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महिषासुर आन्दोलन : सवर्ण राष्ट्रीयता को चुनौती

महिषासुर शाहदत दिवस के आयोजनों और उसके पक्ष –विपक्ष की बहसों/संघर्षों के विश्लेषण से अनिल कुमार भारत की कई राष्ट्रीयताओं और उनके बीच संघर्ष को समझाने की कोशिश कर रहे हैं

smriti-irani-mahishasurकेन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने 24 फ़रवरी, 2016 को लोक सभा और 25 फ़रवरी, 2016 को राज्य सभा में कहा था कि ‘‘महिषासुर शहादत/स्मृति दिवस मनाने वाले नीच मानसिकता’ के और देशद्रोही है।’’ इतना ही नहीं उन्होंने ललकारते हुए कहा था कि “किसी को हिम्मत है कि वह पश्चिम बंगाल के सड़को पर महिषासुर जयंती मनाये?” “है हिम्मत?” उन्होंने पुनः जोर दिया। जबकि सच्चाई यह है कि महिषासुर शहादत/स्मृति दिवस पहले से ही पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र, कर्णाटक अदि राज्यों में आदिवासियों और पिछडो द्वारा मनाया जाता रहा है।

अपनी राष्ट्रीयता, उनकी राष्ट्रीयता

मेरी दृष्टि में महिषासुर जयंती मनाने वालो को ‘नीच मानसिकता का’ और ‘देशद्रोही’ कहना निश्चित रूप से उचित नहीं था। लेकिन उनकी दृष्टि से इसे देशद्रोह भी कहा जा सकता है। हमने उनकी राष्ट्रीयता को चुनैती दी है, इस नाते उनके लिए यह देशद्रोह का मामला बनता है। बेनेडिक्ट एंडरसन (1936-2015) ने अपनी किताब ‘इमेजिंड कम्युनिटीज:रिफ्लेक्शंस ऑन द ऑरिजिन एंड स्प्रेड नेशनलिज्म’ (1982) अर्थात “समूह की कल्पना: राष्ट्रीयता के उदय और फैलाव का प्रतिबिम्ब) में कहतें हैं ‘राष्ट्र साथ होने का एक एहसास है, यह नागरिकता से अलग है’। भारत में समुदाय और राष्ट्र तो दूर की बात है, यहाँ के सभी समुदायों को अभी तक संविधान और कानूनों द्वारा प्रदत मौलिक अधिकारों तक को हासिल नहीं करने दिया गया है। उन्हें इन न्यूनतम वैधानिक अधिकारों से वंचित रखा गया है। इन्हें उन अधिकारों से भी वंचित रखा गया, जो भारत में विदेशी नागरिक को भी हासिल है। इस भेद-भाव का आधार कुछ और नहीं बल्कि अलग-अलग समूह, उसकी पहचान और राष्ट्रीयता ही है।

यह कोई अकारण नहीं है कि प्रो. अमिता सिंह, अध्यक्ष, “कानून और शासन अध्ययन केंद्र (विभाग)”, जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय (जेएनयू), कहती हैं कि ‘जेएनयू के कुछ अनुसूचित जाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और मुस्लिम फैकल्टी देशद्रोही हैं’ (देखें, इंडियन एक्सप्रेस और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ऑनलाइन एडिशन, मार्च 12, 2016)। स्मृति इरानी को नाचने-गाने वाली सीरियल की बहु कह कर ख़ारिज करने या हलके में लेने की जरुरत नहीं है। बौद्धिकता के उच्चतम पद, यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर होते हुए भाजपा समर्थक प्रो. अमिता सिंह, जेएनयू, नई दिल्ली भी तो यही कर / कह रही है।

https://www.youtube.com/watch?v=LgNRypU6bPk

भाजपा के दूसरे नेता और आसाम के गवर्नर पी. बी. आचार्य कहतें हैं “हिंदुस्तान हिन्दुओं के लिए है… मुसलमान पाकिस्तान और बांग्लादेशसहित किसी भी देश में जाने के लिए स्वतन्त्र हैं” (देखें, इंडियन एक्सप्रेस और एनडीटीवी, ऑनलाइन एडिशन, नवम्बर 22, 2015)। मुसलमानों को बात-बात पर पाकिस्तान जाने की बात कहना भाजपा के लिए कोई नई बात नहीं है। जब मैं स्कूल में था तभी लोग “भाजपा।” का पूरा नाम “भागो जोलहा (मुस्लिम) पाकिस्तान” कहतें थे।

भाजपा के तीसरे नेता यशवंत सिन्हा, जो भारतीय प्रसाशनिक सेवा के अधिकारी और केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं, झारखण्ड के चुनावी माहौल में पत्रकारों के एक स्वाभिक सवाल कि झारखण्ड का अगला मुख्यमंत्री कौन होगा के जबाब में कहा था – “कोई भी चुति.. मुख्यमंत्री बन सकता है (देखें https://youtu।be/SHtnCbt0fGE जुलाई 02, 2014)।” उनकी यह टिपण्णी इस तथ्य पर आधारित थी कि झारखण्ड की \ स्थापना (नवम्बर 15, 2000) से लेकर तबतक (2014) सिर्फ आदिवासी ही मुख्यमंत्री बने थे और पुनः किसी आदिवासी समुदाय से मुख्यमंत्री की मांग हो रही थी। इस सन्दर्भ में उनका कहना था कि “कोई भी चुति..”-अर्थात बेवकूफ, चाटुकार, नाकारा, अयोग्य, नासमझ, मूर्ख, अर्थात कोई भी आदिवासी मुख्यमंत्री बन सकता है। उनका मानना था कि आदिवासी मुख्यमंत्री “चुति..” अर्थात बेवकूफ, चाटुकार, नाकारा, अयोग्य, नासमझ, मुर्ख होतें हैं। अंततः 28 दिसम्बर, 2014 को झारखण्ड के पहले गैर-आदिवासी भाजपा नेता रघुबर दास ने मुख्यमंत्री की शपथ ली। (नोट : चुतिया एक संसाधन और शक्ति विहीन जनजाति का नाम है। वंचित समुदायों के नामपर अक्सर गालियाँ होती है। यहाँ भी यशवंत सिन्हा ने चुतिया शब्द गाली के रूप में प्रयोग किया है। लेखक चुतिया जनजाति का सम्मान करता है, और मानता है कि उनके नाम पर गाली मानवता के खिलाफ है। लेखक ने यहाँ इस शब्द का प्रयोग सिर्फ तथ्यों और संदर्भो के समुचित उल्लेख के लिए किया है)।

भाजपा नेता यशवंत सिन्हा की यह टिपण्णी एक व्यक्ति के रूप में किसी दूसरे विशेष व्यक्ति के खिलाफ नहीं थी। उनकी यह टिपण्णी आदिवासी राष्ट्रीयता के खिलाफ सवर्ण राष्ट्रीयता की टिपण्णी थी।

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आदिवासी समुदाय के लोग 8 अक्टूबर को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में महिषासुर को अपने पारम्परिक नृत्य से श्रद्धांजलि दे रहे हैं

सवर्ण राष्ट्रीयता की ऐतिहासिकता

सवर्ण राष्ट्रीयता यह मानकर चलती है कि शासन करना उसका जनमजात अधिकार है। बाल गंगाधर तिलक (1856-1920) ने भी यही कहा था – “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” – उनका यह “स्वराज्य” अपने (स्व) राज (राज्य) के बारे में था न कि भारतीयों के राज/राज्य के बारे में। उन्होंने इसे छुपाया भी नहीं बल्कि ताल ठोक कर, डंके की चोट पर कहा कि “क्या तेली संसद में तेल बेचेगा, क्या कुनबी (किसान) संसद में जाकर हल चलाएगा?” (सोलापुर, 1918)। प्रतिनिधि के रूप में सवर्ण राष्ट्रवादी बाल गंगाधर तिलक अपने लेख “हमारी शिक्षा प्रणाली: दोष और इलाज” में लिखतें हैं “(अंग्रेज) सरकार किसानो और वंचित समुदायों को शिक्षा देकर उनके पुस्तैनी पेशे के ज्ञान से वंचित कर रहे है। पढ़ लिखकर वह सरकारी नौकरी चाहता है, इस प्रकार आप उसके पुस्तैनी पेशे के ज्ञान से अलग कर पैसे की बर्बादी कर चुके हैं” (द मराठा, 15 मई, 1881)। तीस साल बाद मोहनदास करमचंद गाँधी (1969-1948) भी अपने “हिन्द स्वराज” (1909) में इस विचार का समर्थन करतें हैं। गाँधी जी हिन्द स्वराज के अध्याय XVIII “शिक्षा” में लिखतें हैं “किसान ईमानदारी से काम करता है। उसे दुनियादारी का ज्ञान है। उसे नैतिकता मालूम है और यह इसके व्यवहार में है। लेकिन वह अपना नाम नहीं लिख सकता है। आप उसे अक्षर का ज्ञान देकर क्या करेंगे? क्या आप (उसे अक्षर ज्ञान देकर) उसके खुशियों में एक इंच भी जोड़ पायेंगे” (पृष्ठ 76)? “हमारी पौराणिक शिक्षा व्यवस्था काफी है” (पृष्ठ 77)। “मैकाले ने, जो शिक्षा की बुनियाद डाली है, वह हमें गुलाम बना देगी” (पृष्ठ 78)। (देखें हिन्द स्वराज द्वारा मोहनदास करमचंद गाँधी, नवजीवन ट्रस्ट, गुजरात, 1938/2000)। गाँधी जी ने हिन्द स्वराज 1909 में लिखा था और उनकी हत्या 39 साल बाद हिन्दू चरमपंथियों ने नाथूराम गोडसे के नेतृत्व में 1948 में कर दी थी। इन 39 सालो में उन्होंने इस किताब की आलोचनाओ के जबाब में कई अवसरों पर कहा था – “मैं हिन्द स्वराज के एक भी शब्द बदलने को तैयार नहीं हूँ।”

भाजपा के वैचारिक और चुनावी सहयोगी ‘शिव सेना’ के सांसद संजय राउत कहतें है कि मुस्लिम समुदाय के वोट बैंक का इस्तेमाल उसके तुष्टिकरण के लिए किया जाता है, इससे उनका शोषण हो रहा है। और इस शोषण को रोकने/बंद करने के लिए मुस्लिम समुदाय से वोट देने का अधिकार छीन लेना चाहिए। अपने समर्थन में वे शिवसेना के संस्थापक बाला साहब ठाकरे के भी जिक्र करतें हैं कि उन्होंने भी कहा था कि मुस्लिमो से वोट देने के अधिकार छीन लेना चाहिए (देखें: अमेरिका की टाइम; भारत का इंडियन एक्सप्रेस; और द हिन्दू, ऑनलाइन एडिशन, अप्रैल 13, 2016)। लोकतंत्र में वोट/मत का अर्थ खुद का  प्रतिनिधित्व करना है। अपने मत/बात को प्रतिनिधित्व देना है। यह काम सिर्फ उसे ही करना है।

यह कोई अकारण नहीं है कि बिहार विधान सभा चुनाव के दौरान भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अमित शाह नितीश-लालू जोड़ी के बारे में कहतें हैं कि “अगर भाजपा बिहार विधान चुनाव हारती है तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे” (देखें: इंडियन एक्सप्रेस, ऑनलाइन एडिशन, अक्टूबर 29, 2015)। तो दूसरी ओर भाजपा नेता अश्विनी कुमार चौबे कहतें हैं कि नितीश-लालू को पाकिस्तान चले जाना चाहिए (देखें : एंडीटीवी, ऑनलाइन एडिशन, नवम्बर 4, 2015)। सन्देश साफ है, कि आपके “नापाक” इरादों के लिए भारत में कोई जगह नहीं है, यह आपका देश नहीं है, अर्थात आप इसके शासक नहीं हो सकते हैं, आपके लिए तो पाकिस्तान बना रखा है। सवर्ण समाज अपने से इतर समुदायों की राष्ट्रीयता को स्वीकार करने को तैयार नहीं है।

राष्ट्रवाद की छतीसगढ़ी पाठ

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(दाएं) मनीष कुंजाम

आदिवासियों के बारे में कोई समाचार, राष्ट्रीय समाचार तब बनता है जब कम-से-कम आधा दर्जन आदिवासी अपनी शहादत दे। कोई सोनी सोरी बनें। सीपीआई के चर्चित नेता और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम पर छत्तीसगढ की भाजपा सरकार ने सिर्फ इसलिए एफआईआर कर दिया कि वे महिषासुर की आदिवासी कथा का प्रचार कर रहे थे। इसके विरुद्ध में जब 26 सितम्बर 2016 को बस्तर जिला के सुकमा शहर को बंद करने का आह्वान किया तो इसके विरोध में सरकारी मिशनरी चिंताजनक रूप से सक्रिय हो गई। इटीवी को इंटरव्यू देते समय, बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी, लोकतान्त्रिक भाषा और व्यवहार को त्याग कर धमकी भरे शब्दों में बंद के आह्वान को कुचलने की बात कर रहे थे। उन्होंने यह भी कहा कि अंजाम ऐसा होगा कि लोग याद रखेंगे और दुबारा करने हिम्मत नहीं करेंगे(देखें: विडियो https://youtu।be/cN2iLQgWUdA)। यह नहीं माना जा सकता है कि इस पुलिस वाले को यह नहीं मालूम था कि भारत के संविधान के अनुक्षेद 25 हर किसी को धर्म और आस्था की स्वतंत्रता देता है। किसी को महिषासुर में आस्था हो सकती है तो किसी को दुर्गा में तो किसी को अन्य किसी में।

विभिन्न मीडिया से प्राप्त खबरों के मुताबिक भाजपा, कांग्रेस और पुलिस बंद के विरोध में सड़को पर उतरे थे, जिसके कारण बंद का आह्वान बेअसर रहा। सोशल मीडिया 26 सितम्बर 2016 को सुबह से ही कह रही थी कि पुलिस ने हर जगह को अपने कब्जे में ले रखा है। एक दिन पूर्व खुद बस्तर के आईजी कल्लूरी की घमकी मिलने और अपने समर्थको के जान-माल की सुरक्षा की चिंता के कारण भी बंद बेअसर रहा होगा या फिर मीडिया ने झूठ भी बोल सकती है कि बंद बेअसर रहा। यह किसी से छुपा हुआ तथ्य नहीं है कि आदिवासी इलाको में नागरिक और पुलिस प्रशासन में निर्णय लेने वाले पदों पर गैर-आदिवासी को रखा जाता है। दुनियां में जहाँ भी क़त्ल-ए-आम होता है वहां उस समाज के लोगो को निर्णय लेने वाले स्थान पर तैनात नहीं किया जाता है जिनका क़त्ल-ए-आम होना है। छत्तीसगढ में सन्दर्भ आदिवासी है।

भाजपा समर्थक जेएनयू के प्रो. अमिता सिंह, भाजपा के वैचारिक और चुनावी सहयोगी शिवसेना के नेता और सांसद संजय राउत, भाजपा के नेता और आसाम के राज्यपाल पी. बी.आचार्य, पूर्व भारतीय प्रसाशनिक सेवा अधिकारी, पूर्व केंद्रीय मंत्री और भाजपा के नेता यशवंत सिन्हा, भाजपा नेता अश्विनी कुमार चौबे, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, सभी स्मृति इरानी से अलग कुछ भी नहीं कह रहें हैं। इन सभी में एक चीज की समानता है ,और वह है राष्ट्रीयता की परिकल्पना। चारो ही मान रहे हैं कि उनकी राष्ट्रीयता में दखल दिया जा रह है। हम कह सकतें है कि, सवर्ण राष्ट्रीयता को मिल रहे चुनौती से उपजा दिल का दर्द अब जुबान तक आ जा रहा  है ।

एक नैसर्गिक, प्रासंगिक और लाजिमी सवाल है कि उनकी राष्ट्रीयता क्या है? उनकी राष्ट्रीयता है – सवर्ण जातीय और सामंती वर्चस्व कायम रखना। मनुस्मृति भी यही कहता है। शास्त्र भी यही कहतें हैं। धर्म शास्त्र भी यही कहतें हैं। यही कारण है कि भारत के लेलिन जगदेव प्रसाद (फ़रवरी 02, 1922 – सितम्बर 05, 1974) कहतें हैं “राष्ट्रीयता और देशभक्ति का पहला तकाजा है कि कल का भारत नब्बे प्रतिशत शोषितों का भारत बन जाए” (बोकारो, अक्टूबर 31, 1969, देखें ‘जगदेव प्रसाद वांग्मय’ द्वारा डा. राजेंद्र प्रसाद और शशिकला, सम्यक प्रकाशन, 2011)। उनकी यह मांग सिर्फ सरकारी नौकरियों तक ही सिमित नहीं था। उनका कहना था कि “सामाजिक न्याय, स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रशासन  के लिए सरकारी, अर्द्ध सरकारी और गैर-सरकारी नौकरियों में कम-से-कम 90 प्रतिशत जगह शोषितों के लिए सुरक्षित कर दी जाए” (बिहार विधान सभा, अप्रैल 02, 1970)। उनकी राष्ट्रीयता कहती थी  कि “राजनीति में (भी) विशेष अवसर सिद्ध्यांत लागू  हो” (रुसी इतिहासकार पाल गार्ड लेबिन से साक्षात्कार, फ़रवरी 24, 1969)।

इन्हीं राष्ट्रीयताओ का टकराव है कि भारत एक राष्ट्र न होकर कई राष्ट्र है, जिसमें इसकी एक राष्ट्रीयता दूसरी  राष्ट्रीयता को हेय दृष्टि से देखती है। आदिवासियों और अनुसूचित जातियों के सन्दर्भ में यह  राष्ट्रीयता  उन्हें  इन्सान ही मानने को तैयार नहीं है।

राजा महिषासुर ने भी उनकी राष्ट्रीयता को चुनौती दी थी, जिसे वो आज तक नहीं भुला सके हैं। यही कारण है कि राजा महिषासुर का नाम लेने मात्र से ही उनका घाव हरा हो जाता है। उन्होंने अभी तक इसे स्वीकार नहीं किया है कि यह देश सबका है और हर किसी को यहाँ इज्जत से रहने का अधिकार है। सवर्ण समाज आज भी एक विशेष समाज को हर साल प्रतीकात्मक रूप से हत्या कर के जश्न मनाते हैं। अगर उन्हें लगता कि अन्य समुदाय भी उनके राष्ट्र के अंग हैं या फिर वो हमारे राष्ट्र के अंग हैं अर्थात हम सब एक ही राष्ट्र के अंग है तब ऐसी बात नहीं होती। न सिर्फ दुःख-सुख बल्कि भारत में इज्जत-प्रतिष्ठा का मानक भी साझा नहीं है। इसका समान प्रतिमान नहीं है।

गहराई से मनन-चिंतन और गौर करने की चीज है कि (मेरी जानकारी में) ऊपर के सभी छः उदाहरणों में किसी न्यायालय और निर्वाचन आयोग ने इसका कोई संज्ञान नहीं लिया। सिर्फ खाना-पूर्ति के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अद्यक्ष अमित शाह के बयान पर चुनाव आयोग के संज्ञान लिया था (देखें: आउटलुक, ऑनलाइन एडिशन, अक्टूबर 30, 2015 औरएनडीटीवी , ऑनलाइन एडिशन, अक्टूबर 30, 2015)।

दुखद प्रासंगिकता

आधुनिक भारत के निर्माता डा. आंबेडकर ने कहा था “भारत एक राष्ट्र नहीं है, राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर है”। उनके इस कथन को आज भी प्रासंगिक देखते हुए मुझे ख़ुशी नहीं हुई। बेहतर होता कि उनका यह कथन उनके जीवन काल में ही अप्रासंगिक और झूठा हो जाता। क्या यह अकारण है कि जब राष्ट्रमाता सावित्रीबाई फुले स्कूल पढ़ाने जाती थी तब द्विज/ सवर्ण समाज उनपर गोबर और कीचड़ फेकता था? क्या यह अकारण है कि जब अंग्रेजों  ने शिक्षा का सार्वभौमिक करने की कोशिश की तब द्विज/ सवर्ण समाज ने उसका विरोध किया था? (विस्तृत जानकारी के लिए पढ़े – फाउंडेशन ऑफ़ तिलक्स नेशनलिज्म , डिस्क्रिमिनेशन, एजुकेशन एंड हिंदुत्व बाय प्रो. परिमला वी राव, ओरिएंट ब्लैक स्वान)। भारत में आज भी शिक्षा को सार्वभौमिक करने का जो प्रयास चल रहा है वह अंग्रेजो (असल में यूरोप और अमेरिका) के सहयोग से ही चल रहा है।

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8 अक्टूबर को पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में कार्यक्रम रात भर चला

मैं इस मिथ (कल्पित कथा) के विवाद को राष्ट्रीयता के संधर्ष से जोड़कर देखना चाहूँगा। जिसमें महिषासुर कोई कल्पित व्यक्ति नहीं है, उसके साक्ष्य हैं, जबकि दुर्गा के होने के साक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। स्मृति इरानी के राजनीतिक कौशल पर मुझे शक है, लेकिन भाजपा के रणनीतिकारो ने संसद में महिषासुर और दुर्गा का मुद्दा बिना तत्कालीन प्रासंगिकता के इसलिए भी उठाया होगा कि दो महीने के बाद अप्रैल-मई में पश्चिम बंगाल में चुनाव होने थे। भाजपा के रणनीतिकारों को मालूम है कि पश्चिम बंगाल की सत्तारूढ़ वामपंथी पार्टीयों ने सांस्कृतिक बदलाव के लिए कुछ नहीं किया। इसलिए उन्हें इसका फायदा मिलेगा। खैर अब परिणाम आ चुका है, भाजपा और उसके सहयोगी को 2011 में एक भी सीट नहीं मिली थी, जबकि 2016 में छः सीटें मिलीं हैं। छः सीटो की बढ़ोतरी के साथ भाजपा को फायदा हुआ है। ममता बनर्जी पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री की शपथ ले चुकीं हैं।

महिषासुर आन्दोलन को सांस्कृतिक गुलामी और प्रभुत्व से बगावत के रूप में देखना चाहिए। नई बगावत, सवर्ण राष्ट्रीयता, अस्मिता, और सांस्कृतिक वर्चस्व के खिलाफ है। इस बगावत के खिलाफ गुस्सा इतना उपजा कि देश की संसद में भाजपा के केन्द्रीय मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी ने इस राष्ट्रीयता को “नीच मानसिकता” और “देशद्रोही” तक कह डाला। वह इतने पर ही नहीं रुकती है, बल्कि ललकार कर कहती है कि “है हिम्मत, सड़को पर महिषासुर जयंती मनाने की”?

आप किसी को सिर्फ आर्थिक आधार पर गुलाम नहीं बना सकतें हैं। गुलाम बनाने और वर्चस्व कायम रखने के लिए अस्मितागत और सांस्कृतिक गुलामी अनिवार्य है। इस सन्दर्भ में भारत के लेनिन जगदेव प्रसाद के एक भाषण का उल्लेख करना चाहूँगा,  जिसमें उन्होंने कहा था कि – ‘जिन तेलियो का छुआ पानी ऊँची जाति के लोग नहीं पीते,  वे ही द्विजवाद के पोषक जनसंघियों के चिराग में ये तेल डालने जाते हैं।’ (खुसरुपुर, बिहार, अक्टूबर 21, 1970, पूरा भाषण के लिए देखें – जगदेव प्रसाद वांग्मय)। मैं समझता हूँ कि जगदेव प्रसाद का यह एक लाइन सांस्कृतिक तत्वों के महत्त्व को समझने के लिए काफी है। ग्राम्सी  (1981-1937) भी अपने “जेल डायरी” में लिखतें हैं – ‘प्रभुत्व ज़माने के लिए सिर्फ आर्थिक स्थिति काफी नहीं है, इसके लिए सांस्कृतिक तत्व अनिवार्य है।’

हाशिये का सरोकार

इस राष्ट्रीयता की लड़ाई का केन्द्रीय विषय एक तरफ शोषित-वंचित-पिछडो-आदिवासियों की पहचान और राष्ट्रीयता है तो दूसरी ओर सामंतवादी जातीय श्रेष्ठता का दंभ, ब्राह्मणवाद और उनकी राष्ट्रीयता है। मेरी जनकारी में भारत में जितने भी आन्दोलन हुए हैं, उनमें से एक भी सवर्णों – ब्राह्मणों के बीच नहीं हुआ है कि वो खुद में सुधार कर सकें। जब ऊपर का शोषक और सन्दर्भ समूह स्वयं सुधर जाए तो अन्य समूहों को आन्दोलन करने की जरुरत ही नहीं रहेगी। अनगिनत सामाजिक आन्दोलनों में सवर्ण और ब्राह्मण जातियों में जन्में मानवतावादी लोगों  का शोषित-वंचित-पिछडो-आदिवासियों के आन्दोलनों में सक्रिय -सराहनीय योगदान रहा है। लेकिन उनके बीच कोई आन्दोलन हुआ हो कम-से-कम मुझे इसकी जानकारी नहीं है। लेकिन इसी बीच उच्च शिक्षण संस्थानों में पहुचे पिछड़े-वंचित समुदायों (आदिवासी, अनुसूचित जाति और ओबीसी) के विद्याथियो द्वरा वर्चस्ववादी संस्कृति के बरक्स समतामूलक मानववादी संस्कृति की बातें की जाने लगी है, और अब यह एक आन्दोलन का रूप ले चुका है। उच्च शिक्षण संस्थानों के इन आन्दोलनों से समाज में जागृति आ रही है।

इसलिए इस राष्ट्रीयता की लड़ाई में शोषित-वंचित-पिछडो-आदिवासियों को एक साथ आना होगा ताकि बौद्धिकता, तार्किकता और लोकतान्त्रिक तरीके से अपनी बात रखी और स्थापित की जा सके। लेकिन इसका अंततः उद्देश्य मानवता की स्थापना ही होना चाहिए। कोई भी समाज एक साथ दो विपरीत बौद्धिकता और तार्किकता स्थापित नहीं कर सकता। इसलिए ब्राह्मणवाद का शिकार ब्राह्मण भी हो रहा है, खासकर उनकी लड़कियाँ और महिलायें। इसलिए उस समाज में जनमे मानववादी भी इसके खिलाफ आ रहे हैं। दूसरी ओर शोषित-वंचित-पिछडो-आदिवासियों के समाज में शिक्षा के प्रचार प्रसार और आर्थिक समृद्धि के कारण उनके बीच से अब बगावत के स्वर फूट पड़ा है। इस बौद्धिक, सामाजिक और धार्मिक बगावत के कारण उपरी तबके का समाज थोड़ा बदलने को विवश हुआ है। यह उनकी सदइच्छा नहीं मजबूरी है। यह उसी तरह से है, जैसे जब धरती के नीचे हलचल होती है तो ऊपर का अवैध निर्माण टिका नहीं रह सकता। याद दिलाना चाहूँगा कि संसद में स्मृति ईरानी के बयान के बाद जो देशव्यापी विरोध हुआ, उसके कारण प्रचंड बहुमत वाली भाजपा सरकार ने संसद के दोनों सदनों से महिषासुर का प्रसंग हटाकर इसपर बहस रोक दिया था। हम बहस को तैयार थे लेकिन उन्हें पीछे हटना पड़ा था। याद कीजिए, उनके मंत्री ने संसद में कहा था – “है हिम्मत तो सड़क पर महिषासुर जयंती मना कर दिखाइए।” तमाम कोशिशो के बाद भी वो सिर्फ संसद में बहस रोककर वहां अपनी हार बचा सके, लेकिन सड़क पर वे  परास्त हो गये।


महिषासुर से संबंधित विस्तृत जानकारी के लिए  ‘महिषासुर: एक जननायक’ शीर्षक किताब देखें। द मार्जिनलाइज्ड प्रकाशनवर्धा/दिल्‍ली। मोबाइल  : 9968527911ऑनलाइन आर्डर करने के लिए यहाँ  जाएँ : महिषासुर : एक जननायकइस किताब का अंग्रेजी संस्करण भी ‘Mahishasur: A people’s Hero’ शीर्षक से उपलब्ध है।

लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

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