जब विजयी शासकों ने अपने जश्न की यशोगाथा लिखी और अपनी सत्ता का इतिहास लिखा, तो अपने शत्रुओं का भयानक चित्रण किया, उन्हें आदमखोर राक्षस, निशाचर, पशुओं के शरीर वाला और न जाने किन-किन विकृत नामों की उपाधियाँ दीं, फिर उन हत्याओं की स्मृतियों में उत्सव मनाये गये। आज अगर हम इन उत्सवों पर टिप्पणियां करते हैं और उनको हत्याओं का जश्न बताते हैं, तो तत्काल हम राष्ट्रद्रोही हो जाते हैं। उनकी भावनाएं आहत हो जाती हैं, लेकिन भावनाएं तो दूसरों की भी आहत होती हैं। उनका क्या? जो सत्ता में हैं, उनकी भावनाएं होती हैं, पर जो सत्ता में नहीं हैं, उनकी भावनाओं का क्या? होली को लीजिए। यह क्या है? क्या यह कहना गलत होगा कि यह एक औरत को जिन्दा जलाने का जश्न है? फर्क सिर्फ इतना ही तो आया है कि जलाने वाले हाथों में अब लाठियों की जगह गन्ने हैं। होलिका तो स्त्री ही थी, उसे तो प्रति वर्ष जलाया ही जाता है, भले ही वह प्रतीकात्मक है। हिरण्यकश्यप को भूखे शेर के सामने डाल दिया गया था। कहानी का क्या है, कुछ भी गढ़ लो। और ये कहानियां हमें बताती हैं कि हिरण्यकश्यप वेदविरोधी था, यज्ञ विरोधी था।उसकी संस्कृति और विचारधारा ब्राह्मणों से अलग थी। ऋग्वेद की साक्षी है, आर्य इंद्र से प्रार्थना करते हैं कि ‘हे इंद्र, इन लोगों को मारो। ये यज्ञ नहीं करते हैं, इनकी संस्कृति अलग है, ये हमारे जैसे नहीं हैं। इनको मारकर आर्य संस्कृति की रक्षा करो।’
पूरा आर्टिकल यहां पढें : ईसाई और मुसलमानों से क्यों नफरत करते हैं स्वघोषित राष्ट्रवादी?