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जब हम चलते हैं तो नृत्य करते हैं

हमारे समुदाय के बारे में कहा जाता है कि ‘जब हम बात करते हैं तो गाते हैं, जब हम चलते हैं तो हम नृत्य करते हैं।’ लगभग सभी आदिवासी समुदायों में संगीत और लय-ताल का ज्ञान मानो लोगों के व्यक्तित्व का अविभाज्य हिस्सा होता है। उड़िया फिल्म निर्देशक/निर्माता लिपिका सिंह दराई से राकेश कुमार सिंह की बातचीत

डिशा की फिल्म निर्देशक/निर्माता लिपिका सिंह दराई को सन् 2012 के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए चुना गया है। उन्हें किसी निर्देशक की पहली सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार दिया गया है। यह दराई को, जो हो आदिवासी समुदाय से आती हैं, मिलने वाला दूसरा राष्ट्रीय सम्मान है। राकेश कुमार सिंह ने उनसे यह बातचीत की है।

आपको निर्देशक के रूप में पहली सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। आप अपनी इस उपलब्धि के बारे में क्या सोचती हैं?

यह ‘एका गच्छा, एका मानिसा, एका समुद्रा’ (एक पेड़, एक आदमी, एक समुद्र) मेरी पहली फिल्म है। यह ओडिया में कम अवधि की डाक्यूमेंट्री है। यह फिल्म मेरे संगीत शिक्षक स्वर्गीय गुरुजी प्रफुल्ल कुमार दास की मेरे बचपन की यादों पर आधारित है। मुझे प्रसन्नता है कि बहुत से अखबारों में गुरुजी के जीवन, उनकी संगीत यात्रा और उनके संगीत के बारे में बहुत कुछ छपा। पुरस्कारों की घोषणा के बाद राज्य के मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से छापा। मैं इस दौरान जिससे भी मिली, उसने यह फिल्म देखने में दिलचस्पी दिखाई और उन सबको फिल्म का नाम याद था। एक ऐसी लघु फिल्म, जिसे व्यावसायिक सर्किट पर रिलीज नहीं किया जाना था, पर पहुंच को इस पुरस्कार ने बढ़ा दिया है।

 

इस फिल्म के तकनीकी और भावनात्मक तत्व क्या थे?

यह फिल्म बहुत छोटे बजट में बनाई गई है। इसकी शूटिंग हमने मिनी डी.व्ही. टेप पर की है और संपादन आदि का कार्य घर में ही किया है। मैं इस फिल्म को अपनी अभिव्यक्ति मानती हूं और इसलिए इसे किसी प्रतियोगिता आदि में भेजने का मेरा कोई इरादा नहीं था। जब मैं फिल्म स्कूल में ध्वनि अंकन का कोर्स कर रही थी, तब मेरी इच्छा हुई कि मैं अपने गुरुजी की आवाज को रिकार्ड कर उसे हमेशा के लिए सुरक्षित कर लूं। परंतु, मैं ऐसा कर पाती, उसके पहले ही मैंने उन्हें खो दिया। मुझे याद है कि जब मैंने उनसे संगीत सीखना शुरू किया था तब में छह वर्ष की थी। पहली ही क्लास में उन्होंने जीवन के अर्थ से मुझे बहुत सरल शब्दों में परिचित करवाया। एक छह वर्ष की बच्ची के लिए गुरुजी ने एक बहुत बड़ी और विस्तृत दुनिया के द्वार खोल दिए-एक ऐसी दुनिया के, जिसके बारे में वह जानती ही नहीं थी। मैं मानती हूं कि मेरी फिल्म उसी समय अंकुरित हो गई थी और बाद में तो मैंने केवल उनसे जुड़ी अपनी स्मृतियों को छवि का स्वरूप दिया।

आपको इससे पहले भी राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। उसके बारे में कुछ बताइए?

मुझे ‘गरूड़’ फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ साउंड रिकार्डिंग व मिक्सिंग का पुरस्कार मिला था। यह पुरस्कार 57वें फिल्मोत्सव में गैर-फीचर फिल्म श्रेणी में दिया गया था। यह फिल्म, एफटीआईआई, पुणे में ऑडियोग्राफी के मेरे पाठ्यक्रम के दूसरे वर्ष का अंतिम प्रोजेक्ट था। इस फिल्म की अंतिम साउंड मिक्सिंग मैंने 35 एमएम के मैग्नैटिक ट्रेक पर की थी। यह अपने आप में एक अनुभव था, क्योंकि इस तरह के ट्रेक अब इस्तेमाल नहीं होते।

क्या आप एफटीआईआई तक की अपनी यात्रा को संक्षेप में हमारे साथ बांटना चाहेंगी?

अपनी स्नातक स्तर की पढ़ाई के अंतिम वर्ष तक मुझे एफटीआईआई के बारे में कुछ पता ही नहीं था। मैं तो विशाखापट्टनम के टीएसआर व टीव्हीके डिग्री कालेज से बीकॉम कर रही थी। मैं एमबीए करना चाहती थी, परंतु मुझे यह भी डर था कि इस तरह के पाठ्यक्रम करने से मैं अपने व्यक्तित्व का कलात्मक पक्ष खो बैठूंगी। एक बार मैंने एफटीआईआई को ‘फैशन एंड टेक्नोलॉजी इंस्टीट्यूट’ बता दिया। इस पर मेरे एक नजदीकी मित्र ने मेरी बहुत हंसी उड़ाई। इसके बाद मैंने एफटीआईआई के बारे में और जानकारियां इकट्ठी करनी शुरू कीं। मैंने तीन वर्ष का ऑडियोग्राफी कोर्स करने का निर्णय किया। चूंकि इस कोर्स में हर साल केवल आठ-दस विद्यार्थी ही भर्ती किए जाते हैं, इसलिए मैंने प्रवेश परीक्षा की तैयारी बहुत मेहनत से की। अपना खर्च चलाने के लिए मैंने कुछ दिनों तक दिल्ली के एक कॉल सेंटर में भी काम किया और दिल्ली से ही मैंने प्रवेश परीक्षा दी। यद्यपि मुझे तैयारी में किसी का मार्गदर्शन नहीं मिला था फिर भी, आश्चर्यजनक रूप से, मुझे प्रश्नपत्र बहुत आसान लगा। मुझे ऐसा लगा मानो उसके प्रश्न मेरे जीवन पर ही आधारित थे। चूंकि उस साल की भर्ती परीक्षा का परिणाम बहुत देर से घोषित किया गया इसलिए तब तक मैं किसी भी दूसरे कोर्स में दाखिला लेने का अवसर गंवा चुकी थी। सौभाग्यवश, मैं प्रवेश परीक्षा में सफल रही और साक्षात्कार के बाद मुझे एफटीआईआई में प्रवेश मिल गया। मेरी जिंदगी की एक नई यात्रा शुरू हुई। एफटीआईआई के ऑडियोग्राफी कोर्स ने मुझे संगीत के अपने ज्ञान को तकनीक से जोडऩा सिखाया। फिल्म निर्माण की प्रक्रिया की मूल आत्मा से मैं परिचित हुई।

आपकी कला यात्रा में आपके आदिवासी समुदाय की महिला फिल्म निर्माता होने का क्या महत्व है?

हमारे समुदाय के बारे में कहा जाता है कि ‘जब हम बात करते हैं तो गाते हैं, जब हम चलते हैं तो हम नृत्य करते हैं।’ लगभग सभी आदिवासी समुदायों में संगीत और लय-ताल का ज्ञान मानो लोगों के व्यक्तित्व का अविभाज्य हिस्सा होता है। फिल्म निर्माण मेरे लिए इसी विरासत को आगे बढ़ाना है। संसाधनों और रास्ता दिखाने वालों के अभाव और हमारे देश में विकास के केवल शहरों तक सिमट जाने के कारण हममें से कई-विशेषकर महिलाएं-शिक्षा, करियर और जीवनयापन के पुराने, घिसे-पिटे ढर्रे पर चलने के अलावा कुछ सोच ही नहीं पाते। परंतु मैं यहां आपको बताना चाहूंगी कि ओडिशा के कई आदिवासी समुदायों का अपना घरेलू फिल्म उद्योग है। यद्यपि यह अभी शुरुआती अवस्था में है। यह सचमुच रोमांचक और प्रेरणास्पद है कि इस काम में जो युवक-युवतियां जुटे हुए हैं वे फिल्म निर्माण से दीवानगी की हद तक प्रेम करते हैं।

आगे आपके क्या इरादे हैं? क्या आप किसी नए प्रोजेक्ट के बारे में सोच रही हैं?

मेरे पति, जो कि एक सिनेमेटोग्राफर हैं और मैं अभी कुछ ही समय पहले मुंबई छोड़कर भुवनेश्वर आ गए हैं, हम एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं। मेरा इरादा हो और ओडिया-दोनों भाषाओं में फिल्म बनाने का है। मैं शोध-आधारित दस्तावेजीकरण के काम पर भी विशेष ध्यान दे रही हूं। इन दिनों हम ओडिशा की कठपुतली परंपराओं पर एक डाक्यूमेंट्री बना रहे हैं। मैं दिल्ली में चल रहे सराय रीडर 9 प्रदर्शनियों का भी हिस्सा हूं जहां मैं मुंबई के ध्वनि परिदृश्य की व्याख्या पर काम कर रही हूं।

आदिवासी समुदाय के उन युवक-युवतियों के बारे में क्या कुछ कहना चाहेंगी जो फिल्म निर्माण से जुडऩा चाहते हैं?

मैं कुछ युवा निर्देशकों से मिली हूं जो अपनी आदिवासी भाषा या बोली में स्वतंत्र रूप से फिल्में बना रहे हैं। उनका तकनीक ज्ञान बहुत सीमित है और वे अपनी फिल्मों को व्हीसीडी पर जारी कर रहे हैं। व्यक्तिगत तौर पर मैं उनकी मेहनत और उनके आत्मविश्वास की प्रशंसक हूं। वे अपने समुदाय की पहचान को मजबूती देने के काम में हाथ बंटा रहे हैं। मात्र इसलिए कि मैं आदिवासी पृष्ठभूमि से हूं, केवल आदिवासी उदीयमान फिल्म निर्माताओं की बात करना नहीं चाहती। मेरा सभी से यह कहना है कि तकनीक की ठोस और पूर्ण जानकारी के बिना, किसी विचार या परिकल्पना को प्रभावी फिल्म में बदलना संभव नहीं है। उन सभी लोगों को, जो फिल्म निर्माता बनना चाहते हैं, सबसे पहले तकनीक पर महारत हासिल करना चाहिए। वे फिल्म निर्माण का कोई भी पाठ्यक्रम कर सकते हैं, किसी फिल्म निर्माण दल का हिस्सा बन सकते हैं, मंजे हुए निर्देशकों के सहायक के रूप में काम कर सकते हैं या अलग-अलग माध्यमों पर ढ़ेर सारी फिल्में बनाकर स्वयं ही ज्ञान अर्जित कर सकते हैं। वे चाहें तो सेलफोन पर ही फिल्में बना सकते हैं। असली लक्ष्य है सीखना।

(फारवर्ड प्रेस के जून 2013 अंक में प्रकाशित)

लेखक के बारे में

राकेश कुमार सिंह

राकेश कुमार सिंह फारवर्ड प्रेस के वरिष्ठ संवाददाता हैं

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