h n

कबीर की जाति क्या थी?

कबीर की कविता बताती है कि उत्पीडि़त दलित समाज की कविता कोई गैर-दलित भी रच सकता है। दलित-विमर्श का यह सिद्धांत कबीर के चैखट पर टूट जाता है कि दलित साहित्य केवल दलित ही रच सकता है

Kabir_LRदलित-विमर्श ने कबीर को अपना प्रतीक बनाया है। कबीर की कविता दलित-विमर्श के सिद्धांतकारों और चिंतकों को राह दिखाने वाली मालूम पड़ती है। उन्होंने कबीर-साहित्य की पुनव्र्याख्या की है तथा पुरानी व्याख्याओं की अनेक महत्त्वपूर्ण मान्यताओं, स्थापनाओं को ख़ारिज भी किया है। उनसे जुड़ी हिंदू और मुस्लिम मान्यताओं को अस्वीकार करके कबीर को दलित-धर्म से जोडऩे के प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं। कुल मिलाकर, दलित-विमर्श ने कबीर को निर्विरोध रूप से अपना कवि बताया है।

दलित-विमर्श की अनिवार्य शर्त बन चुकी है कि दलित-साहित्य का लेखक केवल दलित ही हो सकता है। गैर-दलित लेखक ‘सहानुभूति’का साहित्य रच सकता है, जो असली दलित-साहित्य नहीं है। पुरानी शब्दावली में इसे दलित-साहित्य का ‘आभास’कह सकते हैं; ‘रसाभास’की तरह। दलित-साहित्य को रचने के ‘अधिकारी भेद’के दावे लगातार पेश किए जाते रहे हैं। दलित, शूद्र, अन्त्यज आदि शब्दों की व्याख्या में गए बिना इतना तो कहा ही जा सकता है कि ‘दलित’शब्द का जो अर्थ आज स्वीकार्य है, उसे सरकारी भाषा में ‘अनुसूचित जाति’कहते हैं। ‘अनुसूचित जनजाति’के लिए ‘आदिवासी’शब्द दोनों के अंतर को स्पष्ट करने में ज़्यादा सक्षम है। आज ‘आदिवासी साहित्य’भी अपनी स्वतंत्र पहचान बना रहा है। बहरहाल, यहाँ केवल इतना स्पष्ट करना उद्देश्य है कि दलित-साहित्य के लेखक-चिंतक अनुसूचित जातियों में जन्मे व्यक्ति को ही इस साहित्य को रचने का अधिकारी मानते हैं। एक उद्धरण ध्यान देने योग्य है, जो दलितों के एक संगठन की तरफ से प्रो. नामवर सिंह को संबोधित है, ”आप अपनी सामन्ती सोच से उबर नहीं पाए। वास्तव में दलित गर्भ से जन्म लेने पर ही दलितों का दर्द महसूस किया जा सकता है। दलित एवं महिला लेखन पर भी आपकी सोच संकीर्णता से ग्रस्त है। यह सही है कि दलित एवं महिला संदर्भों पर कोई भी लेखन कर सकता है, किन्तु जो अनुभूति दलित और महिला संदर्भों पर दलित एवं महिला कर सकती है, उस भावना की तो आप सिर्फ कल्पना कर सकते हैं। उस दर्द को चूँकि आपने जिया नहीं है, इसलिए उक्त लेखन आपसे उस स्वरूप में नहीं हो सकता।’’ (भारतरत्न बोधिसत्व बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर महासभा, लखनऊ, द्वारा दिनांक 9 अक्टूबर 2011 को प्रो. नामवर सिंह के आरक्षण विरोधी बयान के विरोध में दिया गया ज्ञापन। स्रोत- बहुरि नहिं आवना, संयुक्तांक: अक्टूबर 2011-मार्च, 2012, पृ0 26)

इसी संयुक्तांक में ‘शुक्रवार’पत्रिका के हवाले से उद्धृत किया गया है, ”हिन्दी के प्रख्यात मार्क्सवादी आलोचक डा. नामवर सिंह ने ‘शुक्रवार’ पत्रिका में अपने बयान से उठे विवादों पर सफाई देते हुए कहा है कि साहित्य में किसी तरह का आरक्षण नहीं होना चाहिए लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि वह दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण के विरोधी हैं।’’

ज़ाहिर-सी बात है कि यहाँ दलितों का मतलब अनुसूचित जाति है, जिसे हिंदू वर्ण व्यवस्था द्वारा प्रदत्त अश्पृश्यता की अंतहीन पीड़ा झेलनी पड़ी है।

गैरदलित कबीर और दलित-लेखन

बहरहाल, अब सीधा प्रश्न है कि क्या कबीर दलित थे? क्या वे अनूसूचित जाति के थे? सीधा उत्तर है कि कबीर दलित नहीं थे। कबीर अनुसूचित जाति के नहीं थे। दलित जातियों का संबंध अस्पृश्यता से रहा है। पिछड़ी जातियाँ अस्पृश्य नहीं रही हैं।

कबीर ने स्वयं को कहीं भी ‘अछूत’नहीं कहा है। यदि कबीर में ब्राह्मण रक्त था तब भी, यदि वे जुलाहा परिवार में जन्मे थे तब भी- वे अछूत नहीं थे। जुलाहा होने का मतलब है- ‘मुसलमान’होना। इस्लाम में अस्पृश्यता की अवधारणा है ही नहीं, इसलिए मुस्लिम समाज में कबीर ‘अछूत’हो ही नहीं सकते थे। ‘जुलाहा’होने के कारण यदि हिंदू समाज कबीर को अच्छी निगाह से नहीं देखता हो, उनके साथ छूआछूत का बर्ताव करता हो; तो यहाँ साफ समझना चाहिए कि छूआछूत का बर्ताव तो हिन्दू समाज प्रत्येक मुसलमान के साथ करता था, चाहे वह सैयद, शेख, पठान ही क्यों न हो। उसकी निगाह में प्रत्येक मुसलमान ‘म्लेच्छ’था तथा छूआछूत के दायरे में आता था।

यहाँ महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कबीर को हम किस जाति में जनमा मानते हैं? कबीर स्वयं को किस जाति का बताते हैं? आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. धर्मवीर और प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तकों से कबीर की जाति के बारे में उपलब्ध तथ्यों को यहाँ रखा जा रहा है। कबीर को दलित या अछूत या अस्पृश्य बताने वाली व्याख्याएँ भी यहाँ रखी जा रही हैं। इन सबका उद्देश्य यह पता लगाना है कि कबीर की सामाजिक पृष्ठभूमि आखिर क्या थी?

हजारी प्रसाद द्विवेद्वी के कबीर

1186B_Hajari-Prasad-Dwedi
हजारी प्रसाद द्विवेदी

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर को नाथपंथी बताते हैं। कबीर की जाति के बारे में द्विवेदी जी स्पष्ट राय नहीं रखते हैं। उनका सारा फोकस इस बात पर है कि कबीर को मुसलमान न माना जाए। विधवा ब्राह्मणी की अवधारणा को वे खारिज नहीं करते तथा कबीर को मूल रूप से हिन्दू समाज का व्यक्ति बनाए रखना चाहते हैं। वे अपनी पुस्तक ‘कबीर’ (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 1993) की पहली पंक्ति लिखते हैं, ”कबीरदास का लालन-पालन जुलाहा परिवार में हुआ था’’, (पृ0-15) मतलब, कबीर का जन्म विधवा ब्राह्मणी से हुआ था! कबीर जन्मना हिन्दू थे, मुसलमान नहीं।

कबीर के समाज को भी द्विवेदी जी मुसलमान मानने के पक्ष में नहीं थे, ”जिन दिनों कबीरदास इस जुलाहे-जाति को अलंकृत कर रहे थे उन दिनों, ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति ने अभी एकाध पुश्त से ही मुसलमान धर्म ग्रहण किया था।’’ (वही, पृ0-17) द्विवेदीजी का अनुमान है कि कबीर का समाज सद्य:धर्मांतरित था। कोशिश यही है कि कबीर का संबंध इस्लाम से या मुसलमान बिरादरी से न जुडऩे पाए। इसके लिए साहित्य के इतिहासकार को रचनाकार की तरह इतिहास निरपेक्ष ललित कल्पना भले करनी पड़े कि ‘ऐसा जान पड़ता है’।

एक और उदाहरण, ”ऐसा जान पड़ता है कि यद्यपि कबीरदास के युग में जुलाहों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था पर साधारण जनता में तब भी कोरी नाम से परिचित थे।… प्रस्तुत लेखक यह नहीं मानता कि कोरियों का ही मुसलमान संस्करण जुलाहा है।… यह उल्लेख किया जा सकता है कि कबीरदास जहाँ अपने को बार-बार जुलाहा कहते हैं, वहाँ कभी-कभी अपने को कोरी भी कह गए हैं।’’ (वही, पृ0-18)

‘ऐसा जान पड़ता है’की शैली में तथ्य खोजना मुश्किल काम है। द्विवेदीजी के इस छोटे-से उद्धरण में कई तरह की बातें एक साथ आई हैं, जिनमें से कबीर की जाति का पता लगाना टेढ़ा काम है। कबीर अपनी जाति ‘जुलाहा’ (कभी-कभी ‘कोरी’) बताते हैं तो द्विवेदीजी नहीं मानते ‘कि कोरियों का ही मुसलमान संस्करण जुलाहा है’। कोरी और जुलाहा को वे अलग-अलग मानते हैं। अप्रत्यक्षत: वे कह रहे हैं कि कोरी हिन्दू है और जुलाहा मुसलमान। प्रत्यक्षत: यह कह रहे हैं कि ‘कबीरदास के युग में जुलाहों ने मुसलमानी धर्म ग्रहण कर लिया था’मतलब ‘गैर-मुसलमान जुलाहा समाज’कबीर को पृष्ठभूमि के तौर पर मिला था। यह ‘गैर-मुसलमान जुलाहा समाज’कबीर के समय मुसलमान हो गया था, द्विवेदीजी को ‘ऐसा जान पड़ता है’।

द्विवेदीजी इस ‘गैर मुसलमान जुलाहा समाज’को ‘नाथ मतावलंबी गृहस्थ योगियों’की जाति से जोड़ते हैं, ”कई बातें ऐसी हैं, जो यह सोचने को प्रवृत्त करती हैं कि कबीरदास जिस जुलाहा-वंश में पालित हुए थे वह इसी प्रकार के नाथ-मतावलंबी गृहस्थ योगियों का मुसलमानी रूप था।’’ (पृ0 21) द्विवेदीजी कबीर की धार्मिक पहचान को नाथपंथ से जोडऩे पर ज़ोर देते हैं। कबीर को वे मुसलमान होने की धार्मिक पहचान से बचाना चाहते हैं। द्विवेदीजी लिखते हैं, ”सबसे पहले लगने वाली बात यह है कि कबीरदास ने अपने को जुलाहा तो कई बार कहा है, पर मुसलमान एक बार भी नहीं कहा। वे बराबर अपने को ‘ना-हिन्दू ना-मुसलमान’कहते रहे।’’ (वही, पृ0 21) द्विवेदीजी का निष्कर्ष है कि कबीर स्वयं को ‘नाथ-मतावलंबी गृहस्थ योगी’मानते थे यद्यपि कबीर ने ऐसा कहीं कहा नहीं हैं। वे अपनी पहचान ‘जुलाहा’के रूप में बताना चाहते हैं। धर्म और जाति से व्यक्ति की सामाजिक पहचान निर्धारित होती है। कबीर अपनी सामाजिक पहचान ‘जुलाहा’के रूप में स्वीकार करते हैं। द्विवेदीजी ‘जुलाहा’को गौण करके तीसरे धर्म से कबीर का नाता जोडऩे पर ज़ोर देते हैं।

नाथ-पंथ से कबीर का संबंध जोडऩे की कोशिश के बावजूद द्विवेदी जी धर्मांतरण की बात बीच-बीच में करते हैं। यह नया धर्म इस्लाम है तथा इन सद्य:धर्मांतरित जातियों के बारे में द्विवेदीजी का एक निष्कर्ष यह भी है, ”आसपास के बृहत्तर हिंदू-समाज की दृष्टि में ये नीच और अस्पृश्य थे।’’ (वही, पृ. 24) इसी पुस्तक का सुप्रसिद्ध टुकड़ा है कि कबीर ‘जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय’ (पृ0 134) थे।

द्विवेदीजी के ‘अस्पृश्य’का अर्थ क्या होना चाहिए? ‘अस्पृश्य’का अर्थ ‘अनुसूचित जाति’में जन्मा व्यक्ति यहाँ हो सकता है क्या?केवल हिन्दू धर्म में ‘अस्पृश्यता’को सैद्धांतिक रूप से स्वीकार किया गया है। इस्लाम ‘अस्पृश्यता’को सैद्धांतिक रूप में नहीं मानता, उसकी कोई भी जाति अस्पृश्य नहीं मानी जाती। आज ‘आजीवक धर्म’की अवधारणा दी जा रही है तथा ज़ोर दिया जा रहा है कि दलित जातियाँ हिन्दू नहीं हैं। किंतु ‘अस्पृश्यता’की अवधारणा हिन्दू धर्म में जिन जातियों से जोड़ी गयी थी, उन जातियों को हिंदू माना गया था। द्विवेदीजी कबीर की जाति के प्रश्न को उलझा देते हैं। वे कबीर को जन्मना जुलाहा नहीं मानते, केवल पालित मानते हैं। इस रहस्य का अनावरण किए बिना कि वे जन्मना किस जाति के थे, द्विवेदी जी कबीर के बारे में स्पष्ट लिखते हैं- ‘जन्म से अस्पृश्य’। जब जन्म का ठीक-ठीक पता नहीं, तब उन्हें ‘जन्म से अस्पृश्य’कैसे कहा जा सकता है। यदि उन्हें जुलाहा माना जाए, तो बात साफ है कि जुलाहा ‘अस्पृश्य’या अनुसूचित जाति नहीं है, वह पिछड़ी जाति है। पिछड़ी जाति का विस्तार मुस्लिम समाज तक है। अनुसूचित जाति का विस्तार केवल हिन्दू समाज तक है। दलित-विमर्श का कोई भी लेखक-चिंतक मुसलमान नहीं है।

डॉ. धर्मवीर की नजर में

डॉ. धर्मवीर ने कबीर को दलित-चिंतन का प्रमुख आधार बनाया। डॉ. धर्मवीर के इस प्रयास का मूल्यांकन करते हुए श्री सूरजपाल चैहान ने लिखा है, ”हिन्दी साहित्य में उन्होंने कबीर को लेकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि अब कबीर के बारे में किसी और लेखक को पढऩे से पहले उन्हें पढऩा ज़रूरी हो गया है। वह कबीर को ब्राह्मणवादी खेमे से ऐसे निकाल कर लाए हैं कि गैर-दलित साहित्यकार देखते ही रह गए हैं।…. ”डॉ. धर्मवीर सही कहते हैं कि दलित चिंतन का सही दार्शनिक आधार कबीर की इकतारे पर गाई वह साखी है- ‘उत ते कोई न आया, जासों पूछिए धाय’।… ”डॉ. धर्मवीर के शब्दों में- ”हम बाबा साहेब को बुद्ध से मुक्त कर लेंगे, वह हमें बहुत प्रिय हैं और हम उन्हें कबीर के घर में वापस ले आएँगे।’’ (बहुरि नहिं आवना, संयुक्तांक: अक्टूबर, 2011-मार्च 2012, पृ0 39.40)

डॉ. धर्मवीर ने कबीर के आलोचकों से अपनी असहमतियाँ जताई हैं। कबीर के मूल्यांकन के लिए दलित-विमर्श की कसौटी को जोरदार तरीके से धारदार बनानेवाले डॉ. धर्मवीर हरिऔधजी के बारे में लिखते हैं, ”उन्हें कम से कम यह सोचकर ठिठक जाना चाहिए था कि वे कबीर के सामने उस हिन्दू धर्म की प्रशंसा कर रहे हैं जिसने कबीर को अछूत के रूप में पैदा किया था। वास्तव में यदि कबीर हिन्दू धर्म के किसी रूप में ऋणी हैं तो जाति जुलाहे के रूप में ऋणी हैं, जिसके कारण रामानन्द ने उन्हें अपना शिष्य नहीं बनाया था। यदि कबीर जीवन भर किसी से लड़े हैं तो हिन्दू धर्म की देन इसी अस्पृश्यता के दैत्य से लड़े हैं। ऐसी स्थिति में भी यदि हरिऔधजी कबीर को हिन्दू कहते हैं तो वह बात जानबूझ कर बरगलाने वाली लगती है।’’(कबीर के आलोचक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1997, पृ0 29)

डॉ. धर्मवीर कबीर को ‘अछूत’भी बता रहे हैं और ‘जुलाहा’भी। दोनों बातें एक साथ नहीं हो सकतीं। डॉ0 धर्मवीर का ज़्यादा ज़ोर ‘जुलाहा’पर है, ”जुलाहा जाति में जन्म लेने के कारण कबीर को यह सामाजिक अनुमति प्राप्त नहीं थी कि वे काशी के द्विज मन्दिरों में चढ़ सकते थे।’’ (वही, पृ0 47) कबीर को जब ‘जुलाहा’  (धर्म-इस्लाम) मान ही लिया, तब मन्दिर की अपेक्षा क्यों?

डॉ. धर्मवीर कबीर को ‘दलितों का सन्त’मानते हैं, ”जो कबीर के साथ विद्वत समाज द्वारा आज हुआ है, वह एक परम्परा है और दलितों के अन्य सन्तों के साथ भी यही हुआ है।’’ (वही, प0 86) ‘दलितों का सन्त’होने के लिए कबीर की योग्यता के रूप में डॉ. धर्मवीर पहले ही बता चुके हैं कि वे ‘अछूत’थे! इसी बात को डॉ. धर्मवीर इस रूप में फिर कहते हैं, ”क्या कबीर जैसे व्यक्ति की समस्या, जिनका जन्म ब्राह्मणों द्वारा अस्पृश्य कही जाने वाली जुलाहे जाति में हुआ था,…’’ (वही, पृ0 91) अब आया ‘अस्पृश्य’शब्द। मतलब, कबीर को दलित मान लेना चाहिए। भले ही वे ‘जुलाहा’क्यों न हों। दलित होने के लिए कबीर को ‘जुलाहा’से मुक्त करना होगा! मगर डॉ. धर्मवीर कबीर को ‘जुलाहा’और ‘दलित’दोनों बताना चाहते हैं। ऊपर के उद्धरण में एक बात और ध्यान देने लायक है कि ब्राह्मणों ने जुलाहा जाति को अस्पृश्य कहने की जरूरत कहाँ महसूस की? ब्राह्मण के लिए तो जुलाहा विधर्मी था। जिस अर्थ में ब्राह्मण के लिए जुलाहा अस्पृश्य था, उस अर्थ में तो पूरा मुस्लिम समाज ब्राह्मण के लिए अस्पृश्य था। डॉ. धर्मवीर के कथन में अंतर्विरोध है।

डॉ. धर्मवीर कबीर को ‘जुलाहा’और ‘मुसलमान’भी मानते हैं। उनका ज़ोर इस बात पर है कि कबीर को किसी भी तरह से ‘हिन्दू’नहीं माना जा सकता, ”यदि वे (आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी) इतिहास की मदद से यह सिद्ध करते कि कबीर का जन्म मुसलमान घर में नहीं हुआ था तो उनकी बात सुनी जा सकती थी, लेकिन यहाँ डॉ. द्विवेदी की ब्राह्मणी जिद इस हद तक अड़ी हुई है कि इतिहास द्वारा यह सिद्ध हो जाने पर भी कि कबीर का जन्म मुसलमान घर में हुआ था, वे कबीर को मुसलमान नहीं मान रहे हैं।’’ (कबीर: नई सदी में-दो-वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ. 86)

मतलब, यह हुआ कि डॉ. धर्मवीर कबीर को जन्मना मुसलमान मानने के पक्ष में हैं। इस तरह, वे कबीर को ‘जुलाहा जाति में जन्मा दलित मुसलमान’मान रहे हैं। उनके एक और उद्धरण के बाद कबीर की जाति की सामाजिक भूमि को ढँूढऩा और मुश्किल हो जाएगा, ”लेकिन यहाँ लगे हाथ एक अगला प्रश्न यह भी पूछ लेना चाहिए कि क्या तब कबीर हिन्दू थे। मेरा उत्तर है-”वे अपने विश्वास में भी हिन्दू नहीं थे। सच बात यह है कि कबीर किसी भी तरह के हिन्दू नहीं थे।’’ (वही, पृ0 86-87) अब कबीर की जाति बनी ‘जुलाहा जाति में जन्मा गैर-हिन्दू दलित मुसलमान’। इन सबसे कबीर के सामाजिक आधार को सुलझाना मुश्किल हो जाता है। और अंत में, एक और पहेली’’, यह सच है कि कबीर न हिन्दू थे और न मुसलमान थे,… कबीर का धर्म हिन्दू धर्म और मुसलमान धर्म से सर्वथा अलग धर्म है। यह दलित धर्म है।’’ (कबीर: नई सदी में- तीन, डॉ. धर्मवीर, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2000, पृ0 07)

kabir-weaverअर्थात्, कबीर न हिन्दू थे, न मुसलमान थे, न जुलाहा थे, उनकी पहचान यह थी कि वे दलित थे और दलित धर्म को मानते थे। फिर वही प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि क्या कबीर की जाति की उपेक्षा कर उनकी सामाजिक भूमि को पहचाना जा सकता है? जब यह तथ्य है कि कबीर की जाति ‘जुलाहा’थी और जुलाहा जाति का संबंध इस्लाम से है, तब कबीर को ‘दलित’, ‘अस्पृश्य’, ‘अछूत’आदि शब्दों से मुक्त कर देना चाहिए। इन शब्दों का संबंध केवल अनुसूचित जातियों से है, और इन जातियों का संबंध इस्लाम से नहीं है।

ब्राह़मणवादी नुस्खों से बचे दलित विमर्श दलित समाज कबीर को अपना धर्मगुरु मानता है। यह दलित समाज का अपना निर्णय है। कबीर की कविता यदि उन्हें मुक्तिकामी लगती है, तो वह उनकी ‘स्वानुभूति’का अधिकार है। अनेक गैर-दलित संतों-कवियों ने पीडि़त समाज को राह दिखाई है। यदि दलित-विमर्श गैर-दलितों को भी अपने लिए प्रेरणादायक मानता है तो यह अच्छी बात है। मगर, विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताकर कबीर को जैसे पहले हथियाने की कोशिश की गयी है, उसी तरह कबीर को दलित, अछूत और अस्पृश्य बताकर उनकी वास्तिवक सामाजिक पहचान को नष्ट किया जा रहा है। कबीर न तो ब्राह्मण थे और न ही दलित- वे जुलाहा थे- पिछड़ी जाति के मुसलमान। आज भी जुलाहा जाति पिछड़ी जाति के मुसलमान के रूप में अपनी सामाजिक पहचान रखती है। कबीर मानते थे कि उनकी असली पहचान उनकी जुलाहा जाति है। मुस्लिम समाज में जो जाति-भेद है, उस पदक्रम में जो जितना नीचे है; धर्म में उसकी दखल उतनी ही कम होगी। कबीर ने धर्म या धर्मों के बारे में क्या कहा, धर्मग्रंथों के बारे में क्या कहा, ईश्वर और भक्ति के बारे में क्या कहा- इन पर बहुत कुछ कहा गया है। इन सब पर बात करना यहाँ उद्देश्य नहीं है। यहाँ केवल यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि कबीर दलित नहीं थे। दलित-विमर्श कबीर के बारे में बात करते हुए ध्यान रखे कि कबीर दलित नहीं थे। कबीर को दलित माने बिना भी कबीर की प्रशंसा की जा सकती है। उनकी महत्ता का आधार उनकी कविता है, कविता को रचने वाली सामाजिक दृष्टि है; जो कई तरह के अन्यायों के खिलाफ खड़ी है। कबीर की कविता में दलित-विमर्श को अपने लिए काम की बातें दिखती हैं तो यह ज़रूरी नहीं है कि उन्हें प्रयासपूर्वक दलित बताया जाए।

कबीर की कविता बताती है कि उत्पीडि़त दलित समाज की कविता कोई गैर-दलित भी रच सकता है। दलित-विमर्श का यह सिद्धांत कबीर के चैखट पर टूट जाता है कि दलित साहित्य केवल दलित ही रच सकता है।

कबीर की ‘जाति’बताती है कि दलित-विमर्श को ब्राह्मणवादी नुस्खों से बचना चाहिए। ब्राह्मणवाद अपने जातिवादी वर्चस्व को बनाए रखने के प्रयास में अनेक सिद्धान्त और कर्मकाण्ड रचता है, जिनका उद्देश्य होता है- अपने जातिवादी वर्चस्व को बनाए रखना। दलित-विमर्श भी ‘पीड़ा’के नाम पर जातिवादी वर्चस्व को बनाए रखना चाहता है। वह चाहता है कि योद्धा के रूप में केवल उसी की जाति की पहचान बने। दूसरों के योगदान को वह उलझाने में लगा हुआ है। दलित-विमर्श ने जिन मुद्दों को उठाया है, उनमें से जो प्राथमिक मुद्दे थे, उनकी लड़ाई सदियों से चली आती रही है। ब्राह्मणवाद अथवा ऊंची जातियों के वर्चस्व के खिलाफ लड़ी गयी लड़ाइयों में 85 प्रतिशत जनता ने अपनी सहभागिता दी थी। माननीय कांशीराम भी 85 प्रतिशत की बात करते थे। ब्राह्मण, ठाकुर और ऊँची जाति के बनियों को छोड़कर 85 प्रतिशत आबादी को वे ‘बहुजन समाज’कहते थे। वह दलितों, पिछड़ों एवं अल्पसंख्यकों को लेकर इस संघर्ष में उतरे थे। बिहार के श्री जगदेव प्रसाद का नारा था कि ‘सौ मे नब्बे शोषित हैं, नब्बे भाग हमारा है’।

आशय यह कि धर्म, जाति और सत्ता की इस लड़ाई में दलित कभी अकेले नहीं लड़े। मगर दलित-विमर्श और सत्ता-विमर्श के मुकाम पर उन्हें जातिवादी वर्चस्व की धुन लग गयी है। चिंता यह है कि दलित-विमर्श भारत के सामाजिक परिवर्तन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है, परंतु संघर्ष के इतिहास को भूलकर यह विमर्श, ब्राह्मणवादियों की तरह, जातिवादी वर्चस्व के रास्ते पर चलने की जि़द पकड़े हुए है।

पुरुषोत्तम अग्रवाल का मत

dr-aggarwal
पुरुषोत्तम अग्रवाल

प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की: कबीर की कविता और उनका समय’ (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2009 ) कबीर पर अद्यतन पुस्तक है। उन्होंने कबीर की जाति ‘जुलाहा’को अनेक नए प्रमाणों से प्रमाणित किया है।

इस पुस्तक के तीसरे अध्याय ‘कासी बसै जुलाहा एक’में अनेक पंक्तियाँ और प्रमाण है कि कबीर जन्म से जुलाहा – मुसलमान थे। उनके घर और समाज में मुस्लिम रीति-रिवाज़, त्यौहार आदि मनाए जाते थे। हालाँकि कबीर की व्यक्तिगत पसंद, मान्यता और रुचि इन सबसे भिन्न थी। कबीर के समकालीनों ने उन्हें जुलाहा ही कहा है। कबीर के गुरुभाई ‘पीपा’के अनुसार ‘कबीर के पिता के घर में ईद-बकरीद मनती थी, गोवध होता था’। धन्ना भी कबीर को ‘जोलाहरा’बताते हैं। अबुल फज़़ल के ‘आईन-ए-अकबरी’में कबीर को ‘मुवाहिद’ (एकेश्वरवादी) बताया गया है। तुकाराम ने कबीर को मोमिन (‘विणकर’या जुलाहा) बताया है। प्रो0 पुरुषोत्तम अग्रवाल अनेक स्रोतों से प्रमाण देते हैं कि कबीर जुलाहा थे और उनका परिवार मुसलमान था। उन्होंने उन संदर्भों की समीक्षा की है कि किन-किन कारणों से कबीर की जाति के बारे में भ्रम पैदा किए गए।

प्रो. अग्रवाल कबीर के लिए ‘अछूत’या ‘अस्पृश्य’या ‘दलित’शब्द का प्रयोग नहीं करते। जैसा कि मैंने भी आरंभ में ही कहा कि कबीर की कविता में भी ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता, जहाँ उन्होंने स्वयं को ‘अछूत’या ‘अस्पृश्य’कहा हो। कबीर के समकालीन तथा बाद के संतों-भक्तों ने भी कबीर को ‘अछूत’या ‘अस्पृश्य’नहीं कहा है। हिंदी आलोचना में कबीर के लिए यह शब्द सर्वाधिक प्रचलित हुआ आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के कारण, ‘जन्म से अस्पृश्य, कर्म से वंदनीय’। डॉ0 धर्मवीर ने तो बाकायदा कबीर को ‘अछूत’, ‘अस्पृश्य’, ‘दलित’शब्द से जोड़ा और उन्हें दलित-विमर्श का एक प्रतीक बना  दिया। हिंदी की माक्र्सवादी आलोचना कबीर को क्रांतिकारी सिद्ध करने के क्रम में यही ध्वनित करती रही कि कबीर दलित थे, अछूत थे। दलित-विमर्श के हस्तक्षेप के बाद कबीर के प्रति माक्र्सवादी आलोचना का क्रांतिकारी तेवर ठंडा पड़ गया।

बहरहाल, कबीर को पिछड़ी जाति का बताने के पीछे ऐसी कोई मंशा नहीं है कि कबीर की कविता का मूल्यांकन एकदम बदल दिया जाए। मगर इतना तो करना ही पड़ेगा कि कबीर को दलित मानकर जो आलोचनाएँ लिखी गयी हैं, उन्हें ख़ारिज करना पड़ेगा। कबीर की कविता यदि दलित-विमर्श के अनुकूल है तो अच्छी बात है, मगर उन्हें दलित मान लेने के कारण यदि यह अनुकूलता बनायी गयी है, तो इसे संशोधित करने की ज़रूरत है।

 (फारवर्ड प्रेस, बहुजन साहित्य वार्षिक, मई,  2014 अंक में प्रकाशित )

(बहुजन साहित्य से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें ‘फॉरवर्ड प्रेस बुक्स’ की किताब ‘बहुजन साहित्य की प्रस्तावना’ (हिंदी संस्करण) अमेजन से घर बैठे मंगवाएं . http://www.amazon.in/dp/8193258428 किताब का अंग्रेजी संस्करण भी शीघ्र ही उपलब्ध होगा)

लेखक के बारे में

कमलेश वर्मा

राजकीय महिला महाविद्यालय, सेवापुरी, वाराणसी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष कमलेश वर्मा अपनी प्रखर आलोचना पद्धति के कारण हाल के वर्षों में चर्चित रहे हैं। 'काव्य भाषा और नागार्जुन की कविता' तथा 'जाति के प्रश्न पर कबीर' उनकी चर्चित पुस्तकें हैं

संबंधित आलेख

फुले, पेरियार और आंबेडकर की राह पर सहजीवन का प्रारंभोत्सव
राजस्थान के भीलवाड़ा जिले के सुदूर सिडियास गांव में हुए इस आयोजन में न तो धन का प्रदर्शन किया गया और न ही धन...
व्याख्यान  : समतावाद है दलित साहित्य का सामाजिक-सांस्कृतिक आधार 
जो भी दलित साहित्य का विद्यार्थी या अध्येता है, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे बगैर नहीं रहेगा कि ये तीनों चीजें श्रम, स्वप्न और...
‘चपिया’ : मगही में स्त्री-विमर्श का बहुजन आख्यान (पहला भाग)
कवि गोपाल प्रसाद मतिया के हवाले से कहते हैं कि इंद्र और तमाम हिंदू देवी-देवता सामंतों के तलवार हैं, जिनसे ऊंची जातियों के लोग...
भारतीय ‘राष्ट्रवाद’ की गत
आज हिंदुत्व के अर्थ हैं– शुद्ध नस्ल का एक ऐसा दंगाई-हिंदू, जो सावरकर और गोडसे के पदचिह्नों को और भी गहराई दे सके और...
जेएनयू और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के बीच का फर्क
जेएनयू की आबोहवा अलग थी। फिर इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में मेरा चयन असिस्टेंट प्रोफ़ेसर के पद पर हो गया। यहां अलग तरह की मिट्टी है...