कई स्कूलों , कॉलेजों और दूसरे शिक्षण संस्थानों में मैंने शिक्षकों से पूछा कि क्या आपने कभी यह पता लगाने की कोशिश की कि वह कौनसा पहला व्यक्ति था जिसने यह घोषणा की कि फलों का राजा आम है, फूलों में गुलाब राजा है तो जंगल का राजा शेर है किसी को इसकी जानकारी नहीं थी। इतनी बड़ी आबादी इस तरह की कहानियों व कविताओं को दोहराती आ रही हैं, लेकिन न तो रचनाकार के बारे में कोई जानकारी और ना ही रचना प्रक्रिया पर कोई बहस । जिस काल में आधुनिक तकनीक का विकास नहीं हुआ था और संचार माध्यमों की पहुँच बहुत सीमित थी, तब की स्थिति में तो यह उचित जान पड़ता है कि ‘ओपिनियन लीडर’ (विचार बनाने वाले संदेशवाहक) और ‘इंटरप्रेटर’ (व्याख्या करने वाले) ने अपने अधीनस्थ समाज को जिस रूप में जो सूचनाएं दी अधीनस्थ समाज के पास उसे दोहराने के अलावा कोई विकल्प नहीं हो सकता था। लेकिन नई तकनीक के आने के बाद, किसी भी सूचना, जो किसी भी रूप में – चाहे वह मनोरंजन के रूप में ही हो उनके स्रोत और उन सूचनाओं की विभिन्न स्तरों पर जांच पड़ताल की जा सकती है। उनमें तर्क को भी एक प्रक्रिया व तकनीक समझना चाहिए।
आम, गुलाब, शेर को जिस रूप में पेश किया जा रहा है, वह किसी का अपना मत हो सकता है। लेकिन यह सूचना के तौर पर ठीक नहीं हैं। विचार को एक सूचना के रूप में प्रस्तुत करने की कला का प्रशिक्षण संप्रेषण करने वालों को दिया जाता है। आधुनिक विधाओं में पत्रकारिता भी विचार, व्याख्या या किसी मत को सूचना के तौर पर प्रस्तुत करती है। पत्रकारों को उसी तरह से प्रशिक्षित भी किया जाता है।
आम, गुलाब, शेर को रजा का दर्जा एक राजनैतिक विचार है। तर्क की कसौटी पर कसकर देखें तो आखिर फलों में आम को राजा बनाने की जरूरत क्यों पड़ी? सारे फूल, फूल है तो उनमें किसी को राजा बनाने की क्या जरूरत है? क्या इस तरह की अवधारणा वाली कहानियां एक तरह की राजनैतिक विचारधारा को प्रसारित नहीं करती है? वे बड़े ही सहज भाव से राजा की सत्ता को दिल-दिमाग में स्थापित करती हैं।
आम, गुलाब, शेर की रचना के स्रोत और उसके लिए तर्क की तकनीक का इस्तेमाल किया गया तो जो शिक्षक व दूसरे लोग, जो धड़ल्ले से बच्चों के सामने ये बातें गुनगुनाते आ रहे थे, सोच में पड़ गए। लेकिन ऐसी सामग्री में आम, गुलाब, शेर की रचना भर ही नहीं है। इस तरह की तो ढेरो सामग्री है और उन सबके स्रोत क्या है?
समाज में लोग किसी भी विषय या मुद्दे पर अपनी धारणा किसी न किसी सामग्री के आधार पर बनाते हैं। यह सामग्री किसी पत्र-पत्रिका में छपी भी हो सकती है और किसी के मुंह से सुनी हुई भी। लेकिन क्या कारण है कि जिस सामग्री के आधार पर किसी मुद्दे या विषय के बारे में राय कायम की जाती है, उस साम्रगी को प्रस्तुत करने वालों के बारे में जानने की जरूरत शिद्दत से महसूस नहीं की जाती है? यदि सामग्री के स्रोत के राजनैतिक पक्ष को जान लिया जाए तो तर्क के सहारे उस मुद्दे और विषय के सच के नजदीक पहुंचा जा सकता है। यदि वहां कोई समस्या दिखती है तो उसका रास्ता वहां निकाला जा सकता है। लेकिन जो समाज भटकाव के बड़े संकट से घिर गया हो वहां स्रोत का जानना व जनवाना एक जटिल काम हो जाता है। एक तो उसकी पहचान कराने से बचने की कोशिश होती है, तो दूसरा स्रोत की जानकारी मिलने पर उस स्रोत की वास्तविकता तक पहुंचने की क्षमता नहीं विकसित हो पाती है।
मसलन राजनैतिक पक्ष का अर्थ केवल राजनीतिक पार्टियों के इर्द गिर्द ही देखा जाता है। राजनैतिक विचार पूंजी, धर्म, और संस्कृति आदि का भी होता है। विभिन्न तरह के स्रोतों से उपलब्ध सामग्री को देखने, परखने और सुनने वाला कोई पाठक या श्रोता यदि अपनी तार्किक क्षमता का उपयोग करे तो उसे पूर्वग्रहों से मुक्त राय बनाने में मदद मिल सकती है।
सूचना तकनीकी के विस्तार के दौर में एक ही तथ्य पर आधारित भिन्न राजनैतिक दृष्टि के साथ सूचनाएं सामने आती है। जो सूचना अपने राजनैतिक पक्ष के साथ सबसे ज्यादा असरकारी होती है, वही बाद में निर्णयकारी साबित होती है। सूचना तकनीकी का विस्तार तो नई बात है। इसमें तात्कालिकता का महत्व बहुत ज्यादा होता है। लेकिन किताबें स्थायी किस्म की धारणा बना देती है। किसी एक किताब ने पीढ़ी दर पीढ़ी एक धारणा को बनाए रखा लेकिन उसके किसी भी पाठक ने उसकी सामग्री के स्रोतों के बारे में जानने की जरूरत महसूस नहीं की,, उनकी तथ्यात्मक प्रमाणिकता के लिए किसी भी स्तर पर दूसरी सामग्री को देखने की भी जरूरत महसूस नहीं की। टेलीविजन के चैनलों के कारण ढेर सारे साधु, महात्मा, धार्मिक विद्वान श्रोताओं के सामने दिखाई देने लगे हैं। उनके प्रवचन सुनने को मिलते हैं। वे बराबर धार्मिक ग्रंथों के हवाले से कुछ बोलते हुए दिखते हैं। लेकिन कई दर्शकों ने बताया कि कई बार उन धार्मिक विद्वानों के संदर्भों को उन्होने प्रमाणिक दस्तावेजों से पुष्टि करनी चाही तो वे एक सिरे से उल्टी निकली। किसी के भी कुछ कहने और पढ़ाने के पीछे कुछ उद्देश्य होता है। उसका स्पष्ट होना जरूरी है। जो उसे स्पष्ट करने या पुष्टि करने की कोशिश नहीं करते है वे धर्मांधता के शिकार हो जाते है, उनका दायरा सीमित हो जाता है। उनकी स्रोतों के लिए चेतना कुंद हो जाती है। केवल सुनकर उसे मान लेने में ही यकीन करने का उनका दृष्टिकोण बन जाता है। यह ऐसा फसाव होता है कि उससे जीवन भर निकला मुश्किल होता है। एक विधार्थी ने बताया कि उसने खास तरह के एक स्कूल में पढ़ाई की है। वहां अध्धयन करने के दौरान उसका जो माइंड सेट तैयार हुआ है वह कंप्यूटर के हार्डडिस्क की तरह उनकी सामग्री से इस कदर भर चुका है कि दूसरा कोई भी तार्किक और आधुनिक विचार उसमें अट नहीं पाते हैं। डिस्क पूरी तरह भरा हुआ है। उस विधार्थी की पीड़ा अब देखी नहीं जाती है।
रूढ धाराणायें
सामाजिक आंदोलनों के बारे में हिन्दी पट्टी के लोगों की सीमित जानकारी की भी थाह ली जा सकती है। जैसे सामाजिक सुधार के आंदोलन राजाराम मोहन राय से ही शुरू होते है और वह सिलसिला वहीं खत्म हो जाता है। जबकि उस समय, सती प्रथा हिन्दू समाज के एक छोटे से हिस्से का ही सच था। यह धारणा तो एक सिरे से अपनी जकड़ बनाए हुए हैं कि जो चीजे कहीं छपी (प्रकाशित) हुई अवस्था में मिली है, वह सत्य और निस्वार्थ ही होंगी। पढ़ने लिखने वाले नए वर्ग के बीच तो यह बात बुरी तरह बैठी हुई है। मीडिया के बारे में भी यही धारणा है। लेकिन ऐसी बात कतई नहीं है। मीडिया इस राजनैतिक व्यवस्था का ही एक हिस्सा है। कोई एक पाठक, श्रोता मीडिया की पूरी दुनिया में से एक-दो अखबार या चैनल का ही इस्तेमाल करता है। इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता है कि उन एक दो अखबार या टीवी-रेडियों के चैनल पर आने वाली सामग्री सत्य और निस्वार्थ होगी। कई बार ऐसा भी होता है कि मीडिया जिस तरह से सामग्री को पेश करता है उसका कोई खंडन करने वाला होता ही नहीं है। लेकिन उसे सत्य़ नहीं माना जा सकता है। तर्क की तकनीक को सबसे पहले इस्तेमाल करना पड़ता है। जैसे एक टीवी चैनल में बाल्मिकि जाति पर एक कार्यक्रम आ रहा था। उसमें प्रस्तुतकर्ता ने अंत में यह बताया कि दरअसल मुगलों ने इस जाति के लोगों के सामने दो विकल्प रखे। या तो वे धर्मपरिवर्तन कर लें या उन्हें सफाई का काम करना होगा। अब इसका खंडन करने की कौन जिम्मेदारी ले सकता है? जबकि तात्कालिक तौर पर किसी व्यक्तिगत विशेष को इससे किसी को कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा है। जब व्यक्ति विशेष को कोई हानि पहुंचती है तो वह अपनी सक्रिय हो जाता है। लेकिन सामाजिक असत्य को खंडित करने की पहल कौन करेगा, यह निश्चित नहीं होता है। उससे इतिहास विद्रुप भर होता है। जबकि इस मिथ्या को खंडित करने के लिए किसी दूसरे संदर्भ ग्रंथ की जरूरत भी नहीं होनी चाहिए। जैसे यहां पूछा जा सकता था कि नेपाल तो हिन्दू राष्ट्र रहा है, वहां बाल्मिकि जाति को तो किसी ने धर्मपरिवर्तन के लिए बाध्य नहीं किया। फिर उन्हें क्यों सफाई का काम दिया गया? नेपाल न तो मुगलों के अधीन कभी रहा और ना ही कभी अंग्रेज ही वहां राज करने गए। एक खास तरह के विचारों के लिए लोगों को तैयार करने की जैसी योजना होती है और वह स्रोत यही पाठकों, दर्शकों व श्रोताओं से उम्मीद करती है कि उन्हें जो और जितना बताया जा रहा है, वे उतना ही समझें।
बदल जाती है धारणा
सामग्री के स्रोतों के बारे में इस तरह की अनुभूति लंबे अनुभव की देन होती है। मैं कई विषयों पर जिस तरह से पहले सोचा करता था वह आज उस रूप में नहीं है। बानगी के तौर पर कश्मीर के बारे में मैं उतना ही जानता था जितना हिन्दी का बहुसंख्यक पाठक जानता है। क्योंकि कश्मीर को जानने के स्रोत कभी नहीं बदले। खास तरह की राजनैतिक-सांस्कृतिक सामग्री मिलती रही। इसीलिए कश्मीर के बारे में एक “साम्प्रदायिक दृष्टिकोण” ही बना रहा। लेकिन जानने के माध्यम बदलने के साथ कश्मीर को लेकर नजरिया बदलता गया। देश के गणतांत्रिक ढांचे के अनुरूप बनने लगा। इनमे एक माध्यम कश्मीर में ‘कल्चरल फ्रंट’ को लेकर शोध की जिम्मेदारी थी। 1947 के अक्टूबर महीने में पाकिस्तानी काबिलाईयों के अचानक हमले के समय कश्मीरियत की हिफाजत करने के लिए संस्कृतिकर्मियों ने इसे बनाया था। किसी धर्म से कोई भाषा जुड़ी हैं, इसे भी उस दौर के कश्मीर ने झूठा साबित किया। रचनाकारों ने उर्दू में लिखना छोड़ कश्मीरी में लिखना शुरू कर दिया। कश्मीर की वास्तविकता बताने वाला हिन्दी में दूसरा बड़ा स्रोत समाजवादी लेखक अशोक सेकसरिया के एक लंबे लेख‘एक सुनहरे सपने का दुखान्त’ के रूप में जब मिला तो यह सवाल पैदा हुआ कि कहीं हिन्दी को जान बूझकर कश्मीर के ऐतहासिक ब्यौरे से तो दूर नहीं रखा गया है? उन्होंने इस तरह के एतिहासिक तथ्य का उल्लेख किया है कि कश्मीर में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच शादियां होती थी। दर, भट्ट, श्रृषि, कौल तथा ऐसी ही अन्य कश्मीरी उपाधियों से यह निश्चित रूप से नहीं जाना जा सकता है कि व्यक्ति मुसलमान है या हिन्दू है। फिर कश्मीर को जानने का तीसरा स्रोत खुद वहां जाना था। वहां देखा कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराए जाने की खबर स्थानीय समाचार पत्रों में किसी छोटी – मोटी दुर्धटना की तरह अंदर के पन्नों में छपी थी। इसी तरह राजीव मित्तल और उर्मिलेश ने उल्लेख किया है कि चौदहवीं सदी में एक लद्दाखी आदिवासी सरदार के बेटे रिनछिन द्वारा जोजिला पारकर कश्मीर की सत्ता पर कब्जा जमा लिया गया। वह बौद्ध था लेकिन वादी के माहौल से प्रभावित होकर शिवभक्त बनना चाहता था। लेकिन कश्मीर के पंडितों ने रिनछिन की जात- बिरादरी को उच्चवर्णीय न पाकर उसके हिन्दू धर्म में प्रवेश पर रोक लगा दी। हिन्दू पंडितों से निराश होकर रिनछिन ने मुसलमानों की शरण ली थी। वहां उससे उसके वर्ण के बारे में पूछने वाला कोई नहीं था। यहीं से मुस्लिम सत्ता कश्मीर में अस्तित्व में आई। यह एक सिरे से कश्मीर को देखने के नजरिये को ही बदल देता है। गणतांत्रिक व्यवस्था में कश्मीर के संदर्भ में स्वाययता की बात के अलावा बाकी सारी बातें मुख्यधारा कहलाने लगी है। दरअसल यह कश्मीर की वास्तविकताओं को बताने वाली सामग्री के नितांत अभाव के कारण है। यह मणिपुर के बारे में भी कहा जा सकता है। यानी गणतंत्र में स्वायतता का प्रश्न ही अब अलगाववाद के पर्याय के रूप में पेश कर दिया जाता है।इसमें इस तरह की सामग्री के बूते किसी विषय के बारे में पूर्ण होने के दंभ की भी भूमिका होती है।सामग्री को ग्रहण करने के खतरे भी होते है इसे समझना जरूरी है।
फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2015 अंक में प्रकाशित