इस बात की पूरी संभावना है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में ‘बांग्लादेशियों’ को भारत से निकालो’ का नारा, भारतीय जनता पार्टी का एक प्रमुख नारा होगा। यदि ऐसा होता है तो यह देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। इस नारे से भाजपा मतदाताओं का ध्रुवीकरण सफल हो सकती है और बाकी सभी चुनावी मुद्दे या तो गौण हो सकते हैं। इस मुद्दे को लेकर देश भर मे अत्यधिक गैर-जिम्मेदाराना और भड़काऊ टिप्पणियां की जा रही हैं। जैसे, भाजपा के एक नेता ने कहा है कि यदि बांग्लादेशी ख़ुशी- ख़ुशी नहीं जाते तो उन्हें गोली मार दो। इस तरह पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा है कि इस मुद्दों के लेकर खून की नदियां बहेंगी और गृहयुद्ध छिड़ जाएगा।

आसाम से बांग्लादेशियों को बाहर निकालने की मांग बहुत पुरानी है। परंतु इस मांग को आंदोलन का रूप वहां के आसामी भाषी छात्रों ने दिया। यह आंदोलन इतना तीव्र था कि उसके बड़े दूरगामी परिणाम हुए। पहला, छात्रों की पार्टी असम गण परिषद से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को समझौता करना पड़ा, दूसरा, इसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में असम गण परिषद को बहुमत मिला और प्रफुल्ल मोहंती मुख्यमंत्री बने। यह सरकार पूरे पांच वर्ष चली परंतु इन पांच वर्षों के दौरान एक भी बांग्लादेशी को देश से बाहर नहीं किया जा सका। इसके बाद के वर्षों में केन्द्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी और पूरे छःह वर्ष तक अस्तित्व में रही परंतु इस दरम्यान भी एक भी बांग्लादेशी देश के बाहर नहीं भेजा जा सका। भले ही भाजपा अपने शासनकाल में एक भी बांग्लोदशी को देश से नहीं निकाल सकी परंतु बांग्लादेशियों के मुद्दे को उसने जिंदा रखा। भाजपा की ओर से हमेशा यह दावा किया जाता रहा कि देश के विभिन्न भागों में रहने वाले बांग्लादेशियों की संख्या चार करोड़ से ज्यादा है।
यहां यह स्मरण दिलाना प्रासंगिक होगा कि जब बांग्लादेश पाकिस्तान का हिस्सा था, और पूर्वी पाकिस्तान कहलाता था, उस दौरान हुए चुनावों में मुजीबुर रहमान की अवामी लीग को बहुमत हासिल होने के बाद भी पाकिस्तान की सरकार ने एक ओर तो अवामी लीग के हाथ में सत्ता नहीं सौंपी और दूसरी ओर पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों पर क्रूरतम ज्यादतियां कीं। इन ज्यादतियों से बचने के लिए भारी संख्या में बांग्लादेशियों ने भारत में शरण ली। अधिकांश शरणार्थी मुसलमान थे परंतु इनमें हिंदुओं की भी अच्छी-खासी संख्या थी।

इसी दौरान अटल बिहारी वाजपेयी, जो मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार में विदेश मंत्री थे, से मैंने एक पत्रकार वार्ता में पूछा था कि बांग्लादेश के राजनीतिक शरणार्थियों के संबंध में आपका क्या नजरिया है? इस पर उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा कि बांग्लादेश के जिन हिन्दुओं ने भारत में शरण ली है वे शरणार्थी हैं और जो मुसलमान वहां से भारत में आए हैं वे घुसपैठिये हैं। संघ परिवार ने अपना यह रवैया कभी नहीं छोड़ा और इस मुद्दे पर असम में घृणा फैलाता रहा। यह घृणा इतनी गहरी हो गई कि सन् 1983 में नैल्ली नामक स्थान पर हुए जनसंहार में तीन हजार मुसलमान मारे गए।
बांग्लादेशी मुसलमानों के साथ ही असम के असमी भाषी मूल निवासी आम तौर पर सभी गैर-असमी भाषा भाषियों से छुटकारा पाना चाहते हैं। इस रवैये के चलते असम में अनेक बार हिन्दी भाषा भाषियों के विरूद्ध आंदोलन हुए।

असम में व्याप्त इस साम्प्रदायिक हालात को समाप्त करने का कोई भी सार्थक प्रयास नहीं किया गया। ऐसा कोई प्रयास असम में कांग्रेस सरकार के दौरान भी नहीं हुआ। वैसे असम में साम्प्रदायिक सौहार्द का लंबा इतिहास है परंतु उस इतिहास की जड़ों को गहरा करने का अभियान किसी ने भी नहीं छेड़ा।
इसी बीच कुछ वर्षों से वहां मतदातओं की सूची सुधारने का अभियान चलाया गया। इस अभियान के दौरान सभी मतदातओं की पहचान की गई और मतदाताओं को दो भागों में बांटा गया। पहले भाग में उन लोगों को रखा गया जिनकी मतदाता होने की पात्रता में कोई शंका नहीं थी और दूसरे भाग में वे मतदाता थे जिन्हें संदेहास्पद माना गया। मतदाता सूची में ऐसे मतदाताओं के नाम के आगे ‘डी’ अर्थात् डाउटफुल वोटर (संदिग्ध मतदाता) लिखा गया।
इस अभियान की वास्तविकता जानने के लिए मैं स्वयं अपने सहयोगियों के साथ असम गया। अपने असम प्रवास के दौरान मैं अनेक गांवों में गया। इस दरम्यान जो तथ्य मेरे सामने आए वे अत्यधिक चौंकाने वाले थे। उदाहरण के लिए एक ही परिवार में पति वैध मतदाता था और पत्नी संदिग्ध मतदाता। ऐसे ही मां वैध मतदाता तो उसके बच्चे संदिग्ध। इस अभियान के चलते अनेक लोगों का मताधिकार छीन लिया गया और इसने आसाम में भारी असंतोष को जन्म दिया। जिन्हें फर्जी मतदाता यानी ‘डी वोटर’ घोषित किया गया था उन्हें अपना पक्ष रखने के लिए अवसर दिया गया। इस हेतु 23 ट्रिब्यूनल गठित किए गए। डी वोटरों को इन ट्रिब्यूनलों के सामने अपना पक्ष रखने को कहा गया। परंतु प्रवास के दौरान मैंने पाया कि अनेक ट्रिब्यूनलों में जजों की नियुक्ति नहीं की गई और वे केवल कहने को ही अस्तित्व में रहे।
इस मुद्दे को लेकर हम वहां के राज्यपाल और अन्य अधिकारियों से मिले। अनेक प्रयासों के बावजूद मुख्यमंत्री से हमारी मुलाकात नहीं हो सकी। स्पष्टतः मतदाताओं की पहचान अत्याधिक लापरवाही और गैर-जिम्मेदाराना ढंग से की गई। लगभग ऐसी ही लापरवाही नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटीजन्स (एनआरसी) बनाने में भी की गई। समाचारपत्रों में आए दिन खबरें छप रही हैं कि पिता को नागरिक माना गया पर पुत्र को नहीं, पति को नागरिक माना गया पत्नी को नहीं, तीन भाई नागरिक के रूप में मान्यता पा गए पर दो भाईयों को नागरिक नहीं माना गया आदि। यहां तक कि हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद के भतीजे को भी नागरिक नहीं माना गया।
अब ज़रूरत इस बात की है कि नागरिकों की पहचान की यह प्रक्रिया दोबारा नए सिरे से प्रारंभ की जाए। जैसी कि पहले कहा गया है, पूरी संभावना है कि सन् 2019 के चुनाव में यह एक प्रमुख मुद्दा हो जाएगा इसलिए इस कार्य को आगामी लोकसभा चुनाव तक स्थगित रखा जाए। इसके साथ ही जिन लोगों ने इस कार्य में लापरवाही बरती है उन्हें दंडित किया जाए।
दुनिया के सारे देशों के नेताओं को इस सवाल पर विचार करना चाहिए कि ऐसे लोग कहां जाकर रहें जिन्हें उनका ही देश नागरिक मानने से इंकार कर दे। इस समय दुनिया मे अनेक देशों में यह समस्या उत्पन्न हो रही है। अनेक देशों के नागरिकों को विभिन्न कारणों से अपने-अपने देश से पलायन करना पड़ रहा है। सीरिया इसका जीता-जागता उदाहरण है। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप आए दिन दूसरे देशों के नागरिकों को अमरीका से बाहर निकालने की धमकी देते रहते हैं।
इस समस्या के हल के लिए एक ऐसा देश बनाया जाए जिसमें वे लोग बस सकें जिन्हें उनके अपने देश से निकाल दिया गया हो। इस तरह का देश संयुक्त राष्ट्र संघ बनाए और दुनिया के सभी देश इसमें सहयोग करें। जैसे यहूदियों के लिए इजराइल बना उसी तरह यह नया देश बनाया जा सकता है।
(कॉपी एडिटर : एफपी डेस्क)
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