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मेरी पहली प्रेमिका मुसलमान थी : जिग्नेश मेवानी

जिग्नेश मेवानी उत्पलकांत अनीस से अपनी बात में दलित-मुसलमान एकता पर जोर दे रहे हैं। उनके अनुसार वामपंथी पार्टियों को नेतृत्व की अपनी नीतियों में बदलाव लाना होगा, वहीं दलित संगठनों को रोटी-कपड़ा-मकान के मुद्दे अपने आंदोलन में शामिल करना चाहिए। इस बातचीत में जिग्नेश मेवानी दलित आंदोलन के अतीत, उसकी पृष्ठभूमि और भविष्य की राजनीति पर अपने विचार स्पष्ट कर रहे हैं

आपका नारा है, गाय की दुम आप रखो हमें हमारी जमीन दो या मरे हुए जानवर कोई दलित नहीं उठायेगा आदि, इस तरह के सवाल हिंदी प्रदेशों में, खासकर बिहार में 35-40 साल पहले नक्सल आंदोलन के समय जोरो पर थे। देश के लगभग सभी आदिवासी बहुल क्षेत्रों में नक्सल आन्दोलन कभी न कभी रहा लेकिन गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों से यह गायब रहा। और साथ ही महाराष्ट्र में जिस तरह का रैडिकल दलित आन्दोलन हमें देखने को मिलता है वैसा या उसके आसपास गुजरात में देखने को नहीं मिलता है जबकि गुजरात पहले महाराष्ट्र में ही था, तो अगर हम ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखेंगे तो गुजरात में उस तरह का कोई भी संगठित सामाजिक और राजनैतिक आन्दोलन अब तक देखने को नहीं मिलता है और तो और गुजरात में प्रगतिशील और सामाजिक आन्दोलन से ज्यादा प्रतिगामी आन्दोलन (जैसे आरक्षण विरोधी आन्दोलन) ज्यादा हुआ है और तीन बड़े दंगे भी हुए है और दंगों का अपना इतिहास रहा है! यहां तक कि ऊना प्रतिरोध के बाद जब लोग वापस लौट रहे थे तो उनके साथ मारपीट की घटनाएं भी हुई। आपको क्या लगता है कि आपका आन्दोलन सफल हो पायेगा?

जिग्नेश मेवानी

सबसे पहले तो हमें क्यों चाहिए नक्सल आन्दोलन? हमलोगों को नही चाहिए नक्सल आन्दोलन। हम लोकतान्त्रिक तरीके से संघर्ष करेंगे और लोकतंत्र में हमारा अटूट विश्वास है। हम आर्थिक शोषण के सवालों को जमकर उठायेंगे। और यदि वर्गविहीन समाज खड़ी न हो तब भी कम से कम ऐसा समाज तो बने जिसमें कम से कम आर्थिक शोषण हो, दो वर्गों के बीच में कम से कम अंतर रह जाय, ऐसा समाज तो हम बना सकते हैं।  रही बात गुजरात में आन्दोलन कि तो यहां पर दलित पैंथर के आन्दोलन का विस्तार ज्यादा नहीं हो पाया। दलित पैंथर के मैनिफेस्टो का विस्तृत दृष्टिकोण था, जैसे उनका पहला कार्यक्रम भूमि सुधार का है। वह आंदोलन जमीनदारों के साथ-साथ सामंतवाद और पूंजीपतियों के खिलाफ के भी संघर्ष की बात करता है, वह आर्थिक शोषण से संघर्ष की बात करता है, वह भूमि-सुधार आन्दोलन की बात करता है, वह यह है कहता  कि हमारे प्राकृतिक सहयोगी कौन हैं, जो वर्ग और जाति दोनों का शासन खत्म करना चाहते हैं, तो सारे वामपंथी पार्टी और संगठन हमारे साथ चलो। ये बातें ज्यादा विस्तार लेती और फैलती और हमारी अस्मिता के सवाल, जाति आधारित उत्पीडन और शोषण के साथ-साथ रोटी, कपड़ा और मकान का मुद्दा यदि दलित आन्दोलन खड़ा कर पाता तो निश्चित तौर पर उससे एक रेडिकल आन्दोलन खड़ा हो पाता। जहां तक गैर दलित जाति का सवाल है तो उनमें से जो प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन होने चाहिए थे उसके बजाय प्रतिगामी आन्दोलन ज्यादा हुए। इस तरह से मैं मानता हूं कि दलित के साथ-साथ जो गैर दलित प्रगतिशील लोग थे उनकी भूमिका भी इस तरह से होनी चाहिए थी कि वे अपनी जाति, अपने धर्म के लोगों के बीच में प्रगतिशील विचार को ले जाते, उन्हें फैलाने का काम करते, एक प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन खड़ा करते। गैर दलित समूहों की ओर से प्रतिगामी के बदले प्रगतिशील बात आये यह जवाबदारी तो दलितों की तो है नहीं, वह नहीं हुआ और गुजरात में एक व्यापारी मानसिकता बहुत है, बनिया संस्कृति बहुत ज्यादा हावी रही है तो लोग लाभ केंद्रित ज्यादा रहते हैं।

जिस तरह से बाबा साहेब आंबेडकर ने हिंदू धार्मिक वर्चस्ववाद को खत्म करने के लिए दलितों को धर्म परिवर्तन के लिए आह्वाहन किया था क्या आपकी भी कोई उस तरह की योजना है, जिससे गुजरात में स्थापित हिन्दू वर्चस्ववाद को चुनौती मिल सके? या आप धर्म-परिवर्तन जैसी मुहीम के खिलाफ हैं?

मैं ऐसा मानता हूं कि धर्म एक राजनैतिक कार्यक्रम का एजेंडा नहीं होना चाहिए। वह अपने घर के एक कोने में रखने की चीज है। बाबा साहेब ने किया उसकी एक खास वजह, पृष्ठभूमि थी, वह वक्त अलग था, उस समय उन्होंने पूरे हिंदू समाज को कठघरे में लाकर खड़ा कर दिया था। लेकिन उसके 50 सालों के बाद बुद्धिज्म ने कितना विस्तार किया, जिनलोगों ने अपनाया क्या उनके दिमाग से उनकी उपजाति गई, नहीं गई, तो उसका एक विश्लेषण भी हमलोगों के पास होना चाहिए और यदि इस हिंदुत्व की प्रयोगशाला में हिंदुत्व के फासिस्ट कल्चर को, ब्राह्मणवादी और जातिवादी संस्कृति को चांटा मारने की चेतना और जागरूकता के साथ कोई अगर बुद्धिज्म में जाता है तो मैं उसका विरोध नहीं करूंगा लेकिन एक राजनैतिक कार्यक्रम के तौर पर सारे लोग बुद्धिस्ट बन जाओ, इसे में प्रमोट भी नहीं करता हूं। लेकिन गुजरात सरकार धर्मान्तरण विरोधी क़ानून लेकर आयी है, यानि हमारा संविधान जो कहता है कि हर जाति और धर्म के लोगों को अपने मर्जी से कौन सी धर्म में विशवास रखना है या कौन सा धर्म में जाना है, यह आजादी है, लेकिन गुजरात सरकार ने ऐसा क़ानून बनाया है कि अगर आपको धर्म परिवर्तन करना है तो कलक्टर की  पूर्व अनुमति लेनी आवश्यक है। कल को अगर बुद्धिस्ट साथी ये मुद्दा उठाते हैं, तो मैं उनके साथ लड़ने के लिए तैयार  हूं। क्यूंकि मेरे लिए ये संविधान को नष्ट करने वाली बात है, वो नहीं चलेगा। बुद्धिज्म तो एक तरह से धर्म है भी नहीं, उसके सिद्धांत दलित समाज अपनाता है, तो उसे मैं संस्कृति के सुधार के बतौर स्वीकार करूंगा।

आप दलितों के लिए सरकार से हथियार के लिए लाइसेंस की भी मांग कर रहे हैं। शायद सरकार दे भी दे, दूसरी ओर जो सामंत वर्ग है, उसके पास बिना लाइसेंस के ही हथियार पहले से मौजूद है, ऐसी अवस्था में दलित कैसे संघर्ष कर पायेंगे?

मैं केवल हथियारों के दम पर लड़ने की बात नहीं कर रहा हूं, बल्कि हथियारों से ही लड़ो मैं ऐसा भी नहीं कह रहा हूं। मैं तो त्रिशूल और तलवार की जो राजनीति है उसे सांस्कृतिक तौर पर काउंटर करने के लिए ये कह रहा हूं। लेकिन उन्हें खुद की सुरक्षा के लिए हथियार मिलना चाहिए। यदि 100 दलित हैं और उन्हें सरकार अगर हथियार देती है तो ये हो सकता है कि उनके ऊपर उत्पीडन की सोच रखने वाले लोग थोड़ा डरें। ऐसा हो सकता है, ऐसा हो ही जायेगा, मैं नहीं मानता हूं। हां, मैं ऐसा मानता हूं कि जातिवादी सोच वाले दलितों का उत्पीडन करते हैं, दलित उन्हें शारीरिक तौर पर प्रत्युत्तर दें तो, ये बात डंके की चोट पर कह रहा हूं, तो मैं उन्हें हार्दिक स्वागत करूंगा। रोज सुबह उठते ही अखबार में देखने को मिलता है कि दलितों को यहां पीटा गया ,  वहां पर मारा गया है, कहीं तो दलितों को इन जातिवादियों को पीटना पड़ेगा। प्रतिकार करना होगा। प्रतिहिंसा करनी पड़ेगी। हां, पुलिस के साथ संघर्ष मत करो, सरकारी सम्पति को नुकसान नहीं पहुंचाओ।

आप दलित और मुस्लिम एकता की बात कर रहे हैं, लेकिन बहुजन एकता की क्यों नहीं, जिसमें आदिवासी और पिछड़े तबके के लोग भी साथ में आयें, दूसरा कि ये एकता सिर्फ सामाजिक स्तर पर होगी या फिर राजनीतिक एकता भी होगी? या फिर किसके बरक्स ये एकता होगी?

दलित और मुस्लिम एकता बहुत मुश्किल काम है। हमलोग दलित आदिवासी एकता की भी बात करते हैं, हम सारे दलित, वंचित और शोषित एक मंच पर आयें, ये भी बात करते हैं, लेकिन दलित और मुस्लिम एकता करने की बात इसलिये महत्वपूर्ण है कि संघ और भाजपा ने 2002 दंगे में जिस तरह से कुछ जगहों पर दलितों का इस्तेमाल किया और दलितों का भगवाकरण हुआ उसे भी हमें काउंटर करना है। दलित-मुस्लिम एकता का नारा जरूरी है और ये सामाजिक और राजनीतिक एकता भी हो सकती है, आनेवाले दिनों में।

ऐसी दलित-मुस्लिम एकता 8वें दशक में हुई थी, जिसे हाजी मस्तान और प्रो. योगेंद्र कावडे लीड कर रहे थे,   वह एकता लंबी नहीं चली। आपको क्या लगता है कि इसबार ये सफल होगी?

मैं बहुत ही आशावादी हूं और आगे देखिये क्या होता है।

आपने ऊना में बोला कि अगर मेरी दो बहनें होतीं तो एक की शादी मैं वाल्मीकि से करना चाहता और दूसरी की मुस्लिम से, ये कहने की जगह आप ये भी तो कह सकते थे कि मैं किसी मुस्लिम या वाल्मीकि समाज की लडकी से शादी करना चाहता हूं। क्योंकि अभी तक आप अविवाहित हैं?

15 अगस्त के दिन ऊना में जो दलित सम्मेलन हुआ, उसकी वीडियो उपलब्ध है, उसमें सुन सकते हैं। मैंने ये कहा था कि अगर मेरी दो बहनें होतीं तो मुझे अच्छा लगता- अगर एक की शादी वाल्मीकि में होती और दूसरे की शादी मुस्लिम समाज में होती। मैंने यह नहीं कहा कि मैं अपनी बहन की उस समाज में शादी करता – वह पितृसतात्मक रवैया होता। रही मेरी बात, तो अभी शादी करने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन अगर कल कोई वाल्मीकि या मुस्लिम समाज की लड़की से इश्क-मोहब्बत होता है तो देखेंगे। वैसे मेरा पहला प्रेम एक मुस्लिम लड़की के साथ हुआ था, जिसे मैं पहली बार सार्वजनिक कर रहा हूं।

गुजरात में करीब तीस दलित उपजातियां हैं, लेकिन इनके आपस में रोटी-बेटी का प्रचलन न के बराबर है।  सांस्कृतिक तौर पर दलित एकजूट नहीं हैं। ऐसी हालत में दलितों को जोड़ना क्या मुश्किल काम नहीं होगा?

इनका आपस में कोई रिश्ता नहीं है, जो बहुत ही खतरनाक है। इसलिये हम नारा दे रहे हैं कि दुनिया के दलित एक हों। सारी उपजातियों को हमलोग जोड़ना चाहते हैं। हमारे संगठन से दो-तीन बिल्डर हैं। मैंने उनसे कहा कि आप ऐसी कोई योजना बनायें, जिसमें सारी दलित उपजातियां एक साथ रहें, ऐसा कोई आवासीय योजना बने कि सारी दलित उपजातियां एक साथ रहे। जिससे उनके बीच में सांस्कृतिकता का आदान-प्रदान हो सके, जिससे उनके बीच की उपजाति टूटे। इससे उनके बीच में शादी की संभावना बढेगी। सामाजिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान तो हो नहीं रहा है, तो अंतरजातीय विवाह भी नहीं होते।

डॉ. आंबेडकर अलग सेटलमेंट की मांग करते थे।

मैं उसके समर्थन में हूं। मान लीजिये कि एक गांव में पांच दलित परिवार हैं, दूसरे गांव में आठ परिवार हैं , तीसरे गांव में अगर दो दलित परिवार हैं, तो वे एकदम से हाशिये पर है। रोज उनके साथ मार-पीट की घटनाएं होती है। उन्हें तालुका स्तर पर या फिर शहरों के आसपास बसाया जाये और उसके साथ-साथ उनके आजीविका की भी व्यवस्था की जाए, और वह जो कॉलोनी बसयी जाये उसके इर्दगिर्द में, अर्थात सेपरेट सेटलमेंट के आजू-बाजू ऐसी कॉलोनी बननी चाहिए, जहां पर सारे धर्म और जातियों के लोग एक साथ रह सकें। क्योंकि अभी हमलोग गांव के सरहद में रहते हैं, तो वहां पर भी ज्यादा सामाजिक-सांस्कृतिक आदान प्रदान नहीं होता है, लेकिन आंबेडकर आवास योजना है, इंदिरा आवास योजना है, सरदार आवास योजना है, जिसके अंतर्गत दूसरे धर्म और जातियों के लोग, जिनके पास छत नहीं है, सरकार उनको उस सेटलमेंट के आस-पास बसाये,  ताकि अगर आप साथ में रहते हैं तो एक परस्पर रिश्ता बनता है, इसकी संभावना बढ़ जाती है।

आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के साथ-साथ आने पर भी जोर दिया जा रहा है, इसकी क्या संभावनाएं हैं?

आंबेडकरवाद और मार्क्सवाद के मिलन की धारा और भी चलेगी और चलनी चाहिये-आप डॉ. आंबेडकर का पूरा विश्लेषण करिये। एक तरफ हमारे पास रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया के आंबेडकर भी हैं, तो दूसरी ओर बुद्धिज्म वाले आंबेडकर हैं, इसके साथ-साथ ‘स्टेट एंड माइनॉरिटीज’ वाले आंबेडकर भी हैं, जो कहते हैं कि सारी भूमि का राष्ट्रीयकरण करो- यह तो वाम विचारधारा है। इसी तरह से इंडीपेंडेड लेबर पार्टी भी बनाई, जिसका झंडा लाल था और वह कामकाजी तथा किसानों की पार्टी थी, दलित पार्टी नहीं थी। आंबेडकर को पूरा देखो- दलित आन्दोलन में कई सारे लोग ऐसे हैं, जो आंबेडकर की अपनी सुविधानुसार व्याख्या करते हैं। मैं कहता हूं कि डॉ. आंबेडकर ने धर्म परिवर्तन किया, डॉ. आंबेडकर ने शिडयूल कास्ट फेडरेशन बनाया, तो डॉ. आंबेडकर ने रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया भी बनाया और ‘स्टेट एंड माइनॉरिटीज’ भी लिखा। डॉ. आंबेडकर ने इंडीपेंडेड लेबर पार्टी भी बनाई। डॉ. आंबेडकर ने महाड (मनमाड) ऐतिहासिक सत्याग्रह के वक्त कहा कि ब्राहमणवाद के साथ-साथ पूंजीवाद भी इस देश के दलित और कामकाजी वर्ग का शत्रु है- तो ये जो पूरा आंबेडकर हैं,  उसे खोल के रखो सबके सामने, अपने आप आगे का रास्ता निकलेगा। और हां वाम की ऐतिहासिक गलती एक नहीं एक हजार रही हो, लेकिन यदि उसमें से कुछ लोग एक डिसेंट कास्ट पर्सपेक्टिव विकसित कर रहे हैं तो करने दो, स्वागत है। यदि उनमें से कुछ लोग दलित आन्दोलन में दिल से जुड़ रहे है या जाति हिंसा का सवाल उठा रहे हैं तो मैं जाऊंगा उनके साथ। अंततोगत्वा एक ही विचारधारा हमलोगों की मुक्ति का रास्ता खोलेगा, ऐसा मानकर क्यूं चलें।

गुजरात के दूसरे दलित कार्यकर्ताओं का आरोप है कि आप आंबेडकरवादी नहीं बल्कि वामपंथी विचारधारा को आगे बढ़ा रहे हैं,  तो आप अपने-आप को किस विचारधारा में पाते हैं?

मैं इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी के आंबेडकर से हुआ हूं।  इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी और ‘स्टेट एंड माइनॉरिटीज’ के जो रैडिकल आंबेडकर हैं, उनसे मैं ज्यादा प्रेरित हुआ।   फिर वाम विचार की बात आती है। और हां मैं वाम केंद्रित हूँ, उसमें कोई दो राय नहीं है। अगर पूरे देश के सिर्फ दलितों में ही मुक्ति का नारा लगाना होता तो मैं जय भीम कहता ,लेकिन मैं चाहता हूं कि पूरीदुनिया का कामकाजी वर्ग का शोषण से मुक्ति हो, तो लाल सलाम भी कहते हैं।

आप दलित और वाम विचारों तथा आन्दोलनों की एकता की बात कर रहे हैं, लेकिन वहां नेतृत्व के मुद्दे पर दलित आन्दोलनों से जुड़े हुए लोगों का कहना है कि इस एकजुटता का नेतृत्व दलितों के हाथ में होना चाहिये अर्थात अब भागीदारी से सिर्फ काम नहीं चलेगा, दलितों को नेतृत्व भी देना पड़ेगा।

 वामदलों और आन्दोलनों की जो ऐतिहासिक गलतियां रही हैं, उनमें से कई गलितयों को आज भी जारी रखी है उन्होंने, जिसमें से एक अहम गलती ये है कि दलितों का सच्चा प्रतिनिधित्व न खड़ा हो। मैं यह भी कहता हूं कि दलितों को भी अपनी संकीर्णता छोडनी पड़ेगी और वाम को भी अपनी वैचारिक संकीर्णता छोडनी पड़ेगी। दलित आन्दोलन को यदि आपको वाम से दिकक्त है, यदि आपको उनके साथ नहीं जुड़ना है तो आप एक डीसेंट क्लास पर्सपेक्टिव विकसित करो। आप रोटी, कपड़ा और मकान के सवाल को जम के उठाओ। आप अपना ट्रेड यूनियन बनाओ, सुधार करो, आप जमीन के सवाल को लेकर लड़ो, आप बोलो कॉर्पोरेट लूट के खिलाफ, आप बोलो वैश्वीकरण और साम्राज्यवाद के खिलाफ कि हमारा भी एक दृष्टिकोण है, आवाज उठाओ और संघर्ष करो। लेकिन वह भी नहीं करना और केवल वाम को गाली देना नहीं चलेगा। वाम सिर्फ वर्ग-वर्ग करता रहे, वह भी नहीं चलेगा। वाम को दलितों के सवाल और जातिप्रश्न को जमकर उठाना पड़ेगा, न केवल उठाना पड़ेगा उनको नेतृत्व भी देना पड़ेगा और माहौल बनाना होगा कि उनकी पार्टी में दलित नेतृत्व खड़ा हो।

अंतिम सवाल कि अभी बहुजन आन्दोलन भी जोर-शोर से चल रहा है, आप इसे कैसे देखते हैं?

अभी एक मेरा साथी है, जयेश सोलंकी, वह एक नया फार्मूला लेकर आया है, वह कह रहा है कि हम तो बहुजन सर्वहारा हैं। अन्तोगत्वा बहुजन सर्वहारा कहने का मतलब ये है कि आंबेडकरवाद और वामवाद का मिलन इसलिए होना चाहिये ताकि वर्ग और जाति दोनों के खिलाफ, जो बाबा साहब आंबेडकर मोर्चा खोलना चाहते थे, जो भगत सिंह मोर्चा खोलना चाहते थे, वह मोर्चा खुले।


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लेखक के बारे में

उत्पलकांत अनीस

उत्पलकान्त अनीस मीडिया शोधार्थी हैं और सूचना तकनीक का आदिवासी महिलाओं पर प्रभाव पर शोध कर रहे हैं।

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