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राष्ट्रवाद : हिंदू बनाम भारतीय

क्या भारत में एक मुसलमान के पास यह आजादी नहीं कि वह धर्मांतरण करे और हिंदू हो जाए? आपको फिर वह बात जोर-जबरदस्ती से लागू करने की क्या जरूरत है जिसे करने के लिए वह पहले से ही आजाद है, बशर्ते आप उसे मना सकें कि आपका दृष्टिकोण समझदारी भरा और वैधतापूर्ण है?

बात 1994 की है। स्विट्जरलैंड से आए मेरे एक मित्र डेव रेलगाड़ी से नई दिल्ली से वाराणसी जा रहे थे। जब उन्होंने देखा कि उनका एक सहयात्री एक जर्मन किताब और एक अँग्रेजी—जर्मन शब्दकोश लिए बैठा है तो उन्होंने अपना परिचय दिया:

डेव: हैलो! मेरा नाम डेव है और मैं ज्यूरिख का रहने वाला हूँ। मैं देख रहा हूँ आप मेरी भाषा का अध्ययन कर रहे हैं।

सहयात्री मुस्कुराया और उसने जर्मन में जवाब दिया: “मेरा नाम ओम है। मैं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का छात्र हूँ। मुझे आपकी भाषा अच्छी लगती है।”

डेव: शुक्रिया। जब उन्हें पता चलता है कि मैं जर्मन-स्विस हूँ तो कई भारतीय लोग मेरे प्रति मित्रवत हो जाते हैं। लेकिन आप पहले भारतीय हैं जिन्हें मैंने वास्तव में जर्मन का अध्ययन करते देखा है। आपको इसमें क्या अच्छा लगता है? क्या आप जर्मनी में नौकरी करने की योजना बना रहे हैं?

ओम (हँसते हुए): ओह, नहीं! आप मेरी स्वदेशी पोशाक देख कर समझ सकते हैं कि मैं एक राष्ट्रवादी हूँ। मेरा मिशन है कि मैं भारत को कम से कम जर्मनी जितना महान बनाऊँ। मैं जर्मन और संस्कृत के बीच संबंधों की खोज कर रहा हूँ, लेकिन मेरा मुख्य उद्देश्य है कि मैं हिटलर की मेन कैंफ को मूल भाषा में पढ़ पाऊँ।

डेव: यह बात कुछ अजीब लगती है। आप हिटलर से क्या सीखने की आशा रखते हैं?

ओम: भारत को फिर से महान और मजबूत कैसे बनाया जाए।

डेव: लेकिन क्या हिटलर ने जर्मनी को विनाश की कगार पर नहीं ला दिया था?

ओम: बिलकुल नहीं। वह जर्मनी को पूरे यूरोप में महानतम राष्ट्र बनाने में कामयाब रहे थे। अँग्रेजी भाषी जगत हिटलर का मजाक उड़ाता है जो बिलकुल भी जायज नहीं है। विडंबना तो यह है कि अँग्रेजों ने हमें गुलाम बनाया, लेकिन हम आज भी यही सोचते हैं कि हिटलर बुरा आदमी था। ऐसा इसलिए क्योंकि हम अँग्रेजी भाषा और प्रोपागैंडा पढ़ते रहे हैं। अँग्रेजी साहित्य लगातार हमारा ब्रेनवॉश करता आ रहा है। इसीलिए मैं जर्मन सीख रहा हूँ। मेरे गुरुजी कहते हैं कि हिटलर केवल इसलिए असफल हुआ क्योंकि वह अपने समय से आगे था और उसने एक-साथ कई मोर्चों पर लड़ाई शुरू कर दी। हिटलर ने शायद जल्दबाजी की लेकिन उसके विचार पूरी तरह वैज्ञानिक थे। जर्मनी से अधिक वे भारत में कामयाब होंगे क्योंकि वे विचार हमारे लिए विदेशी या अनजान नहीं हैं। ऐसे विचारों में हम हमेशा से ही आस्था रखते आए हैं।

डेव: मसलन?

ओम: क्रमिक विकास या जिसे आप इवोल्यूशन कहते हैं। प्रजातियों का विकास इसलिए होता है क्योंकि आत्माओं का विकास होता है। कुछ आत्माएँ दूसरों से अधिक विकसित या इवॉल्व्ड होती हैं। आर्य, जिनमें शायद आप भी शामिल हैं, सबसे अधिक विकसित हैं। जो ताकतवर और समझदार है उसे कमजोर और अज्ञानी का नेतृत्व करना है। हम अपने विकास का खुद ही नुकसान करते हैं जब हम “समता” के नाम पर — जिसका दरअसल कोई अस्तित्व ही नहीं है — कमजोरों और मूर्खों को अपना नेतृत्व करने की अनुमति देते हैं। अफलातून ने कहा है कि रिपब्लिक (गणतंत्र) में दार्शनिक-राजाओं को ही शासन करना चाहिए।

डेव: मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा। मैं सोचता था कि भारतीय अपने प्रजातंत्र पर गर्व महसूस करते हैं।

ओम: बेशक हम करते हैं। लेकिन ब्रिटेन यह फैसला क्यों करे कि हमारा प्रजातंत्र कैसा दिखना चाहिए? क्या हमें उनके आक्रामक साम्राज्यवाद का अनुसरण करना होगा? हमारी परंपरा कभी ऐसी नहीं रही। उनकी प्रणाली हमारे देश में कारगर नहीं हो पा रही। मैं श्री … के आमंत्रण पर दिल्ली आया। वे शीघ्र ही भारत के प्रधानमंत्री होंगे। उन्होंने हमें बुलाया है कि हम हमारे राज्य में राजनैतिक अफरा-तफरी पर चर्चा करें।

मैं अपने विश्वविद्यालय में छात्र नेता हूँ। मेरी पार्टी ने मुझे छात्र संघ के चुनावों में बतौर उम्मीदवार उतारा था। कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता था कि हमारा पैनल सबसे उत्तम था, लेकिन फिर भी हम चुनाव हार गए। जो पैनल जीता उसके पास न तो राजनैतिक अनुभव था और न ही योग्यता। वे केवल पिछड़ी जाति से संबंधित होने के कारण जीते। मुसलमानों ने भी उन्हें समर्थन दिया। राज्य स्तर भी वही हुआ।

और अब यही राष्ट्रीय स्तर पर भी हो सकता है।

सोचिए तब क्या होगा जब अनपढ़-गँवार मतदाताओं ने अपनी पार्टी बना ली और अपने एक सदस्य को प्रधानमंत्री के रूप में निर्वाचित करवा लिया। सैद्धांतिक तौर पर वे ऐसा कर सकते हैं क्योंकि उनके पास संख्या बल है।

डेव: तो आप क्या विकल्प पेश करते हैं?

ओम: हमारा तथाकथित प्रजातांत्रिक संविधान, जो वेस्टमिंस्टर प्रणाली का अनुकरण करता है, ब्रितानी राज की धरोहर है। यह हमारी मानसिक गुलामी का प्रतीक है। इसे हमारी वास्तविकता का अंदाजा भी नहीं है। यह मुसलमानों की तरफदारी करता है जिन्होंने हमें अँग्रेजों से अधिक समय तक गुलाम बनाए रखा।

साथ ही यह छद्म-धर्मनिरपेक्ष संविधान हमारी सांस्कृतिक परंपराओं के अनुकूल नहीं है, जो समता के इस जाली विचार में विश्वास नहीं रखतीं कि पढ़ा-लिखा और अनपढ़, कम विकसित और अधिक विकसित एक समान हैं। अपने संविधान को बदलने के लिए हमें राजनैतिक ताकत प्राप्त करनी होगी।

डेव: तो क्या आप सभी मनुष्यों की समानता में विश्वास नहीं करते?

ओम: अँग्रेज समता की बात करते हैं। वे हिटलर को नस्लवादी कह कर उसकी भर्त्सना करते हैं। लेकिन यह तो निरा पाखंडीपन है। हमने ब्रितानी नस्लवाद को नजदीकी से भोगा है। उनके अपने लेखकों ने विस्तार से उसकी व्याख्या की है। कोई भी वैज्ञानिक — प्राकृतिक या सामाजिक — समता को साबित नहीं कर सकता क्योंकि कोई इसे देख नहीं सकता, ऑब्जर्व नहीं कर सकता। दुनिया में कहीं भी दो मनुष्य एक जैसे नहीं होते। नेता नेता होता है, और अनुयायी अनुयायी। अनुयायी को नेता का अनुसरण करना होगा, इसका उलट नहीं होना चाहिए।

डेव: क्या आप यह कह रहे हैं कि नेता को लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिए?

ओम: जब तक यह गाड़ी बनारस पहुँचेगी हम चार से छह घंटे लेट हो चुके होंगे। आप इस प्रकार की अकुशलता, समय की बरबादी, उत्पादनशीलता की कमी, साफ-सफाई की कमी और हमारे आर्थिक पिछड़ेपन की वजह क्या समझते हैं? इस नकलची प्रजातांत्रिक प्रणाली में कोई किसी की बात नहीं मानता। नागरिक और कर्मचारी शासकों को जवाबदेह बनाना चाहते हैं, लेकिन समता के नाम पर वह किसी की आज्ञा नहीं मानना चाहते।

बनारस जो भारत के सबसे पवित्र नगरों में से एक है, अब सबसे गंदे शहरों में शुमार है। क्यों? क्योंकि हमारे शासक सफाई कर्मचारियों से काम करवाने में अक्षम हैं। सफाई करने वाले अब हमारे शासक बनना चाहते हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि 1960 और 70 के दशकों में पश्चिम से हजारों-लाखों लोग बनारस में  ज्ञान प्राप्त करने आते थे और अब उनकी संख्या बहुत ही कम हो गई है। दुनिया भर में बनारस अब अपने आध्यात्मिकता के लिए नहीं बल्कि गंदगी और कूड़े के लिए जाना जाने लगा है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को हिंदू धरोहर की समृद्धता के संरक्षण के लिए स्थापित किया गया था। अब, हमारे संविधान की बदौलत, यह धरातल में जा लगी है। कुछ लोग जो हमारे चपरासी बनने के लायक नहीं हैं, हमारे प्रोफैसर बन बैठे हैं, और एक मसखरा जिसे भैंसे चरानी चाहिए हमारे राज्य का मुख्यमंत्री बन बैठा है।

डेव: माफ कीजिएगा! लेकिन क्या आपका नजरिया आपकी निजी राजनैतिक हताशा से उत्पन्न हुआ नहीं है?

ओम: जब आपकी घड़ी आपको बताती है कि हमारी ट्रेन कई घंटे की देरी से चल रही है, जब आपका नाक आपको बताता है कि हमारी पावन नगरी बदबूदार है, जब आप अपनी कुकिंग गैस रिश्वत दिए बिना खरीद नहीं सकते, तो फिर अपनी निजी हताशा के कारण आप भी हमारी प्रजातांत्रिक प्रणाली के आलोचक बन जाओगे।

डेव: लेकिन लगभग ऐसी ही प्रजातांत्रिक प्रणाली मेरे देश में ठीक-ठाक काम कर रही है। आप अपनी घड़ी हमारी रेलगाड़ियों के समयानुसार सेट कर सकते हैं।

ओम: यही तो बात है। आपकी प्रणाली आपकी मेधा का नतीजा है। हमें ऐसी प्रणाली चाहिए जो हमारी संस्कृति के अनुकूल हो: कुछ ऐसा जो यहाँ कारगर हो। आप अपनी प्रणाली हम पर क्यों थोपेंगे? क्या हम अभी भी कोई उपनिवेश हैं? हमारे कई गुरुओं ने मन बना लिया है कि वह इस संविधान को बाहर फेंक देंगे जो औपनिवेशक दौर की विरासत है। और अब यह कुछ ही समय की बात रह गई है। मैं नाजीवाद का अध्ययन इसलिए भी कर रहा हूँ कि भारत अपने लिए नया संविधान कैसे लिख सकता है।

डेव: यूरोप में कैथलिकों और प्रोटैस्टंटों ने बहुत लड़ाइयाँ लड़ीं। आधिकारिक चर्च ने कई देशों में उन लोगों पर अत्याचार किए जो उसकी अपनी धार्मिक परंपराओं के खिलाफ जा रहे थे। लेकिन अंतत: हमें एहसास हुआ कि ख्रीस्त के नाम में हम उनसे बिलकुल उलट आचरण कर रहे हैं, उन्होंने ने तो कहा था, “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखो।” हममें अंतर अब भी बरकरार हैं। लेकिन हमने सभ्य रूप से, समता और आजादी के साथ एक-दूसरे के साथ रहना सीख लिया है। क्या आपके राष्ट्र के लिए भी संविधान का यही उद्देश्य नहीं था?

ओम: दो दलों को एक-साथ रहना हो तो दोनों ओर से कोशिशें की जानी चाहिएँ। हिंदू और मुसलमान एक-साथ कैसे रह सकते हैं जब इस्लाम लाइलाज रूप से कट्टरपंथी और विस्तारवादी धर्म है? इससे भी गहरी समस्या यह है कि हम दो धार्मिक समुदायों के एक-साथ रहने की बात नहीं कर रहे। हमारे संविधान की मुख्य कमी यही है कि वह दो अलग-अलग राष्ट्रों को एक राष्ट्र के रूप में साथ रहने की इच्छा रखता है। हिंदू और मुसलमान दो अलग राष्ट्रीयताएँ हैं।

डेव: क्षमा कीजिएगा, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा। हिंदुइज्म तो धर्म है, राष्ट्र नहीं।

ओम: हिंदुइज्म या हिंदू धर्म जैसी कोई चीज इस दुनिया में नहीं है। यह एक बनावटी नाम है जो अलग-अलग, बल्कि परस्पर विरोधी, धार्मिक मान्यताओं, प्रथाओं और संप्रदायों की एक व्यापक शृंखला को दिया गया है। हम जिसकी बात करतें है वह हिंदू धर्म या हिंदुइज्म नहीं है, हम बात करते हैं हिंदुत्व की। इसी के द्वारा हिंदू को एक “राष्ट्र” कहना संभव होता है। यदि हिंदू चाहते हैं कि दुबारा उन्हें कोई गुलाम न बनाए, अगर वे अपने आप को ताकतवर बनाना चाहते हैं, तो उनके पास और कोई विकल्प नहीं सिवाय इसके कि वे छद्म धर्मनिरपेक्ष “भारतीय राष्ट्रवाद” के स्थान पर “हिंदू राष्ट्रवाद” की स्थापना करें।

डेव: “हिंदू राष्ट्रवाद”, “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” और “हिंदू राष्ट्रवाद”, ये शब्द मैं अकसर सुनता रहता हूँ। मुझे तो ये ऐसे ही लगते हैं जैसे “जर्मनी लूथरवादियों” के लिए या “इंग्लैंड हाई-चर्च एंगलीकनों के लिए”। क्या इन शब्दों का अर्थ यही है?

ओम: ताज्जुब की बात है कि आप ज्यूरिख से आए जर्मन हैं और आप इस परिकल्पना को नहीं समझते। ज्यूरिख में जन्मे जर्मन योहानन कैस्पर ब्लंटशली द्वारा दिया गया यह विचार भारत में हमारे हिंदू देशभक्तों एम. एस. गोलवलकर और वीर सावरकर के रास्ते आया। 1875 में लिखी अपनी एक पुस्तक में ब्लंटशली ने “राष्ट्र” की परिभाषा इस प्रकार दी है:

एक वंशानुगत समाज में अलग-अलग व्यवसायों और सामाजिक अवस्थाओं में रहने वाले जनमानस का संघ जो साँझी आत्मा, भाव और नस्ल के द्वारा और खासतौर पर भाषा और रीति-रिवाजों के साथ एक ऐसी साँझी सभ्यता में आपस में जुड़ा हुआ हो जो उन्हें एकता का भाव प्रदान करती है और सभी विदेशियों से उनका भेद करती है, राज्य के बंधन से काफी अलग।

“राष्ट्र” (नेशन) की यह सही व्युत्पत्ति-विषयक परिभाषा है। “नेशियो”, जो “नेसी” शब्द से आता है, वह जन्म और नस्ल की ओर संकेत करता है न कि राजनैतिक राज्य की ओर। ब्लंटशली दर्शाते हैं कि अँग्रेजी भाषा ने इस मुद्दे को उलझा दिया है। “नेशन” शब्द का अर्थ है लोग और उनकी सभ्यता। “नेशन” शब्द का जो अर्थ है उसके लिए अँग्रेज “पीपल” (लोग) और फ्राँसीसी “पीअपल” का इस्तेमाल करते हैं। हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग लोग और राष्ट्र हैं।

डेव: लेकिन क्या इस परिभाषा से नस्लवाद की बू नहीं आती?

ओम: हम “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” की बात करते हैं तो ठीक इसीलिए कि उसे नस्लवाद से अलग किया जा सके। हम नहीं चाहते कि मुसलमान अल्लाह की इबादत करना बंद कर दें, लेकिन अगर उन्हें हिंदुस्तान में रहना है तो उन्हें हिंदू मुसलमान की तरह रहना होगा।

डेव: मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा कि कोई मुसलमान होने के साथ-साथ हिंदू भी कैसे हो सकता है। कोई “भारतीय मुसलमान” क्यों नहीं हो सकता?

ओम: इसे समझना कोई मुश्किल नहीं होगा अगर आप ब्लंटशली की परिभाषा पर गौर करें। जिसकी आपको आदत है यह बस उससे थोड़ा अलग प्रतिमान है। जर्मनी में थर्ड रीक को मजबूत करने में इस परिभाषा ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसका धर्म से वैसा कुछ लेना-देना नहीं है। हिंदू महासभा के अध्यक्ष और हिंदू राष्ट्रवाद के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतकारों में से एक, वीर सावरकर खुद अनीश्वरवादी प्रवृत्ति रखते थे। दरअसल कुछ हिंदुओं को भी हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने के उनके मिशन के बारे में गलतफहमी थी। अपने एक अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने साफ किया कि जहाँ हिंदुइज्म हिंदू धर्म के सिद्धांतों और कर्मकांडों से संबंधित है, हिंदुत्व उन मुद्दों को व्यक्तियों और समूहों पर छोड़ देता है और सभी हिंदुओं को संस्कृति के साँझे विचार के आस-पास इकट्ठा करता है।

डेव: तो अगर हिंदुत्व आंदोलन हिंदू धर्म का प्रसार नहीं करता तो फिर ठीक-ठीक वह किस चीज को बढ़ावा देता है?

ओम: यही तो मैं समझाने का प्रयास कर रहा हूँ। हमारा मिशन किसी विशेष धार्मिक मान्यता का प्रसार करना नहीं है, बल्कि हिंदू राष्ट्र, अर्थात् हिंदू लोगों को मजबूत बनाना है।

डेव: लेकिन अगर भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाया जाए तो क्या यह अपने आप ही नहीं हो जाएगा?

ओम: पहली बात, “भारत” या जिसे आप “इंडिया” कहते हैं वह एक राष्ट्र नहीं बल्कि एक ब्रितानी कल्पना है जिसे हमारे कनफ्यूज्ड धर्मनिरपेक्षतावादी बढ़ावा देना चाहते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप इतने लंबें समय तक गुलाम इसीलिए रहा क्योंकि हिंदुओं ने कभी अपने आपको मुसलमानों या ईसाईयों की तरह एक अलग राष्ट्र के रूप में नहीं देखा। परिणामस्वरूप, हिंदुओं ने कभी अपनी सामूहिक ताकत का निर्माण नहीं किया। अपनी यहूदी पहचान से चिपका हुआ छोटा-यहूदी समुदाय कहीं बड़े आर्य-जर्मन राष्ट्र के लिए खतरा बन गया, इसी तरह मुसलमान भी आर्य-हिंदुओं के लिए खतरा बन गए हैं। हमारे संविधान को नष्ट किए जाने की जरूरत है, क्योंकि गडमड ब्रितानी दृष्टिकोण पर आधारित होने के कारण यह “मुस्लिम पर्सनल लॉ”, “अल्पसंख्यक संस्थान”, इत्यादि को संरक्षण देता हुआ एक अलग मुस्लिम पहचान को बढ़ावा देता है। एक राष्ट्र बनने के लिए हमें मुसलमानों को “हिंदू मुसलमान” बनाने के लिए हमें एक समान नागरिक संहिता की जरूरत है। लॉर्ड मैकॉले ने प्रत्येक समुदाय के लिए अलग-अलग “पर्सनल लॉ” बनाए क्योंकि अँग्रेज हमें बाँटकर और कमजोर बनाए रखना चाहते थे।

डेव: मुझे समझ में आने लगा है कि आपका क्या आशय है। क्या आपने कभी इस पर शोध किया है क्यों “नेशन” शब्द का अर्थ अँग्रेजी भाषा में बदल गया और अब यह किसी विशेष नस्ल या “लोक समूह” की बजाय राज्य की ओर इशारा करता है?

ओम: नहीं, मैंने इस बारे में नहीं सोचा। यह बदलाव क्यों आया?

डेव: सही-सही मुझे भी नहीं पता। मैं आप जैसा विद्वान नहीं हूँ लेकिन आपकी दलीलों ने एक ऐसी अंतर्दृष्टि को जन्म दिया है जिस की आगे पड़ताल की जानी चाहिए। “नेशन” शब्द की परिभाषा इसलिए बदलनी होगी क्योंकि खुद वास्तविकता बदल गई होगी। ब्रिटेन एक असहिष्णु समाज था। स्टेट-चर्च, या राज्य का आधिकारिक चर्च, प्यूरिटनों और दूसरे अल्पसंख्यक मसीही भिन्नमतावलंबियों को प्रताडि़त करता था। लेकिन जब प्यूरिटनों के हाथ में सत्ता आई तो सहिष्णुता को संस्थागत बनाया गया, अलग-अलग समूहों ने एक-साथ रहना सीखा। स्टेट-चर्च बना रहा लेकिन अब उसके पास यह ताकत नहीं थी कि अपनी मान्यताएँ और संस्कृति दूसरों पर थोपे, क्योंकि उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया था कि बाइबल की यही शिक्षा है कि ईश्वर सभी “राष्ट्रों” और भाषाओं में से एक “देह” का निर्माण कर रहे हैं। यीशु — यहूदी मसीहा — समूचे जगत की ज्योति बन कर आए थे। इसलिए, अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम रखना उचित था। उत्तरी अमेरिका प्रवास करने वाले मसीही सहिष्णुता का यही भाव अपने साथ वहाँ ले गए। अमेरिका में उन के पास अधिक आजादी थी कि वे अपने इस विचार के निहितार्थों को विकसित कर सकें। स्टेट-चर्च के विचार का ही उन्मूलन कर दिया गया। व्यक्तियों और अलग-अलग सांस्कृतिक समूहों को आजादी दी गई कि वह अपनी खुद के संघ बनाएँ और अपनी-अपनी संस्कृति का विकास करें।

अमेरिका एक मेल्टिंग पॉट बना जहाँ अलग-अलग संस्कृतियाँ अपनी सांस्कृतिक विविधता को बरकरार रख सकती थीं और उसके बावजूद एक मजबूत एकीकृत राष्ट्र बन सकती थीं, जो किसी थोपी गई संस्कृति के बल पर नहीं बल्कि नैतिकता, संविधान और राजनैतिक स्वतंत्रता के आधार पर जुड़ा हुआ है। क्या यह हो सकता है कि लॉर्ड मैकॉले भी भारत को वही व्यक्तिगत और सांस्कृतिक आजादी प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे जो भारत को टुकड़े-टुकड़े करने की बजाए मजबूत बनाए — उस आजादी को नैतिक, वैधानिक और राजनैतिक एकता के साथ जोड़ देने के द्वारा?

क्या भारत में एक मुसलमान के पास यह आजादी नहीं कि वह धर्मांतरण करे और हिंदू हो जाए? आपको फिर वह बात जोर-जबरदस्ती से लागू करने की क्या जरूरत है जिसे करने के लिए वह पहले से ही आजाद है, बशर्ते आप उसे मना सकें कि आपका दृष्टिकोण समझदारी भरा और वैधतापूर्ण है? क्या जोर-जबरदस्ती से लागू किया गया “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” सांस्कृतिक फासीवाद से अलग है, जिससे हम यूरोपवासी काफी अच्छी तरह से परिचित हैं?

(फारवर्ड प्रेस के फरवरी 2012 अंक में प्रकाशित)


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लेखक के बारे में

विशाल मंगलवादी

विशाल मंगलवादी ट्रूथ एंड ट्राँसफॉर्मेशन : ए मेनीफेस्टो फॉर एलिंग नेशन्स के लेखक हैं। इस लेख का पूर्ण संस्करण जल्द ही ऑनलाइन उपलब्ध होगा।

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