दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक मामलों की स्थायी समिति के एक सदस्य ने मांग की थी कि मेरी तीन पुस्तकें विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटा दी जाएं। उन्होंने दलील दी है कि “हिंदू धर्म के बारे में आयलैया की समझ गलत है और उनकी समझदारी को साबित करने के लिए कोई अनुभवजन्य डाटा नहीं है।”
पहले मुझे अपनी तीन पुस्तकों का उल्लेख करने दें, जिनके बारे में सवाल उठाया गया है। ये हैं- ‘गॉड ऐज़ पॉलिटिकल फिलॉस्फर : बुद्धाज चैलेंज टू ब्रह्मणिजम’, ‘व्हाई आई एम नाट हिंदू : ए शुद्र क्रिटिक ऑफ हिंदुत्व फिलोसफी’, ‘कल्चर एंड पाॅलिटिकल इकोनाॅमी’ और ‘पोस्ट-हिंदू इंडिया : ए डिस्कोर्स ऑन दलित-बहुजन सोशियो-स्प्रिचुअल एंड साइंटिफिक रिवोल्यूशन’।
पहली किताब प्राचीन भारतीय राजनीतिक विचारों पर है, जो मेरी पीएचडी थीसिस से विकसित हुई है। इसलिए यह अच्छी तरह से संदर्भित है और इसमें बहुत सारे उद्धरण दिए गए हैं। अन्य दो पुस्तकें– जिनकी दिल्ली विश्वविद्यालय की समिति द्वारा पूछताछ और जांच-पड़ताल की गई है; दलित-बहुजन, शूद्र सामाजिक समूह के ऊंचे तबके, आदिवासी और ब्राह्मण-बानिया समुदायों से संबंधित आंकड़ों से भरे हुए हैं। जो मुख्य रूप से तेलुगू भाषी क्षेत्र से लिए गए हैं। वे उनके जीवित यथार्थ, पेशा, औजार, संस्कृति और सामाजिक रिश्तों के बारे में हैं। वे वर्षाें किए गए ‘फील्ड वर्क’ के परिणाम हैं और उनको संदर्भित न करने के सशक्त पद्धति शास्त्रीय कारण हैं।
ऐतिहासिक रूप से किताबें दो प्रकार की खोजों का अंजाम होती हैं: पहला, ज्ञान की खोज और दूसरा, पहले से ही संकलित ज्ञान की समीक्षा। प्राचीन काल में ऐसी खोजें दो प्रकार की थीं। पहली, आध्यात्मिक मुद्दों से संबंधित थी। ऐसे ग्रंथ ईश्वर पर केंद्रित थे। बाइबिल, वेद और कुरान ऐसे ही साहित्य की मिसालें हैं।
दूसरी तरह के साहित्य उन लोगों द्वारा रचे गए थे, जिन्होंने अपने खुद के हालातों और अन्य लोगों के परिवेश से जुड़े हुए ज्ञान की तलाश की थी। लोगों के जीवन के बारे में प्राथमिक जानकारी दूसरे लोगों की पुस्तकों से नहीं पाई जा सकती। इसकी आसानी से समझ में आने वाली वजह यह है कि इस मामले में वे कोई हैसियत नहीं रखते हैं। इस तरह का ज्ञान विषयों और स्रोतों की समीक्षा करके साबित किया जा सकता है।

प्लेटो की किताब ‘रिपब्लिक’ और अरस्तु की ‘पॉलिटिक्स’ में भी अन्य रचनाओं को आधुनिक शैली में संदर्भित नहीं किया गया है। भारत में इस तरह का पहला सामाजिक विज्ञान लेखन कौटिल्य द्वारा किया गया था। इसलिए, अर्थशास्त्र में संदर्भ सूची नहीं है। यहां तक कि मनु का धर्मशास्त्र भी इसी अंदाज में लिखा गया था। ज्ञान की ऐसी खोज, मेरी राय में मौलिक ग्रंथों की रचना की ओर ले जाती है।
अन्य स्राेतों का संदर्भ और उद्धरण देना आधुनिक प्रचलन है। यह पुनर्जागरण के बाद के दिनों में विकसित हुआ है। शोध की विधि या तो अन्य साहित्य से विचारों को उधार में लेती है या फील्ड वर्क, अनुभवजन्य डाटा संग्रह को अन्य ग्रंथों के विश्लेषण के साथ जोड़ती है। पश्चिम के विद्वानों ने लोगों, वर्गों और जातियों के ज्ञान पर शोध किया और इस कोशिश से संदर्भित साहित्य की रचना हुई। लेकिन, यहां तक कि पश्चिम में भी उत्तर-आधुनिकतावादी लेखन, उद्धरणों का उपयोग न करने की विधि की ओर वापस लौट आया है।
ऐसी अनेक किताबें हैं, जो लोगों के जीवित अनुभवों, आदतों, सामाजिक संबंधों, कल्पनाओं, खान-पान की संस्कृति, यहां तक कि दर्शन के बारे में जानकारी पर आधारित हैं। इन्होंने ज्ञान के निर्माण के तौर-तरीकों को बदल दिया है। ऐसी रचनाएं उद्धरणों पर निर्भर नहीं होती हैं।
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आधुनिकतावादी विद्वत्ता, जिसमें तथाकथित राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी स्कूल शामिल हैं और हिंदू कट्टरपंथी शिक्षाविद इस उत्तर-आधुनिकतावादी खोज विधि को कबूल नहीं करते हैं। उनके मुताबिक, पीएचडी डिग्री पाने के लिए एक शोध को आधुनिकतावादी शोध विधि के मानदंडों पर निर्भर होना चाहिए। हिंदुत्व अकादमिक खेमा इस मामले में सबसे अधिक दकियानूसी है। यह खेमा उन्हीं किताबों को कसौटी पर खरा मानता है जो वेदों, रामायण, महाभारत, अर्थशास्त्र, धर्मशास्त्र, वी.डी. सावरकर की ‘हिंदुत्व : हू इज हिंदू’ , एम.एस. गोलवलकर की ‘बंच ऑफ थॉट्स’ और इसी तरह की दूसरी लेखनी को उद्धृत करता है। बेशक, दूसरे खेमे कई दूसरे स्रोतों को उद्धृत करने पर जोर देते हैं।
1990 के दशक में मंडल विरोधी आंदोलन के दौरान मुझे एक अहम पद्धतिशास्त्रीय समस्या से जुझना पड़ा। आरक्षण का बचाव कैसे करें? आरक्षण के बचाव के लिए इस तरह का कोई साहित्य नहीं था, जिसे उद्धृत करते हुए आरक्षण की हिमायत की जा सके। उस समय भारतीय मार्क्सवादियों ने मार्क्स, एंगल्स, लेनिन, स्टालिन और माओ के लेखन से उद्धरण दिए। मैं उद्धरण-आधारित पद्धति से बाहर निकल आया और ‘इकोनाॅमिक एंड पाॅलिटिकल वीकली’ में मैंने एक लेख लिखा- ‘रिजर्वेशन : एक्सपीरियंस एज ए फ्रेमवर्क ऑफ डिबेट’। इस छोटे-से लेख ने कई आरक्षण विरोधियों को अपने नजरिये पर फिर से सोचने के लिए मजबूर किया।
‘पोस्ट-हिंदू’ इंडिया ने आदिवासियों, दलितों, ओबीसी और शुद्र समूह के ऊपरी तबके के साथ-साथ बनिया और ब्राह्मणों के बारे में जानकारी के एक ऐसे संग्रह का निर्माण किया है, जिससे सटीक जानकारी पाई जा सकती है। यह हर प्रमुख समुदाय पर अध्ययन करने की कोशिश करता है। मैं गैर-प्राथमिक स्राेत (डाटा) के आधार पर उनके उपकरणों, कौशल, नीतिवचन, दर्शन और अतीत के बारे में शोध नहीं कर सका। इसकी वजह थी कि मुझे गांवों में प्रत्यक्ष तौर पर काम करना पड़ा। सैद्धांतिक तौर पर जायज ठहराने के लिए मैंने किसी को उद्धृत नहीं किया, क्योंकि किसी ने भी इन लोगों पर काम नहीं किया है।
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मैंने अपने सैद्धांतिक नजरिये को प्लेटो, अरस्तु या कौटिल्य की तरह ही सूत्रीकृत किया है। इन विद्वानों की तरह मैं भी निष्पक्ष नहीं था। कितने ही शिक्षाविदों को यह समझ में नहीं आता है कि देश की मुकम्मल संस्कृति के निर्माण में भारतीय समाज का जातियों में विभाजित होने का तथ्य एक सच्ची बाधा है। ज्ञान के निर्माण और लिखने के नए तरीकों के साथ प्रयोग के मामले में अब तक हम बेहतर नहीं रहे हैं। यह विश्वविद्यालयों की जिम्मेदारी है।
एक सूबाई विश्वविद्यालय में हुए मेरे प्रशिक्षण ने मुझे कई समुदायों के साथ उत्पादक सहयोग बनाए रखने का मौका दिया। एक शिक्षक होने के अलावा मैं एक कार्यकर्ता रहा हूं। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां राष्ट्रवादी, मार्क्सवादी और हिंदू कट्टरपंथी शिक्षाविदों की शाखाओं ने दुर्भाग्य से, हमें मायूस किया है। पीएचडी के स्तर पर ऐसे प्रयोग करने वाले विद्वान के लिए डिग्री हासिल करना नामुमकिन है। यही वजह है कि मैंने अपनी पीएचडी लिखने के लिए पारंपरिक तौर-तरीके का इस्तेमाल किया।
आरएसएस/बीजेपी के बौद्धिक नहीं चाहते हैं कि गौतम बुद्ध के राजनीतिक दर्शन को हमारे विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाए। राम का कोई संहिताबद्ध राजनीतिक दर्शन नहीं है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के कुछ दर्शन हैं, लेकिन इनकी परख कृषि उत्पादकों के दृष्टिकोण से की जानी चाहिए – न कि पुजारी और राजनेता के नजरिये से।
परिवर्तन को जन्म देने के लिए विश्वविद्यालयों को सबसे उर्वर जमीन समझा जाता है। लेखन के नए तरीकों की खोज यहीं से आनी चाहिए। उन्हें परिवर्तन से डरना नहीं चाहिए। जो लोग मेरी किताबों का विरोध करते हैं उन्हें इसे जरूर पढ़ना चाहिए और उन्हें अपने लेखन के जरिये इसे खारिज करना चाहिए। इससे छात्रों को मदद मिलेगी।
(अनुवाद : कुंदन ‘केडी’, अभय कुमार. कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)
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