने सिंगबोगा ने कितनी-कितनी बार हमारा विनाश किया, कितने गढ़ ध्वस्त किये, उसकी कोई गणना किसी इतिहास में दर्ज नहीं है। केवल लोक कथाओं और मिथकों में हम जिन्दा हैं।
रुमझुम कहता है, ‘हमारे पूर्वजों ने जंगलों की रक्षा करने की ठानी तो उन्हें राक्षस कहा गया। खेती के फैलाव के लिए जंगलों के काटने-जलाने का विरोध किया तो दैत्य कहलाये। उन पर आक्रमण हुए और उन्हें लगातार खदेड़ा गया … लेकिन 20वीं सदी की हार हमारी असुर जाति की अपने पूरे इतिहास में सबसे बड़ी हार थी। इस बार कथा- कहानी वाले सिंगबोगा ने नहीं, टाटा जैसी कंपनियों ने हमारा नाश किया। उनकी फैटरियों में बना लोहा, कुदाल, खुरपी, गैन्ता, खंती, सुदूर हाटों तक पहुंच गए। हमारे गलाये लोहे के औजारों की पूछ कम हो गई। लोहा गलाने का हजारों साल का हमारा हुनर धीरे-धीरे खत्म हो गया।… हमारी बेटियाँ और हमारी भूमि हमारे हाथों से निकलती जा रही हैं। हम यहाँ से कहाँ जाऐंगे? यह हमारी समझ में नहीं आ रहा।’ और इसी रुमझुम असुर के पूर्वज महिष-असुर के मर्दन का उत्सव मनाने का यह दशहरा है। जगह-जगह स्थापित पूजा पंडालों में मूर्तियाँ है। असुर राजा की भैंस पर दुर्गा का सिंह प्रभावी है। दुर्गा के गले में मुंडमाल है। मुझे बार-बार प्रतीत होता है कि दुर्गा स्वयं असुर कुल से थीं और आर्यों ने इनका इस्तेमाल किया। सप्तसिन्धु प्रदेश की उस आरंभिक लड़ाई में जब आर्य और दास अथवा दस्यु लड़े थे तब निर्णायक लड़ाई वृत्र और इन्द्र के बीच था। दिवोदास नाम का एक दास इन्द्र से जा मिला था और नतीजन वृत्र की हार हुई थी। दुर्गा की कहानी भी इससे कुछ मिलती-जुलती है। शत्रु पक्ष में जाकर या उनके द्वारा इस्तेमाल होकर दुर्गा अपने ही लोगों का संहार करती हैं। जयकार में डूबी यह देवी एक बार पश्चाताप में डूबकर अपनी जिह्वा जरूर बाहर करती हैं, जब संहार करते-करते वह अपने देवता महादेव (शिव) की छाती पर पैर रख देती है। दुर्गा का यह रूप काली कहा जाता है और यह मुझे बार-बार सोचने के लिए विवश करता है कि या देवी को यह भान हो गया है कि आखिर वह कहाँ पहुँच गईं हैं। रूप अत्यंत कारुणिक है। आज से 33 वर्ष पूर्व मैंने एक कहानी लिखी थी ‘कास के फूल’, इस कहानी में मूर्ति गढ़ने वाला कुम्हार महिषासुर की जगह इलाके के सेठ की मूर्ति बना देता है और दुर्गा के मुंडमाल में असुरों की जगह शहर के पापाचारियों के मुंड डाल देता है। इस छोटे-से बदलाव से पूरे उत्सव का अर्थ बदल गया है
दलित-पिछड़े तबकों के नेता इस दशहरे में यदि यह जान पाएँ कि वे किसकी छाती पर पैर रखकर जयजयकार पा रहे हैं तो दशहरे का कुछ मतलब निकले। वे यदि देवी की तरह पश्चाताप कर सकें तो उत्सव का अर्थ ही बदल जाए।
महिषासुर आंदोलन से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘महिषासुर: एक जननायक’ (हिन्दी)। घर बैठे मंगवाएं : http://www.amazon.in/dp/819325841X किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र उपलब्ध होगा )
Mani is highly misinformed person. The Durga Devi and Mahishsur are not historical person. The context of killing got nothing to do with Sur and Asur. Many of this story were brought to India from Assyria ( Present Iraq) where aryan had constant fight with them.
In India the story goes like this
Mahishsur did tapasya to please Shivjee. Shivjee gave him boon . He became arrogant. Started killing / harassing innocent saints and public ( His own and Aryans) . Finally Devi Durga has to take the avatar and kill him as prescribed in the boon. He wasnt killed becuase he was native to India.
Bhagwan Ram defeated Ravan ( an aryan ) with the help of Vanar ( natives) . The adivashis were always out of cast net and were respected. Another avatar of Durga is Kali who is from natives.
The article is mainly to insult and devide Hindu samaj and pave the way for re-enslavement