वेद देव स्तुति से भरे हैं। देवता मतलब वह जो देता है। वेदों में सर्वाधिक प्रार्थना इंद्र की हुई है। पर इसका मतलब यह नहीं कि इंद्र सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं। इंद्र के बाद सबसे ज्यादा मंत्र अग्नि पर हैं। ऋग्वेद का आरंभ ही अग्नि पर लिखी ऋचा से होता है। यह सम्मान इंद्र को नहीं मिला है। दरअसल किस पर कितनी ऋचा है इससे ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसमें क्या लिखा है। इंद्र पर लिखी गईं अधिकांश ऋचाएं धन-धान्य के लोभ में लिखी गई हैं। यजुर्वेद के तीसरे अध्याय में लिखा गया है कि, “ हे सैकडों कर्मो वाले इंद्र , हमारे और तुम्हारे मध्य परस्पर क्रय-विक्रय जैसा व्यवहार संपन्न हो। अर्थात मुझे हर्विअन्न का फल मिलता रहे। हे इंद्र मूल्य लेकर क्रय योग्य फल मुझे दो। फिर उन ऋचाओं में इंद्र को सर्वश्रेष्ठ भी नहीं बताया गया है। अथर्ववेद में भात यानी चावल को देव मानकर कई ऋचाएं हैं। उनमें भात को जो सम्मान मिला है वह इंद्र के लिए लिखी गई सैकडों ऋचाओं में नहीं है।
भात को न केवल त्रिदेवों का कारक बताया गया है बल्कि उसे काल का भी जन्मदाता माना गया है। इसी तरह उच्छिष्ट यानि जूठन-मधु की प्रशंसा में जो लिखा गया है उनमें भी मधु की इंद्र से अच्छी स्तुति है। इसी तरह रूद्र को भी जो महत्व दिया गया है। यजुर्वेद में वह इंद्र से कम नहीं है। एक श्लोक में लिखा गया है- “हे रूद्र आपके नेत्रों में तीनों लोक प्रकाशित हैं। आपको अन्य देवताओं से अलग और उत्कृष्ट जानकर हम आपको यज्ञ का भाग देते हैं।” रूद्र को चिकित्सक के रूप में महत्व देते हुए कहा गया है कि – “तुम सर्वरोगनाशक औषधि प्रदान करो और हमें जन्म-मरण के चक्र से मुक्त करो।”
ऐसा नहीं था कि वैदिक ऋषि केवल देवों और त्रिदेवों को ही पूजते थे। वे भात, मधु, पत्थर, आदि के साथ यजमान को भी पूजते थे। अपनी प्रशस्ति गाने में भी वे पीछे नहीं रहते थे। बहुत से ऋषियों ने खुद पर ही ऋचाएं लिखी हैं। जैसे अथर्ववेद में अथर्वा खुद की अभ्यर्थना करते हुए अपने को देवताओं से भी बडा दिखाते हैं।
यजुर्वेद के तीसरे श्लोक में यजमान के लिए ऋषि लिखते हैं- हे यजमान, यश के निमित्त अन्न और अपरिमित धन व बल पाने के लिए मैं तुझे पूजता हूं। इस तरह वेद देवों-मनुष्यों-ऋषियों के भौतिकतावादी व्यवहार को ज्यादा और आध्यात्मिक व्यवहार को कम उजागर करते हैं।
स्त्रियों ने भी रची हैं वैदिक ऋचाएं
वेदों के पुनर्पााठ की इस कड़ी में आप देखेंगे कि जिस स्त्री के वेद पढ़ने पर ही प्रतिबंध था, उसके कई हिस्सों की रचयिता वे खुद हैं।
वेदों को लेकर सबसे बड़ी वितंडा यह है कि यह अपौरुषेय और ब्रह्मा की लकीर है, वेदों का अध्ययन करने पर यह भ्रम सबसे पहले दूर होता है। वेद की हर ऋचा को रचनेवाले ऋषि का नाम उसमें दर्ज है और ऋषि एक-दो नहीं पच्चीसों हैं, जिनमें दर्जनों नारियां है। अब कोई एक लेखक हो तो उसका नाम लिखा जाए। वेद के लेखक के रूप में! बहुत सारे लेखक होने के कारण ही सबका नाम उनकी रचना के साथ दिया गया है।
वेद ब्रह्मा की लकीर भी नहीं हैं, इस बारे में तो हमारे पुराने शास्त्रों में ही कई कथन मिल जाएंगे। परशर-माध्वीय में कहा गया है-
“श्रुतिश्च शौचमाचार: प्रतिकालं विमिध्यते।
नानाधर्मा: प्रावर्तन्ते मानवानां युगे युगे।।”
मतलब, हर युग में मनुष्यों की श्रुति (वेद), आचार, धर्म आदि बदलते रहते हैं। अब सवाल उठेगा कि वेदों की तब क्या प्रासंगिकता है? जवाब में हम सिर ऊंचा कर कह सकते हैं कि वेद प्राचीन काल के पुरुषों-स्त्रियों के प्रथमानुभूत विचार हैं, पर वे अन्तिम विचार नहीं हैं। उनमें जो भी चीजें थीं, जो हमें कुछ देती थीं, वे आगे देवता कहलाने लगीं। ऐसा नहीं था कि केवल लाभदायक चीजें ही देवता कहलाईं। जो भय त्रास देती थीं, वे भी देवता कहलाई। कुछ प्रचलित वैदिक देवताओं के नाम देखें- जंगल, असुर, पशु, अप्सरा, बाघ, बैल, गर्भ, खांसी, योनि, पत्थर, दु:स्वप्न, यक्ष्मा (टीवी), हिरण, भात, पीपल आदि।
अब कुछ अप्रचलित ऋषियों के नाम देखें जिन्होंने वैदिक ऋचाए रचीं- मानव, राम, नर, कुत्स, सुतम्भरा, अपाला, सूर्या सावित्री, श्रद्धा कामायनी, यमी, शची पौलमी, ऊर्वशी आदि। वेदों की रचनाओं में स्त्रियों की महत्वपूर्ण भूमिका का अंदाजा ऋचाओं को पढ़कर लगाया जा सकता है।
मजेदार है कि स्त्री ऋषियों ने कई ऐसी ऋचाएं रची, जिनमें उन्होंने खुद को ही सर्वशक्तिमान कहा है।
कहीं यह स्त्रियों की मजबूत स्थिति ही तो नहीं है कि आगे षड्यंत्रकारी पुरुष वैदिक भाष्यकारों ने उनको वेद पढ़ने की ही मनाही कर दी, जिसकी आज तक वकालत की जाती है। जो स्त्रियां खुद वेद रच सकती हैं, उन्हें उनका पाठ करने से कोई कैसे रोक सकता है? वेद को पढ़ें, तो वे अपने समय की सहज रचना मालूम पड़ती हैं। बातें वहां बड़ी सीधी हैं। उनको समझने के लिए किसी प्रकाण्डता की जरूरत नहीं है, जरूरत उनकी अनुवाद के साथ उपलब्धता की है।
वेदों में प्रकृति को लेकर सहज उल्लास है, प्रकृति आज भी हमें उसी तरह प्रभुल्लित करती है। वहां छोटी-छोटी कामनाओं के लिए आदमी इन्द्र से याचना करता है। आज तक वह याचक वृति हमारे लिए अभिशाप बनी चली आ रही है। छोटे-छोटे डरों से भयाक्रान्त वैदिक मनुष्य ऋचाओं में उन्हें देवता पुकारता, उनसे मुक्ति की मांग करता है।
वह विकास का आरंभिक दौर था और जानने की प्रक्रिया में यह एक सहज क्रिया थी, कोई विशिष्ट नहीं। जैसे ऋग्वेद के दसवें खंड के 184 वें सूक्त में ऋषि त्वष्टा लिंगोक्ता : देव से प्रार्थना करते हैं- “विष्णुयोनि कल्पयतु, त्वष्टा रुपाणि पिंशतु।” मतलब, देवता स्त्री को प्रजनन योग्य बनावें। आज इस काम के लिए लोग डॉक्टर के पास जाते हैं।
क्या उन्हें आज भी किसी ऋषि की खोज करनी चाहिए? इसी तरह सूक्त 165 में कहा गया है, `इस अमंगलकारी कबूतर को हम पूजते हैं। हे विश्वदेव, इसे यहां से दूर करें।´ क्या आज भी हमें कबूतर को अशुभ मान उनसे डरना चाहिए। मतलब वेदों में शामिल की सभी बातें अटल ब्रह्मवाक्य सरीखे नहीं हैं, बल्कि उनमें अधिकांश आज अप्रासंगिक हैं और अनेक ऐसी बातें हैं जो प्रतिगामी हैं।
असुर नहीं, पूर्व देव
परम्परा में असुर देवता और असुर दोनों के पूर्वज हैं। उन्हें इसलिए पूर्वदेवा: भी पुकारा जाता है। संस्कृत में, असुर शब्द तो आधुनिक देवों के पूर्वदेवों (असुरों) से संघर्ष के बाद उनके लिए घृणा को प्रकट करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। ऋग्वेद में असुर शब्द का प्रयोग सौ से अधिक बार किया गया है जिसमें नब्बे बार उसका प्रयोग सकारात्मक है। ‘असु’ का अर्थ होता है प्राण और ‘र’ का माने है वाला, इस तरह असुर का मतलब हुआ प्राणवाला। इस तरह पहले यह शब्द प्राणवाले तमाम देवताओं के लिए प्रयुक्त होता था। इंद्र , मित्र आदि देवताओं के लिए भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है।
वे सभ्यताओं के संघर्ष में अपने हारे हुए शत्रुओं को सभ्य ढंग से क्यों पुकारेंगे? अर्थववेद के पृथ्वीसूक्त में एक पंक्ति है : असुरानभ्यवर्तयन्। इसका अर्थ है- जिस पृथ्वी पर पुराने लोगों ने कई प्रकार के कार्य किए और जिस पर देवताओं ने `असुरों´ पर आक्रमण किए । ये पुराने लोग पूर्वदेव ही थे।
कुछ लोग परम्परा के नाम पर खुद को वेदों तक सीमित रखते हैं वे पूर्वदवों की कृतियों को भूल जाते हैं। जबकि जानकर वेदों के पूर्व के साहित्य को भी उतना ही महत्व देते हैं। पौराणिक हिन्दू धर्म के पहले से निगमागम नाम से प्रसिद्ध है। ‘निगम’ का माने वेद हुआ और ‘आगम’ का मतलब प्राग्वैदिक वैदिकेतर परम्परा है। तुलसी दास ने भी निगमागम धर्म सम्मतं कहा है।
पूर्वदेवों को `अयज्ञा:´ `अनिंद्रा´ आदि भी पुकारा जाता था। ‘अयज्ञा’ यानी यज्ञ प्रथा को न मानने वाले और ‘अनिंद्रा’ मतलब इन्द्र को न माननेवाले। यज्ञ को मानने वाले उन्हें दास और दस्यु भी पुकारते थे। प्राग्वैदिकों के और भी कई नाम थे, जैसे-विद्याधर, नाग, यक्ष, राक्षस आदि।
यह कितनी मजेदार बात है कि असुर देवों के पूर्वज ही नहीं थे, वाकई उन्होंने देवों से पहले बहुत-सी अच्छी चीजें रची थीं। बुरा तो उन्हें देवों ने आगे साबित करने की कोशिश की। वे सभ्य भी थे। भवन निर्माण की कला भी वे जानते थे। इन्द्र का एक नाम पुरंदर यानी पुरों (नगरों) को नष्ट करने वाला भी है। महाभारत में भी एक जगह मय असुर का जिक्र है जिसने पांडवों के लिए भवन निर्माण किया था। संभवत: बाद में विजेता देवों ने असुरों को अपना दास बना लिया।
आज भी सारे कर्मकार और शिल्पकार तथाकथित सवर्ण जातियों के घेरे के बाहर पड़ते हैं। देखा जाए तो तथाकथित सारी सभ्यताओं का निर्माण दासों के शोषण से हुआ है।
अध्यात्म, दर्शन, ब्रह्मचर्य, आश्रम आदि की स्थापना भी देवों ने नहीं असुरों ने की थी। प्रह्लाद भी असुर थे उनके पुत्र कपिल ऋषि ने ही ये स्थापनाएं की थीं। यूं देव और असुर का बहुत साफ बंटवारा भी नहीं है। वैदिक देवों में एक देवता असुर भी है। फिर ऋषियों में एक कुत्स ऋषि हैं, जिससे बाद में कुत्सा शब्द बना। आज हिंदी में ‘कुत्सित’ शब्दा का इस्तेमाल एक गाली के रूप में होता है।
ऋषि और मुनि
ऋषि में सारी अच्छाइयां ही नहीं होती थीं। इस अर्थ में ऋषि शब्द मुनि से बहुत दूर पड़ता है। जबकि हम दोनों का एक साथ उच्चारण करते हैं। ऋषि-मुनि। ऋषि वैदिक शब्द है। जबकि मुनि बौद्ध और जैन धर्म से जुड़ता है। ऋषि जहां मूलत: मांसाहारी हैं, वहीं मुनि अहिंसक। ऋषि वेद सुननेवाले शूद्र को कान में गर्म रांगा भरने की बात करते हैं। जबकि मुनि दलितों के हितैषी और बौद्ध-जैसे सन्त सम्प्रदायों के जन्मदाता। मुनि मूलत: प्राग्वैदिक (वेदों के पूर्व से) हैं।
परम्परा में शिवत्व की भावना भी श्रोत वैदिकेत्तर (वेद से पूर्व) है। वेदों में शिव की नहीं रुद्र की चर्चा है। वहां रुद्र अन्तरिक्ष के विनाशकारी देवता हैं। जबकि शिव का सम्बन्ध पूर्वदेवों से है। असुर गण (भूत-प्रेत-पिशाच) उनके सहज मित्र हैं। यक्ष और राक्षस भी उन्हें प्रिय हैं। अपने असुर गणों की सहायता से ही उन्होंने दक्ष प्रजापति का वैदिक यज्ञ विध्वंस किया था।
इसी तरह हनुमान, भैरव, शक्ति, गणेश आदि का सम्बन्ध भी शिव से है। वेदों में इनका स्थान नहीं है। कहीं जिक्र है भी तो गौण रूप में। वेदों में ग्राम है, पर नगर नहीं। वहीं पुराणों में नगर निर्माता असुर मय दानव की चर्चा है।
वेद चार ही हैं आज। यूं ‘वेदत्रयी’ भी पुकारा जाता है। इसमें अथर्ववेद को छांट दिया जाता है। इसी तरह पहले धनुर्वेद, आयुर्वेद, गंधर्ववेद, सर्पवेद, पिशाचवेद, असुरवेद, आदि भी थे। जिन्हें बाद में भुला दिया गया है। देखा जाए तो असल में कर्मवेद वही थे, जबकि वेदत्रयी तो एक तरह से मनोवेद हैं। इसकी बातें भावनापरक और आकाशी ज्यादा हैं। जबकि बाकी वेद (विद्याएं) जीवन-जगत के ज्यादा काम की थीं। बाकी विद्याएं प्राग्वैदिक काल से ही चली आ रही थीं। प्राग्वैदिक देवों के अलग-अलग कामों से जुड़े उनके नाम थे, उनमें विविधता थी। जबकि वैदिक काल में एक मात्र मन की महत्ता को ही विविध रूप दे दिया गया। यजुर्वेद में एक श्लोक है, सूक्त 32 में-उसका अर्थ है कि अग्नि, वायु, आदित्य, प्रजापति, आदि एक ही देवता हैं। वे एक ही मूलतत्व की विभूतियां हैं।
साधो, मन माने की बात
मन एवं मनुष्याणां मन यानी कि मानस ही मनुष्य है, एक प्रचलित उक्ति है। वेद भी मन की महत्ता से भरे हैं। आज भी मन की शक्ति से खुद को मुक्त नहीं कर पा रहा है कोई। सारे संयम मन से ही संचालित होते हैं। कबीर ने भी लिखा था : मन ना रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा। पिछले वर्षों में भारत में ऐसे जोगियों की धूम मची रही। वे वेद-परम्परा आदि के नाम पर एड़ी-चोटी का पसीना एक करते रहे हैं

तैयब मेहता की महिषासुर पेंटिंग
यजुर्वेद में मन के बारे में ऋचा है : इयमुपरि मति:, मतलब यह जो मानस से उपजी बुद्धि है। वही सर्वोपरि है। आगे की ऋचाओं में उसे विश्वकर्मा भी बताया गया है। प्रजापति विश्वकर्मा मनो गंधर्व यानी मन रूपी गंधर्व ही प्रजापति ब्रह्म और विश्वकर्मा है।
दरअसल वेद के सारे कथन `मनमाने´ की बात हैं। वे प्रमाण हैं कि कैसे मानव मन का निरन्तर परिष्कार होता गया। उन्होंने वही लिखा, जो उनके मन को भाया। ऋग्वेद के पांचवें मंडल के सत्तरवें सूक्त में एक पंक्ति है-वय ते रुद्रा स्यामा। यानी हम भी दु:खहारी रुद्र हों। वहीं पहले मंडल के 164वें सूक्त में एक पंक्ति में इसी तरह कहा गया है कि हम सब भगवान हों।
मतलब आदमी-देवता और भगवान में कोई विशेष अन्तर नहीं था। वैदिक माल में वैदिक ऋषि देवता होने की कामना करते थे, देवता होते थे और जो उनके मन को भाता था उसे देवता पुकारते थे। यह सब मनोभाव के स्तर पर था, उसकी कोई मूर्ति नहीं थी। यजुर्वेद के बत्तीसवें सूक्त में एक पंक्ति है – ‘न तस्य प्रतिमा अस्ति।’ यानी उस परमचैतन्य की मूर्ति नहीं बनाई जा सकती। ऐसा इसलिए था कि ईश्वर या देव एक मनोभाव था। अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग काल में उसके पृथक निहितार्थ थे।
देखा जाए तो वैदिक काल में मनुष्यों का मन भी तरह-तरह की कल्पनाएं करता है। जब वह सुबह को देखता है तो उल्लासित हो उठता है। और उषा की अर्चना में ऋचाएं रचता है। रात से वह भी भय खाता है और उसे सर्वग्रासी बताता है। सोमपान के बाद उसका मन भी प्रमत्त हो जाता है और वह असंभव कल्पनाएं करने लगता है। जरा ऋग्वेद के दसवें मंडल के 119वें सूक्त की पंक्तियों के अर्थ देखें। उसमें कहा गया है : “मैं पृथ्वी को जहां चाहूं उठाकर रख सकता हूं, क्योंकि मैं अनेक बार सोमपान कर चुका हूं।´´ या “मेरा एक पक्ष स्वर्ग में स्थापित है तो दूसरा पृथ्वी पर। क्योंकि मैं अनेक बाद सोमपान कर चुका हूं।´´
मनोभावों को स्वच्छन्द ढंग से अभिव्यक्त करने की यह प्रवृत्ति मात्रा पुरुषों में ही नहीं है। स्त्रियां इसमें और भी आगे है। ऋग्वेद के अन्तिम मंडल के 159वें सूक्त में पंक्ति है- ‘अहं के तुरहं मूर्धा इहा मुग्रा विवाचुनी।’ यानी मैं (गृहपत्नी) घर की, परिवार की ध्वजा हूं। मस्तक हूं।
वेदों की आधारभूमि
वेदों में मांसाहारी समाज से विकसित हो, नए-नए बन रहे खेतिहर समाज के अनुभवों को ऋषियों ने अपनी ऋचाओं में अभिव्यक्त किया है। इन दोनों समाजों के बीच का टकराव वेद की आधारभूमि है। मांसाहार पर टिके पुराने मानुष समाज को नए खेतिहर समाज ने राक्षस की संज्ञा दी। इस विकास यात्रा में जो व्यक्ति या वस्तु उन्हें सहायक दिखते हैं। वे उसे देवता मान पूजा करते हैं। इन देवताओं में अग्नि-इंद्र से लेकर सोम, ओदन (भात) और मधु आदि सैकड़ों चीजें शामिल हैं। इन वेदों में आपको पूजा-प्रेम-घृणा-क्रूरता सभी भावों की अभिव्यक्तियां दिखती है।
वैदिक काल में यज्ञ एक महत्वपूर्ण क्रिया-कलाप था। अधिकांश ऋचाओं में ऋषि देवों को अपना यज्ञ सफल बनाने के लिए आहवान करते दिखते हैं। यज्ञ भी खेतिहर समाज के लिए उस समय एक जरूरी क्रिया थी। खेतिहर समाज को खेती के लिए लगातार जमीन की जरूरत पड़ती थी, चूंकि उस समय चारों ओर जंगल थे, तो उसके लिए वनों काटना और जलाना पड़ता था। इससे नई जमीन हासिल होती थी। यही काम आगे यज्ञ के रूप में मान्य हो गई। यज्ञ में हवन के रूप में जंगल में लाई लकिड़यां जलती थी। उससे उठे धुएं से बारिश होती थी, जो खेतिहर समाज के लिए जरूरी था। यज्ञों को लेकर भी मांसाहारी पूर्वजों से खेतिहर समाज के लोगों का युद्ध होता था। चूंकि यज्ञ के नाम पर वनों के विनाश से उनकी आखेट भूमि नष्ट होती थी। इसीलिए वे यज्ञों को नष्ट करते थे। और राक्षस की संज्ञा पाते थे।
Sh, Kumar Mukul Ji Let the sleeping dog lie. Peoples of today need better life with dignity, they are not much worried about the Asur or Sur. or devta or Insan. They are very well known that on the name of the fictitious story the upper strata of the Indian class robbed so much time. So please your history about Veda or Asur is complete meaningless, don’t try to convince the Shudra or dailt today that you are the very pious in past but….. in present you are deprived of all the fundamental rights. Tell this story to the Brahmin’s of Delhi.