अमूमन आंदोलन की पत्रिकाएं या स्वयं जन-आंदोलन भी उग्र रूप से शुरू होकर वर्तमान व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। लेकिन वह प्रहार तब बेमतलब हो जाता है जब वह कोई विकल्प देने में अक्षम हो। जनमानस पूछती है, इसको छोड़े तो अपनाएं क्या? मानवीय जीवन और समाज की कुछ अनिवार्य भौतिक और अभौतिक जरूरतें हैं, जिसे हर हाल में पूरा होना ही है। बुद्ध और रामस्वरूप वर्मा, दोनों ही इसपर जोर देते है कि ‘पहले जानो तब मानो’ इसलिए अच्छी तरह ठोक-ठाक कर मान लिया कि पूरी दुनिया ब्राह्मणवादी व्यवस्था से जकड़ी हुई है, लेकिन इस तथ्य को जानने के बाद हमें करना क्या है? इसका विकल्प देने या न देने या फिर होने या न होने की स्थिति आंदोलन की दिशा निर्धारित करती है या वह स्वयं दिशाविहीन हो जाती है। इससे ही आंदोलन की प्रासंगिकता/अप्रासंगिकता और उन्नति/अवनति निर्धारित होती है। हालांकि हर आंदोलन का अपना महत्त्व होता है फिर भी अपेक्षित सफलता का सवाल प्रासंगिक रहता ही है। सफलता/विफलता समाज के कई पहलुओं पर भी निर्भर होता है, जिसपर किसी भी आंदोलन का नियंत्रण नहीं हो सकता। इन्हीं आधारों पर फारवर्ड प्रेस का विश्लेषण करना चाहूँगा।
फॉरवर्ड प्रेस से मेरा पहला परिचय प्रेम कुमार मणि जी के लेख ‘किसकी पूजा कर रहें हैं बहुजन’(2011) से हुआ था। तब मैं ‘आल इंडिया बहुजन स्टूडेंट्स फोरम’ (एआईबीएसएफ) से जुड़ा था। हम लोगों ने निर्णय किया कि राजा महिषासुर की हत्या का जश्न बंद होना चाहिए और इसके विरोध में इस लेख को जेएनयू में चिपकाया जाए। हमने पंद्रह मिनट के अंदर पूरे जेएनयू में प्रेमकुमार मणि का लेख चिपकाना शुरू कर दिया। इसी वर्ष अक्टूबर में फॉरवर्ड प्रेस और एआईबीएसएफ द्वारा जेएनयू में महिषासुर विषय पर आयोजित सेमिनार में इसके संस्थापक आयवन कोस्का से फॉरवर्ड प्रेस के उद्देश्यों के बारे में सुना और इसकी सदस्यता ले ली। फारवर्ड प्रेस के संपादक प्रमोद रंजन भी जेएनयू में शोधार्थी थे। वे समाजिक न्याय के आंदोलन के साहित्यिक व सांस्कृतिक पक्ष पर काफी बल देते है।
बचपन से ही अर्जक संघ, वामपंथी साहित्यों और आंदोलनों से जुड़े होने; और ‘दिल्ली प्रेस’ द्वारा प्रकाशित सरिता-मुक्ता रीप्रिंट (2005, नौवां संस्करण), हरिमोहन झा का खट्टर काका (1948/2008) आदि पढ़ चुके होने के कारण इसे समझने और समर्थन करने में देर नहीं लगी। मानवतावाद के समर्थन और ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई में ‘दिल्ली प्रेस’ ने काफी योगदान दिया है। मेरे पास ब्राह्मणवाद पर कुठाराघात करते सरिता में प्रकाशित 1949 और उसके बाद के लेखों का संग्रह है, जिसे मैंने अर्जक संघ के बोकारो, झारखण्ड में स्टाल से खऱीदा था। डा. आंबेडकर की ‘रिडिल्स ऑफ़ हिंदूइज्म’ पहली बार अंग्रेजी में 1987 में प्रकाशित हुई थी।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 25, सबको आस्था की आजादी देता है। इसके तहत दुर्गा को देवी मानने वालों को आजादी है कि वे उसे अपनी देवी मानें। दूसरों को यह अधिकार है कि वे ऐसा न करें। संविधान के अनुच्छेद 25 और अन्य अनुच्छेदों में यह कहा गया है कि किसी भी प्रकार की आजादी, जिसमें धार्मिक मान्यताओं की आजादी शामिल है, ‘मानवता, नैतिकता और कानून व्यवस्था के अधीन है’। लेकिन इन मान्यताओं के संघर्ष में कानून व्यवस्था किसके संदर्भ से निर्धारित होगी? मेरा कहना है कि इसका निर्धारण मानवता और नैतिकता से होगा। मानवता और नैतिकता नहीं कहती कि हत्याओं का जश्न मनाया जाए। कानून व्यवस्था भी अंतत: मानवता और नैतिकता के लिए ही है।
न सिर्फ फॉरवर्ड प्रेस बल्कि मानवता, समानता और स्वतंत्रता का हर आंदोलन, वंचित वर्ग के अलावा ज्यादा द्विज/सवर्ण जातियों को ब्राह्मणवादी मानसिकता से आजाद करता है। यही काम फॉरवर्ड प्रेस ने अब तक किया है। चूँकि भारत में यह मानसिक परिवर्तन ऊपर से न होकर नीचे हुई हलचल से हुआ है, इसलिए इसे वंचित समाज के प्रतिरोध और एकजुटता की जीत माना जाता है। अर्थात ऊपर वालो में परिवर्तन स्वस्फूर्त या अंदर से न होकर दबाब, बेबसी और लाचारी में हुआ है। धरती के नीचे चाहे कितनी भी हलचल हो, इनको उतनी ही अधिक आजादी मिलेगी, जितना अधिक परिवर्तन द्विज/सवर्ण जातियों की ब्राह्मणवादी मानसिकता में आएगा और वे आजाद होंगी। फॉरवर्ड प्रेस ने यह कार्य बहुत संजीदगी और शिद्दत के साथ किया है। यह भी उतना सही है कि ब्राह्मणवादी मानसिकता ऊपर से रिस-रिस कर धरती के अंदर भी चली गई है। लेकिन इसे मान्यता ऊपर वालों से ही मिलती है।
फॉरवर्ड प्रेस ने उग्रता का पथ न अपनाकर समझदारी, संवाद, तर्क, तथ्य और वैश्विक मानवीयता का पथ चुना, जिसके प्रेरणास्रोत राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले, राष्ट्रपिता जोतिबा फुले और आधुनिक राष्ट्र के निर्माता बाबासाहेब डा. भीमराव आंबेडकर हैं। इन्हीं प्रेरणास्रोत ने फॉरवर्ड प्रेस को सबलता और सफलता दिलाई है।
मेरे पास जिसने भी पत्रिका देखी, जरुर पढ़ी। ले जाने वालो में से अधिकतर ने इसे कभी वापस नहीं किया। इस कारण कुछ लोगो से हमेशा के लिए दोस्ती ख़त्म हो गई या सिर्फ औपचारिक संबंध रह गए। मेरी किसी भी किताब पर यह नियम लागू होता है।
अब तक तीन यूनिवर्सिटियों में पढ़ा चुका हूँ। जहाँ भी रहा चैंबर में पढऩे के लिए कुछ किताबे जरुर ले जाता था। फॉरवर्ड प्रेस के विरोध में लोग सिर्फ इतना ही कह सके कि कौन लिखता है? अब हमें इन विवादों में न पड़ कर पूरे समाज के बारे में सोचना चाहिए।
कुछ लोगो ने इस पत्रिका को सिर्फ अंग्रेजी सुधारने के लिए खऱीदा था, लेकिन अंग्रेजी के साथ-साथ खुद भी सुधर गए। अंग्रेजी सुधार की इच्छा रखने वालों ने मुझे यही फीडबैक दिया है।
मुझे आश्चर्य तब हुआ, जब एक जर्मन प्रोफेसर उवे स्कोडा के रिसर्च स्कॉलर ने मुझसे संपर्क किया कि मैं महिषासुर के बारे में कुछ बताऊँ। पत्रिका समुद्र पार यूरोप और अमेरिका तक अपना प्रभाव डालती है।
मुझे साहित्य में कभी रूचि नहीं रही। मेरी मान्यता थी कि साहित्यकारों का काम कल्पना कर के लिखना है। कुछ भी कल्पना की और लिख दिया। ग्राहक होने के कारण फॉरवर्ड प्रेस की साहित्यिक वार्षिकी भी मिलती थी, लेकिन उसे कभी नहीं पढ़ा। एक बार मेरे शिक्षक प्रो. विवेक कुमार ने कहा कि समाज को समझने के लिए साहित्य को समझना जरुरी है। मैंने उनकी बात बेमन से सुन ली। उनके कहने पर कुछ किताबें जेएनयू लाइब्रेरी से और कुछ खरीद कर लाया। हॉस्टल आकर सोचा क्या यह सच है? फिर फॉरवर्ड प्रेस की साहित्यिक वार्षिकी खोजकर पढ़ा। आज मेरा मत है कि कोई भी व्यक्ति साहित्य को समझे बिना समाजविज्ञानी नहीं बन सकता है। मैं अपने स्टूडेंट्स से भी कहता हूँ कि वे साहित्य को समझने की कोशिश करें।
इस पत्रिका ने अपनी गुणवत्ता बनाए रखी है। इसकी कुछ रपटें और विमर्श काफी महत्वपूर्ण रहे हैं। राजा महिषासुर, लार्ड मैकाले, भगाना उत्पीडऩ सहित साहित्यिक विमर्श और त्रिवेणी संघ आदि के लेख मैंने अपने स्टूडेंट्स को पढऩे को दिए और उसकी समीक्षा करवाई। इस पत्रिका ने समाज में सोचने-समझने की धारा बदली है। फॉरवर्ड प्रेस ने भारतीय समाज के सनातन चिंतन परंपरा पर कुठाराघात कर नए चिंतन परंपरा की शुरुआत की है। जब प्रो. राजेंद्र प्रसाद सिंह फेसबुक पर (1 मई, 2016) लिखा, ‘सर के बल खड़े भारत के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास को पैरो के बल खड़ा करने वाले फॉरवर्ड प्रेस को शत शत नमन’ तो मुझे कार्ल मार्क्स (1818-1883) याद गए। मार्क्स ने 1834 में हीगल (1770-1831) की आलोचना करते हुए कहा था कि हीगल का सिद्धांत सर के बल खड़ा है, उसे पैरो के बल खड़ा करना जरुरी है, और मार्क्स ने ऐसा ही किया। पत्रिका के अक्टूबर 2014 अंक की प्रतियों को जब जब्त किया गया तब मैं भी चिंतित था लेकिन जब्ती एक सर्टिफिकेट भी थी कि पत्रिका ने कहीं-न-कहीं चोट तो जरुर की है। यह सर्टिफिकेट मेरे लिए प्रसन्नता और गर्व का कारण भी था।
द्विज/सवर्ण जातियों सहित ऊपर से रिस-रिस कर धरती पर उतर आए ब्राह्मणवादी मानसिकता से जनमानस को आजाद करने में इसने अपना सराहनीय योगदान दिया है। मुझे विश्वास है यह कारवां आगे भी चलता रहेगा। विकसित देशो में कई स्थापित अखबार प्रिंट एडिशन बंद कर इंटरनेट और मोबाइल एडिशन पर आ गए हैं, भारत भी उस ओर जा रहा है। अगर फॉरवर्ड प्रेस अपना मोबाइल एप भी लांच करे तो ज्यादा कारगर होगा। ‘कहाँ लिखा है दिखाओ?’ – भारत में यह प्रिंट की ताकत है। वेब एडिशन पर प्रिंट की तरह जगह की कमी नहीं रहती, ऐसे में फॉरवर्ड प्रेस को अपनी पहचान बरकरार रखने के लिए ज्यादा जूझना पड़ेगा। नहीं छपेगा कहना कठिन होगा लेकिन अंतत: गुणवत्ता और पहचान ही लोगो को आकर्षित करता है।
चलते-चलते यह कहना भी समीचीन ही होगा कि किसी जमाने में लोग लड़की की विदाई के वक्त कहते थे, ‘फलानी चुडि़हारिन (चूड़ी बेचने वाली) उस गांव तक भी जाती है, हाल-चाल भिजवाते रहना; चिट्ठी लिखते रहना; फलाने के घर फोन है, फोन कर देना, बुला देंगे, एसटीडी वाले को फोन कर देना बुलाने और बात करवाने का सिर्फ पांच-दस रूपया लेतें हैं।’ ऐसा लग रहा है मानो बेटी को विदा किया जा रहा है और नैहर वाले कह रहे हैं – बेटी तुमसे इंटरनेट पर संपर्क बना रहेगा। हर तीन महीने पर तुमसे मिलने (किताबें) भी आते रहेंगे। नम आँखों से ही सही, नई जिंदगी के लिए बधाई।
(फॉरवर्ड प्रेस के अंतिम प्रिंट संस्करण, जून, 2016 में प्रकाशित)