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आरएसएस-प्रायोजित आंबेडकर की घरवापसी

शिक्षण संस्थाओं व सरकारी नौकरियों में ओबीसी को आरक्षण देने संबंधी मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद, समाज में जाति के विरूद्ध विद्रोह की संभावनाएं बन रही थीं। इन्हें समाप्त करने के लिए ही बाबासाहेब पर कब्ज़ा करने की परियोजना शुरू हुई, बता रहे हैं तपन बसु।

‘‘गांधीजी मेरी कोई मातृभूमि नहीं है’’

‘‘आपकी मातृभूमि है और गोलमेज सम्मेलन में आपने जो कहा, उसके संबंध में मुझे जो पता चला है, उससे मुझे महसूस हुआ कि आप एक खरे देशभक्त हैं।’’

‘‘परन्तु, मैं इस धरती को अपनी मातृभूमि कैसे कह सकता हूँ, इस धर्म को अपना कैसे बता सकता हूँ, जहाँ हमारे साथ कुत्ते-बिल्लियों से भी खराब व्यवहार होता है। क्या कोई भी अछूत, जिसमें तनिक भी आत्मसम्मान है, इस भूमि पर गर्व कर सकता है?’’

14 अगस्त, 1931[1]  को बम्बई के मणिभवन में आंबेडकर और गाँधी के बीच चर्चा के अंश।

अपने एक अत्यंत शोधपरक लेख में, इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने भारत की स्वाधीनता के बाद से सत्तर वर्षों में, आंबेडकर के बारे में आरएसएस की बदलती सोच का खाका खींचा है। उन्होंने इसके लिए अभिलेखागारों से जो दस्तावेज झाड़-पोंछ कर निकाले, उनमें शामिल हैं संघ के अंग्रेज़ी मुखपत्र ‘द आर्गेनाइज़र’ के चुनिंदा अंक, जिनमें से उन्होंने अत्यंत सुव्यवस्थित ढंग से ऐसे वक्तव्य और लेख ढूंढ निकाले हैं, जिनसे पता चलता है कि समय के साथ किस तरह आरएसएस ने न केवल इस दलित महान आत्मा के प्रति अपने बैर भाव पर विजय प्राप्त की, वरन् उन्हें देश की ‘एकजुटता का सूत्रधार’ भी बताया। गुहा, आंबेडकर की 125वीं जयंती के अवसर पर प्रकाशित ‘द आर्गेनाइज़र’ के विशेषांक (17 अप्रैल, 2016) का उदाहरण देते हैं, जिसमें बाबासाहेब पर अनेक लेख प्रकाशित हैं। इनमें से एक उन्हें ‘राष्ट्र को जोड़ने वाला तत्व’ बताता है तो दूसरा कहता है कि ‘उनकी दृष्टि और उनके कार्य ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज और आर्य समाज से मिलते-जुलते थे’। एक तीसरा लेख उन्हें श्रमिकों के अधिकारों का पैरोकार और चौथा, एक ऐसा ‘शाश्वत नेता’ बताता है ‘‘जो ब्राह्मणों के नहीं वरन ब्राह्मणवादी पदक्रम के विरूद्ध था’’। सभी लेख – बल्कि यह पूरा अंक – आंबेडकर की प्रशंसा से लबरेज़ है। इसके विपरीत, आरएसएस और उसके मुखपत्र, गुहा कहते हैं, एक समय उस व्यक्ति की कटु आलोचना करते थे, जिसने स्वाधीन भारत के पहले विधिमंत्री बतौर देश के संविधान पर अपनी अमिट छाप छोड़ी और जिसने हिन्दू समाज के प्रतिगामी पारिवारिक कानूनों में सुधार के लिए तथाकथित हिन्दू कोड बिल संसद में प्रस्तुत किया।

सन 1949-1950 में आरएसएस, आंबेडकर के विरूद्ध ज़हर उगलता था। अपने 30 नवंबर, 1949 के अंक में ‘द आर्गेनाइज़र’ ने संविधान, जिसका अंतिम मसौदा संविधानसभा के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका था, पर अपने संपादकीय में लिखा, ‘‘नए भारतीय संविधान में जो सबसे बुरा है वह यह है कि उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। उसमें प्राचीन भारत के नियमों, संस्थाओं, शब्दावलियों और कथनशैलियों की तनिक भी झलक तक नहीं है’’।

संपादकीय आगे कहता है कि ‘‘इस संविधान में प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक प्रयासों की कोई चर्चा नहीं है। मनु के कानून, स्पार्टा के लाइकरगस और फारस के सोलोन के विधिशास्त्रों से पहले लिखे गए थे। मनु के कानून, जिन्हें मनुस्मृति में व्याख्यायित किया गया है, को आज भी विश्व प्रशंसा की दृष्टि से देखता है और इनका (भारत के हिन्दुओं द्वारा) स्वस्फूर्त अनुपालन किया जाता है। परंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए मानो इसका कोई महत्व ही नहीं है’’।

उसी वर्ष, कुछ पहले, आरएसएस के सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने एक भाषण में आंबेडकर द्वारा हिन्दुओं के पारिवारिक कानूनों में हस्तक्षेप करने की कोशिश की निंदा करते हुए कहा था कि ‘‘आंबेडकर के प्रयासों में कुछ भी भारतीय नहीं है। भारत में विवाह और तलाक जैसे मामलों में अमरीकी या ब्रिटिश माॅडल की कोई प्रासंगिकता नहीं है। हिन्दू संस्कृति और विधि के अनुसार, विवाह एक संस्कार है, जिसे मृत्यु भी नहीं बदल सकती। यह कोई ‘करार’ नहीं है, जिसे जब चाहे तोड़ दिया जाए’’[2]

मंडल पर संघ की प्रतिक्रिया

आंबेडकर के बारे में आरएसएस की सोच में आमूल परिवर्तन, हालिया घटनाक्रम है, जिसकी प्रक्रिया 20वीं सदी के आखिरी दशक या शायद उसके बाद शुरू हुई। यह परिवर्तन इसलिए आया क्योंकि संघ के चिंतकों और उसके अनुषांगिक संगठनों को यह एहसास हुआ कि संघ को दलितों के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए आक्रामक कार्यक्रम शुरू करना चाहिए। ये कार्यक्रम संघ के सोशल इंजीनियरिंग अभियान का हिस्सा बन गए। इस अभियान की शुरूआत तत्कालीन केन्द्र सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशों के अनुरूप, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए शिक्षण संस्थानों और सरकारी नौकरियों में कोटा-आधारित आरक्षण का प्रावधान किए जाने के बाद शुरू हुआ। सरकार के इस निर्णय से समस्त नीची जातियों की महत्वाकांक्षाएं जाग उठीं और उन्होंने अपने अधिकारों पर दावा करना शुरू कर दिया। संघ को ऐसा लगा कि देश में नीचे से जाति की संस्था के विरूद्ध विद्रोह हो सकता है। ऐसी किसी संभावना को रोकने के लिए उसने सभी जातियों के हिन्दुओं को एकजुट करने के लिए राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू कर दिया। इसके अतिरिक्त उसने अपने संगठन में दलितों को महत्वपूर्ण पदों से नवाज़ना भी शुरू किया। यह एक सोची समझी रणनीति के तहत हुआ। यह मात्र संयोग नहीं था कि अयोध्या में राममंदिर के शिलान्यास समारोह का उद्घाटन, विश्व हिन्दू परिषद की ओर से एक दलित द्वारा किया गया था[3]

आंबेडकर के भगवाकरण की परियोजना इस समय अपने चरम पर है। पिछले वर्ष, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने दावा किया था कि आंबेडकर, संघ के दर्शन में यकीन करते थे और उन्होंने देश को एकजुट करने और यहां सौहार्द बढ़ाने के कार्य में संघ के कार्यकर्ताओं के समर्पणभाव की प्रशंसा की थी

आनंद तेलतुम्बडे और बदरी नारायण जैसे दलित अध्ययन अध्येताओं ने हिन्दू दक्षिणपंथियों के दलितों और ओबीसी को अपने साथ लेने के प्रयासों का व्यापक और गहन अध्ययन किया है। हिन्दू दक्षिणपंथी, आरएसएस से वैचारिक व विचाराधात्मक प्रेरणा प्राप्त करते हैं जबकि दलित व ओबीसी हमेशा से हिन्दू धर्म के ब्राह्मणवादी पक्ष और आरएसएस के हिन्दू राष्ट्रवादी ढांचे को संदेह की निगाह से देखते रहे हैं[4]। बदरी नारायण के अनुसार ‘‘भाजपा और आरएसएस व विहिप जैसी संस्थाओं की राजनीतिक रणनीति के दो पक्ष हैं। एक ओर वे दलित समुदायों को राज्यों की व राष्ट्रीय राजनीति में जगह देकर सत्ता में भागीदारी की, उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा करने का प्रयास कर रहे हैं। दूसरी ओर, वे दलित मौखिक परंपराओं के सांस्कृतिक प्रतीकों और लोकनायकों का भगवाकरण कर रहे हैं और उत्तर भारत में स्थानीय समुदायों को पुनर्परिभाषित कर रहे हैं’’[5]

बाबासाहेब आंबेडकर, दलितों के सबसे लोकप्रिय नायक और प्रतीक हैं और आश्चर्य नहीं कि इन शक्तियों को लगता है कि आंबेडकर का भगवाकरण किए बगैर काम नहीं चलने वाला।

आंबेडकर के भगवाकरण की परियोजना इस समय अपने चरम पर है। पिछले वर्ष, आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत ने दावा किया था कि आंबेडकर, संघ के दर्शन में यकीन करते थे और उन्होंने देश को एकजुट करने और यहां सौहार्द बढ़ाने के कार्य में संघ के कार्यकर्ताओं के समर्पणभाव की प्रशंसा की थी। उन्होंने यह भी कहा कि आंबेडकर तिरंगे को देश का राष्ट्रीय ध्वज बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे बल्कि वे चाहते थे कि संघ का भगवा झंडा ही राष्ट्रीय ध्वज बने[6]

भागवत के सहायक भैय्यूजी जोशी ने एक कदम और आगे जाकर कहा कि ‘‘दलित नेता बाबासाहेब आंबेडकर को समाज के किसी एक वर्ग के नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाना गलत है। उनके राष्ट्रीय व्यक्तित्व को सामने लाने के लिए उनके जीवन का अधिक गहराई से अध्ययन किया जाना ज़रूरी है’’। आरएसएस, आंबेडकर पर कब्ज़ा करने के लिए कितना बेकरार है, यह इससे जाहिर होता है कि जोशी ने आंबेडकर और संघ के संस्थापक केबी हेडगेवार के बीच समानताएं गिनवाने की कोशिश की[7]। संघ के एक अन्य चिंतक, और विहिप के अध्यक्ष अशोक सिंहल ने अपनी राय प्रस्तुत करते हुए कहा कि ‘‘हमारे लिए हिन्दू का मतलब वे सभी धर्म हैं जो हिन्दुस्तान की धरती पर जन्मे। डाॅ. आंबेडकर ने बौद्ध धर्म के आदर्शों का प्रचार कर, दलितों के ईसाई और इस्लाम जैसे विदेशी धर्मों को अपनाने से रोक कर इस देश की आत्मा की रक्षा की और इसलिए हम उन्हें हमारी विचारधारा और हमारे आंदोलन के प्रवर्तकों में से एक मानते हैं’’[8]। परंतु क्या एक ऐसे व्यक्ति का भगवाकरण करना आसान होगा जो एनिहिलेशन आॅफ कास्ट, रिडल्स आॅफ हिन्दुइज़्म व द बुद्धा एंड हिज़ धम्म जैसी पुस्तकों का लेखक है और जिसने अपने 3,65,000 अनुयायियों के साथ, 14 अक्टूबर, 1956 को हिन्दू धर्म को त्याग कर अपने अनुयायियों को इस धर्म से पूरी तरह नाता तोड़ने के लिए 22 प्रतिज्ञाएं दिलवाईं। इन प्रतिज्ञाओं में शामिल थीं :

  1. मुझे ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई आस्था नहीं है और मैं इनकी आराधना नहीं करूंगा।
  2. मुझे राम और कृष्ण, जिन्हें ईश्वर का अवतार माना जाता है, में कोई आस्था नहीं है और मैं उनकी आराधना नहीं करूंगा।
  3. मुझे गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में कोई आस्था नहीं है और मैं उनकी आराधना नहीं करूंगा।
  4. मैं ईश्वर के अवतारों में विश्वास नहीं करता[9]

आश्चर्य नहीं कि आज भी हम आंबेडकर के प्रति आरएसएस के रूख में पशोपेश और अस्पष्टता साफ देख सकते हैं।

ब्रिटिश साम्राज्य का पिट्ठू

सन 1997 में, भाजपा के अरूण शौरी, जो इस पार्टी के सांसद और इसके नेतृत्व वाली पहली सरकार में मंत्री थे, की एक पुस्तक प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था ‘‘वर्शिपिंग फाॅल्स गाॅड्सः अंबेडकर एंड द फैक्ट्स विछ हैव बीन इरेज़्ड’’। इस पुस्तक में आंबेडकर के विरूद्ध ज़हर उगला गया है। शौरी की वैचारिक प्रतिबद्धताओं के अनुरूप, यह पुस्तक, भारत में राष्ट्रवादी विचारों के घटते प्रभाव पर अफसोस ज़ाहिर करने से शुरू होती है। शौरी को इस बात पर गम था कि राष्ट्रवाद का स्थान कुछ अप्रासंगिक व विवादित मुद्दों ने ले लिया है, जिन्हें वे ‘‘नारे-सह-भगदड़’’ (स्लोगन-कम स्टेम्पीड) कहते हैं। इन मुद्दों में, शौरी के अनुसार, ‘गरीबी हटाओं’ और ‘सामाजिक न्याय’ शामिल हैं। शौरी की मान्यताओं का सार यह है कि जहां गांधी ने भारत के विभिन्न वर्गों को एक करने में महती भूमिका निभाई, वहीं आंबेडकर न केवल एक प्रतिगामी नेता थे, वरन उन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता के आंदोलन के साथ द्रोह भी किया। शौरी के अनुसार आंबेडकर ने अंग्रेज़ों के खिलाफ लड़ाई के दौरान अपना अलग, बेसुरा राग अलापा और वे, कुल मिलाकर, ब्रिटिश साम्राज्य के पिट्ठू थे[10]

यह तर्क दिया जा सकता है कि अरूण शौरी की भले ही आरएसएस की विचारधारा के प्रति सहानुभूति रही हो परंतु ‘‘वर्शिपिंग फाॅल्स गाॅड्स’’ आरएसएस का प्रकाशन नहीं था और इसलिए यह पुस्तक आंबेडकर के बारे में आरएसएस के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करती।

परंतु आंबेडकर पर आरएसएस के ‘सुरूचि प्रकाशन’ द्वारा हाल के कुछ वर्षों में प्रकाशित साहित्य में जिस तरह से उनके चुने हुए विचारों को तोड़मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया है, उससे यह स्पष्ट है कि आरएसएस आज भी आंबेडकर के क्रांतिकारी, जाति-विरोधी विचारों से सहमत नहीं है। बल्कि ये विचार उसे अप्रिय व असुविधाजनक लगते हैं।

मैं यहां आंबेडकर पर ‘सुरूचि प्रकाशन’ द्वारा पिछले कुछ वर्षों में प्रकाशित तीन प्रबंधों की विवेचना कर रहा हूं। ये तीनों प्रबंध पतली पुस्तिकाओं के रूप में प्रकाशित हुए हैं। इनके शीर्षक हैं 1) मनुस्मृति और  डाॅ. आंबेडकर (2014), 2) प्रखर राष्ट्रभक्त डाॅ. भीमराव आंबेडकर (2014) और 3) राष्ट्रपुरूष बाबासाहेब डाॅ. भीमराव आंबेडकर (2015)[11]। इनमें से अंतिम दो आंबेडकर की जीवनियां हैं।

आरएसएस द्वारा प्रकाशित आंबेडकर की दोनों जीवनियां उनका भरपूर स्तुतिगान करती हैं और राष्ट्र निर्माण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर ज़ोर देती हैं। दोनों ही किताबों में उन्हें हिन्दू समुदाय के वैद्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिसका लक्ष्य हिन्दू समाज को सुधारना था ना कि उसे त्यागना। ये पुस्तिकाएं आंबेडकर को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करती हैं जो हिन्दू समाज में जाति, वर्ग और सांस्कृतिक अंतरों के कारण आ गई दरारों पर सीमेंट लगाकर उन्हें बंद करना चाहता था क्योंकि इन दरारों के कारण भारत पर विदेशियों के आक्रमण आसान हो गए थे। इन जीवनी-लेखकों के मन में तनिक भी संदेह नहीं है कि हिन्दू ही भारत की राष्ट्रीय मुख्यधारा हैं।

पुस्तिकाएं कहती हैं कि आंबेडकर भले ही ज्ञानार्जन के लिए पश्चिमी देशों में गए हों, परंतु मूल रूप से वे हिन्दू ही बने रहे और हिन्दू धर्म के मूल्यों में उनकी अडिग आस्था थी। सन 2015 में प्रकाशित जीवनी में यह दावा किया गया है कि उन्होंने यह शपथ ली थी कि ‘‘अपनी मातृभूमि से दूर रहने के दौरान वे शराब और गोमांस चखेंगे तक नहीं’’।

दोनों जीवनियां आंबेडकर के अछूत प्रथा के विरूद्ध पहले सार्वजनिक संघर्ष – 1927 के महाड़ सत्याग्रह – का बड़े अनबने भाव से वर्णन करती हैं। जहां वे आंबेडकर के चावदार तालाब के पानी पर अछूतों और उच्च जातियों के हिन्दुओं की बराबर पहुंच स्थापित करने के अभियान का समर्थन करती हैं, वहीं वे बार-बार इस बात पर ज़ोर देती हैं कि आंबेडकर की हिन्दू धर्म के लोकाचार में संपूर्ण निष्ठा थी। पुस्तिकाओं में यह भी कहा गया है कि आंबेडकर, भगवदगीता से प्रेरणा ग्रहण करते थे और भले ही उन्होंने मनुस्मृति दहन किया हो, परंतु भगवदगीता के मूल सिद्धांतों में उनकी अगाध आस्था बनी रही। वे अगर यह चाहते थे कि सभी जातियों के लोगों को बिना किसी भेदभाव के मंदिरों में प्रवेश मिले और अगर उन्होंने यह मांग की थी, कि अछूतों – जिन्हें उस दौर में डिप्रेस्ड क्लासेस कहा जाता था – को पृथक मताधिकार दिया जाए तो उनका उद्देश्य यही था कि अछूत अपनी हिन्दू जड़ों से दूर न जाएं। सन 2014 में प्रकाशित जीवनी के अनुसार, पूना पैक्ट के ज़रिए पृथक मताधिकार के मुद्दे पर आंबेडकर के गांधी से समझौता करने से यह साबित होता है कि वे हिन्दू धर्म की एकता बनाए रखने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ थे।

दोनों में से किसी भी जीवनी में यह नहीं बताया गया है कि पूना पैक्ट के बाद, आंबेडकर गांधी के प्रति कितनी कटुता का अनुभव करने लगे थे और इसी के नतीजे में उन्होंने हिन्दुओं से जाति का उन्मूलन करने का आह्वान किया था। यह बहुत अजीब है कि दोनों ही पुस्तकों में आंबेडकर की सबसे महत्वपूर्ण कृति ‘एनीहिलेशन आॅफ कास्ट’ की चर्चा तक नहीं की गई है।

के. सत्यनारायण का यह दृढ़ विचार है कि हिन्दुत्व की शक्तियां, कभी भी आंबेडकर पर कब्ज़ा नहीं कर सकतीं। यह निराशा के अंधेरे से भरे आज के दौर में प्रकाश की एक किरण है। आंबेडकर का यह दृढ़ विचार था, कि जाति, हिन्दू धर्म का मूल आधार है और जब तक हिन्दू धर्म को नष्ट नहीं कर दिया जाता तब तक जाति बनी रहेगी

दोनों पुस्तिकाओं में हिन्दू धर्म को त्यागने के आंबेडकर के निर्णय, जिसका कारण उन्होंने ‘एनीहिलेशन आॅफ कास्ट’ के अंत में स्पष्ट किया है, को ये पुस्तिकाएं हिन्दू धर्म के प्रति उनका विरोध तो बताती हैं परंतु आंबेडकर को हिन्दू-विरोधी बताने से लगातार बचती हैं। यह सर्वज्ञात है कि आरएसएस की विचारधारात्मक अगुआ हिन्दू महासभा ने आंबेडकर द्वारा धर्मपरिवर्तन को रोकने की भरसक कोशिश की थी। हिन्दू महासभा कतई नहीं चाहती थी कि अछूत, किसी ‘‘गैर-भारतीय’’ धर्म जैसे इस्लाम या ईसाईयत को अपनाएं। हिन्दू महासभा के नेताओं, व विशेषकर बीएस मुंजे और वीर सावरकर, ने कई गुप्त बैठकें आयोजित कर यह कोशिश की कि आंबेडकर अमृतसर में सिक्ख पंथ के साथ वार्ता करें। ये वार्ताएं असफल हो गईं परंतु आरएसएस और हिन्दू महासभा को तब बहुत राहत मिली जब दो दशक बाद, आंबेडकर ने अपने अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म को अपनाया। यह अलग बात है कि आंबेडकर ने मूल बौद्ध धर्म में अपनी ओर से कई परिवर्तन कर उसे अपनाया था। सावरकर ने आंबेडकर के इस निर्णय की ज़ोरदार प्रशंसा करते हुए कहा था कि बौद्ध आंबेडकर, अंततः, हिन्दू आंबेडकर ही हैं[12]

यह अजीब है कि दोनों ही जीवनियों में उद्धृरणों की संदर्भ ग्रंथ सूची नहीं दी गई है। सन 2015 में प्रकाशित जीवनी में कई उद्धृण हैं परंतु संदर्भ ग्रंथ सूची है ही नहीं। सन 2014 की जीवनी में संदर्भ ग्रंथ सूची है परंतु यह बहुत छोटी है और इसमें सभी उद्धृरणों का संदर्भ नहीं दिया गया है। इससे लेखकों द्वारा प्रस्तुत उद्धृरणों की प्रमाणिकता के बारे में संदेह उपजना स्वाभाविक है।

आंबेडकर और मनुस्मृति

सुरूचि प्रकाशन की आंबेडकर के संबंध में पुस्तिकाओं का सबसे अजीब पक्ष है, आंबेडकर की मनुस्मृति की व्याख्या के संबंध में उनका रूख। ‘मनुस्मृति और डाॅ. आंबेडकर’ में आंबेडकर की मनुस्मृति की व्याख्या के संबंध में 20 तर्क बिन्दुवार दिए गए हैं। तर्कों की यह सूचि पुस्तिका के अध्याय चार (‘सारांश’) में हैं। पहले अध्याय (‘यह पुस्तिका क्यों?’) में आंबेडकर की मनुस्मृति की व्याख्या के संबंध में टिप्पणी की गई है। पुस्तिका कहती है कि आंबेडकर ने स्वयं यह स्वीकार किया था कि संस्कृत भाषा का उनका ज्ञान सीमित था और इसलिए उन्होंने मनुस्मृति को समझने के लिए इस पुस्तक के वेद-विरोधी, प्राच्य अध्येताओं जैसे मैक्समूलर और जार्ज बुल्हर द्वारा किए गए अनुवादों का इस्तेमाल किया। पुस्तक कहती है कि इसकी जगह अगर उन्होंने इस पुस्तक के संस्कृत के पंडित गंगानाथ झा द्वारा किए गए अंग्रेज़ी अनुवाद का इस्तेमाल किया होता, तो वे मनु के विचारों को बेहतर समझ पाते।

‘‘मनुसमृति और डाॅ. आंबेडकर’’ पुस्तिका के प्रकाशन के चार घोषित उद्देश्य दिए गए हैंः

  1. इस गलत धारणा को मिटाना कि ‘मनुस्मृति’ हिन्दू समाज के वर्तमान असमान स्वरूप की समर्थक है।
  2. इस भ्रांति का निवारण करना कि मनुस्मृति, जातिवादी और लैंगिकवादी दकियानूसीपन का अनुमोदन करती है और उसकी विश्व दृष्टि ब्राह्मणवादी है।
  3. उन पूर्वाग्रहों की पड़ताल करना, जिनके कारण आंबेडकर ने मनुस्मृति की कड़ी आलोचना की और
  4. यह बताना कि आंबेडकर द्वारा मनुस्मृति में वर्णित वर्णव्यवस्था को खारिज किया जाना क्यों गलत था। वर्णव्यवस्था, मनु के सिद्धांतों का मूल तत्व और हिन्दू सभ्यता का आधारभूत सिद्धांत है। पुस्तिका का तर्क यह है कि वर्णव्यवस्था, दरअसल, केवल हिन्दुओं को उनके द्वारा किए जाने वाले कार्यों के आधार पर विभाजित करने की योजना है।

अध्याय 2 (‘‘डाॅ. आंबेडकर की दृष्टि में मनुस्मृति’’), प्रश्नोत्तर स्वरूप में है। इस अध्याय का उद्देश्य है आंबेडकर और आंबेडकरवादियों द्वारा मनस्मृति की गलत व्याख्या से उपजी भ्रांतियों का निवारण। आंबेडकर द्वारा मनुस्मृति के मिथ्या निरूपण के पीछे तीन कारक बताए गए हैं।

  1. पश्चिमी देशों में अपने अध्ययन के दौरान वे हिन्दुओं और भारतीयों के संबंध में कई पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो गए थे।
  2. हिन्दू धर्मग्रंथों की उनकी समझ, मुख्यतः पश्चिमी अध्येताओं द्वारा इन ग्रंथों के अनुवाद पर आधारित थी।
  3. वे व्यक्तिगत तौर पर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे और उससे घृणा करते थे। वे समकालीन हिन्दू समाज पर जाति प्रथा के प्रभावों के कटु निंदक थे।

पुस्तक के लेखक यह विलाप करते हैं कि इन तीनों कारणों से आंबेडकर ने ‘ब्राह्मण’ शब्द का शाब्दिक अर्थ ग्रहण कर लिया। लेखक का तर्क है कि अगर आंबेडकर इस बात को समझ पाते कि ब्राह्मण कोई जाति नहीं है बल्कि एक विशिष्ट आचरण का नाम है, तो उन्हें एहसास होता कि ब्राह्मणवाद, जिसे बहुत बदनाम किया गया है, दरअसल पवित्रता, साधुता और निःस्वार्थ सेवाभाव का दूसरा नाम है।

अगर पुस्तक के दूसरे अध्याय का शीर्षक ‘आंबेडकर ने मनुस्मृति में क्या छोड़ दिया?’ रखा गया होता तो बेहतर होता। इस अध्याय में इस हिन्दू धर्मग्रंथ, जो लेखक के अनुसार वेदों जितना महत्वपूर्ण है, की आंबेडकर की समझ में कमियों को गिनाया गया है। इसमें जो कुछ कहा गया है, उससे ऐसा प्रतीत होता है कि लेखक को आंबेडकर की विद्वता पर गहरा संदेह है। इस पुस्तिका में अपरोक्ष रूप से बार-बार यह कहा गया है कि कोई गैर-हिन्दू कभी मनुस्मृति के मूल भाव को उतनी अच्छी तरह से नहीं समझ सकता जितना कि कोई हिन्दू। क्या यह अछूतों पर भी लागू होता है? क्या वे भी मनुस्मृति के असली अर्थ को नहीं समझ सकते?

के. सत्यनारायण का यह दृढ़ विचार है कि हिन्दुत्व की शक्तियां, कभी भी आंबेडकर पर कब्ज़ा नहीं कर सकतीं। यह निराशा के अंधेरे से भरे आज के दौर में प्रकाश की एक किरण है। सत्यनारायण हमें यह याद दिलाते हैं कि आंबेडकर का यह दृढ़ विचार था, जिसे उन्होंने एनीहिलेशन आॅफ कास्ट में भी वर्णित किया है, कि जाति, हिन्दू धर्म का मूल आधार है और जब तक हिन्दू धर्म को नष्ट नहीं कर दिया जाता तब तक जाति बनी रहेगी[13]। क्या हिन्दू धर्म का यह कट्टर विरोधी कभी भी हिन्दुत्व के देवगणों में शामिल हो सकता है?

[1] नरेन्द्र जाधव, अंबेडकरः अवेकनिंग इंडियाज़ सोशल कांशन्स, दिल्लीः कोणार्क प्रेस, 2014 से उद्धृत।

[2] रामचंद्र गुहाः ‘‘विच आंबेडकर?’’, इंडिया न्यूज़, 21 अप्रैल, 2016

[3] ‘‘विल दलित्स कन्टीन्यू टू स्टे विथ बीजेपी, आॅर मूव बैक टू बीएसपी फोल्ड?’’, प्रेस रीडर-इकोनाॅमिक टाईम्स, 28 फरवरी, 2017

[4] आनंद तेलतुम्ड़े, ‘‘हिन्दुत्व एंड दलित्सः पर्सपेक्टिव्स फाॅर अंडरस्टेण्डिंग कम्यूनल प्रेक्सिस’’; कोलकाता, साम्य बुक्स, 2005। बदरी नारायण ‘‘फेसिनेटिंग हिन्दुत्वः सेफराॅन पाॅलिटिक्स एंड दलित मोबिलाईजेशन’’, दिल्लीः सेज पब्लिकेशंस, 2009

[5] बदरी नारायण ‘‘फेसिनेटिंग हिन्दुत्वः सेफराॅन पाॅलिटिक्स एंड दलित मोबिलाईजेशन’’, पृष्ठ 20

[6] अरूण श्रीवास्तव, ‘‘एप्रोप्रिएटिंग अंबेडकर एंड हिज़ लीगेसी फाॅर ए राईटिस्ट काॅज़’’, मेनस्ट्रीम, वर्ष 54, अंक 26, पृष्ठ 1

[7] अरूण श्रीवास्तव, ‘‘एप्रोप्रिएटिंग अंबेडकर एंड हिज़ लीगेसी फाॅर ए राईटिस्ट काॅज़’’, पृष्ठ 1

[8] आनंद तेलतुम्ड़े, ‘‘हिन्दुत्व एंड दलित्सः पर्सपेक्टिव्स फाॅर अंडरस्टेण्डिंग कम्यूनल प्रेक्सिस’’, में प्रकाश लुई के लेख ‘‘हिन्दुत्वः हिस्टोरिसिटी आॅफ दलित कनेक्शन’’ में उद्धृत, पृष्ठ 146

[9] नरेन्द्र जाधव, ‘‘अंबेडकरः अवेकनिंग इंडियाज़ सोशल कांशन्स’’ में उद्धृत, पृष्ठ 594

[10] शौरी, अरूण; ‘‘वर्शिपिंग फाॅल्स गाॅड्सः अंबेडकर एंड द फैक्ट्स विच हेव बीन इरेज़्ड’’; दिल्लीः एएसए पब्लिकेशन्स, 1997

[11] सुरूचि प्रकाशन का विक्रय केन्द्र दिल्ली में आरएसएस मुख्यालय केशव कंुज की ओर जाने वाली सड़क के किनारे एक इमारत में स्थित है। दुकान बहुत छोटी है परंतु वहां बड़ी संख्या में ‘राष्ट्रवादी साहित्य’ विक्रय के लिए उपलब्ध है। इनमें पर्चे, प्रबंध और किताबें तो शामिल हैं ही, टेबल पर रखे जाने वाले और दीवार पर टांगे जाने वाले कैलेण्डर और अन्य स्मृति चिन्ह भी हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सब हिन्दुत्ववादी हैं।

[12] इस संबंध में अंबेडकर के कई जीवनी लेखकों ने बहुत कुछ लिखा है। इनमें से महत्वपूर्ण हंै धनंजय कीर की ‘डाॅ. अंबेडकर्स लाईफ एंड मिशन’’, (पापुलर प्रकाशन, बंबई, 1954) व क्रिस्टोफर ज़ेफरलाॅट की ‘‘डाॅ. अंबेडकर एंड अनटचेबिलिटीः एनालाईज़िंग एंड फाइटिंग कास्ट’’ (दिल्ली, परमानेंट ब्लैक, 2004)

[13] के. सत्यनारायण, ‘‘अंबेडकर केन नाॅट बी एडोप्टेड आॅर एप्रोप्रिएटिड बाॅय हिन्दुत्व’’ के अनुवाद से। इस पुस्तक, जिसके वे सहलेखक थे, के विमोचन के अवसर पर तेलुगू में दिए गए मूल भाषण का पाठ और वीडियो, दलित कैमरा पर उपलब्ध है।


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लेखक के बारे में

तपन बसु

तपन बसु, दिल्ली विश्वविध्यालय के अंग्रेजी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्होंने साहित्य, पहचान की राजनीति और शिक्षा पर कई पुस्तकों का लेखन व संपादन किया है, जिनमें शामिल हैं "खाकी शॉर्ट्स, सैफरन फ्लैग्स: ए क्रिटीक ऑफ़ द हिन्दू राईट" (सहलेखन), "बियॉन्ड द नेशनल क्वेश्चन: शिफ्टिंग एजेंडास ऑफ़ अफ्रीकन-अमेरिकन रेजिस्टेंस फ्रॉम इमेनसीपेशन थ्रू द लोंस एंजेलस रायट्स", "चिनुआ अचेबेस थिंग्स फाल अपार्ट: अ क्रिटिकल कम्पैनियन" (सम्पादित) व "इंडिया इन द ऐज ऑफ़ ग्लोबलाइजेशन: कंटेम्पररी डिस्कोरसिस एंड टेक्स्ट्स" (सम्पादित). उनके शोध प्रबंध और लेख कई पुस्तकों और पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं

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