भारत में सांप्रदायिक दंगे, सरोकार-विहीन सियासत की पैदाइश हैं। आम लोग आपस में लड़ सकते हैं पर दंगा तभी भड़कता है जब सियासी या कारोबारी मंसूबों के साथ कुछ निहित स्वार्थी लोग समाज या व्यक्ति-समूहों के अंदरूनी मतभेदों को भुनाते हुए उन्हें सांप्रदायिक-हिंसक रूप देते हैं। अनेक बार तो दंगा भड़काने के लिए बाकायदा मतभेद भी पैदा किए जाते हैं। उत्तर भारत में अब तक जितने दंगे हुए हैं, उनकी निष्पक्ष पड़ताल और उनकी पृष्ठभूमि के समाजशास्त्रीय विश्लेषण का यही निचोड़ है। यह आजादी से पहले और उसके बाद के सभी दंगों का सच है। हाल के कुछ बड़े दंगों-जैसे दिल्ली सहित कई इलाकों में सन् 1984 के सिख-विरोधी दंगे या सन् 2002 के गुजरात में मुस्लिम-विरोधी दंगे भी इस सच को पुष्ट करते हैं। अभी जो कुछ उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर-शामली में हुआ, उसका सच भी यही है।
मुजफ्फरनगर-शामली इलाके में दंगे की तात्कालिक पृष्ठभूमि भले ही अगस्त के अंतिम सप्ताह और सितंबर के पहले सप्ताह में बनती दिखी हो पर सच यह है कि यहां बीते छह महीने से सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश जारी थी। कुछ ‘परिवारी नेताओं’ ने ही नहीं, कुछ ‘परिवारी मठाधीशों’ और ‘साध्वियों’ की भी सक्रियता बढ़ गई थी। विश्व हिन्दू परिषद् के एक बड़े नेता ने तो कथित ‘लव जेहाद’ के बारे में अपने प्रलाप को बाकायदा एक प्रेस बयान में जारी किया था, जिसे कुछ हिंदी अखबारों ने क्यों इतने चाव से छापा, यह वे ही बता सकते हैं! अन्य समुदायों के बीच से भी कुछ निहित स्वार्थी तत्व अपने सियासी खेल में जुटे थे। अगले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यहां राजनीतिक शक्ति-संतुलन को बदलने और एक खास ढंग के सामाजिक-जातीय ध्रुवीकरण को अंजाम देने के मकसद से यह सब हो रहा था।
इस मामले में उत्तरप्रदेश शासन की सबसे बड़ी विफलता उजागर हुई कि शुरुआती दौर में उसने सांप्रदायिक तत्वों के साथ न तो अपेक्षित कड़ाई की और ना ही प्रशासनिक इकाइयों को इस बारे में जरूरी निर्देश दिए। उत्तरप्रदेश की नौकरशाही बीते कई वर्षों से अपने राजनीतिक आकाओं से इतनी आक्रांत और अपने निहित स्वार्थों से इतनी बंध गई है कि उसने कानून के हिसाब से स्वतंत्र ढंग से काम करने और समाज में शांति-व्यवस्था बनाए रखने की निजी पहलकदमी ही खो दी है। ऐसे में उसे किसी रिमोट की जरूरत थी, जो लखनऊ से उसे नियंत्रित और निर्देशित करता। लेकिन एकछत्र सत्ता-सुख में मदमस्त लखनऊ के तख्त पर बैठे ‘नवअभिजनों’ को भला इसकी फुर्सत ही कहां थी!
नई सरकार आने के बाद से राज्य में अनेक स्थानों पर गंभीर किस्म की हिंसक सांप्रदायिक झड़पें हुई हैं। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के ताजा आकड़े अखिलेश सरकार के अब तक के राज में कानून-व्यवस्था की बहुत खराब हालत दर्शाते हैं। सांप्रदायिक तनाव और सामान्य दंगों की संख्या तो हजारों में है। सरकार के अपने आंकड़े के मुताबिक कुल 106 संवेदनशील जगहों पर हुए दंगों में 30 से ज्यादा बेहद गंभीर और खतरनाक किस्म के माने गए। अभी बहराइच, मऊ, गोरखपुर, वाराणसी और लखनऊ समेत कई इलाकों में तनाव पैदा करने की कोशिश हो रही है।
मुजफ्फरनगर में दंगा नहीं होता अगर खुराफातियों-उपद्रवियों को पहले ही पकड़ा गया होता और धारा 144 लगने के बावजूद जातीय-सांप्रदायिक उन्माद से भरी पंचायतों-महापंचायतों को होने ही न दिया गया होता। अगर प्रशासन ने बेहतर काम किया होता, खासकर पुलिस ने मामले की निष्पक्ष ढंग से पड़ताल करके त्वरित कार्रवाई की होती तो कवाल की कथित सांप्रदायिक घटना उसी जगह रुक गई होती। उक्त घटना के बाद एक संगठन विशेष के उन्मादी, सोशल मीडिया का दुरुपयोग करते रहे। एक हिंदी अखबार के 9 सितम्बर के अंक में छपी खबर का शीर्षक बदलकर सोशल साइट्स पर उसका खास ढंग से डिसप्ले किया गया, ताकि एक खास समुदाय के खिलाफ दूसरे समुदाय के लोगों के बीच दंगाई उत्तेजना पैदा की जा सके। उसके बाद तो ‘सर्वदलीय उन्मादियों’ के बीच महापंचायतें करके दंगा भड़काने की मानो होड़ सी लग गई। उन्हें दंगे के बाद वोटों की फसल जो उगानी थी।
हर जिला-थाना क्षेत्र के अपराधियों (इनमें सांप्रदायिक तनाव पैदा करने वाले भी शामिल होते हैं) की सूची पुलिस प्रशासन के पास होती है। मुजफ्फरनगर में राजनीतिक रूप से सक्रिय कई लोगों के खिलाफ नामजद रिपोर्ट रही है पर उन्हें समय रहते हिरासत में नहीं लिया गया। इसके लिए कौन दोषी है? कई दिनों तक इनमें कई को दिल्ली और नोएडा स्थित न्यूज चैनलों के स्टूडियो में बैठकर अपनी-अपनी करतूतों का बचाव करते देखा गया। सच्चे जनतंत्र और धर्मनिरपेक्ष समाज व शासन के लिए नारों और बातों से आगे बढ़ऩे की जरूरत है। इसके लिए निष्पक्ष और पारदर्शी शासकीय कामकाज के साथ लोगों की सोच, समझदारी, शिक्षा-दीक्षा और स्थानीय निकायों के कामकाज पर भी सतत् नजर रखी जानी चाहिए। पर हमारे ज्यादातर नेता और दल आज लोकतंत्र को सिर्फ ‘नंबर का खेल’ समझ रहे हैं। क्या नीति और नीयत के बगैर सिर्फ नंबर से जम्हूरियत और सेक्युलरिज्म पुख्ता होंगे?
(फारवर्ड प्रेस के अक्टूबर 2013 अंक में प्रकाशित)
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