मैंने बीते 31 अक्तूबर 2017 को फेसबुक पर ‘एक महान किताब ‘शस्त्रहीन हिन्दू हिन्दू नहीं’[1] की जानकारी दी थी। जिसके लेखक डा. वेदराम वेदार्थी, साहित्यरत्न, सिद्धांतशास्त्री, विद्यावाचस्पति, एम.ए., पीएचडी हैं। 1990 में अलीगढ़ से प्रकाशित इस पुस्तक का मूल्य ‘सहयोग’ है, जिससे पता चलता है कि उसका नि:शुल्क वितरण किया गया था। इस पुस्तक में ‘निवेदन’ के अंत में लेखक ने लिखा है–‘कारसेवक-दिवस’, 30 अक्टूबर 1990। इससे पता चलता है कि लेखक आरएसएस के मन्दिर आन्दोलन से जुड़ा है। इस किताब में पृष्ठ 35 पर यह ‘महान वचन’ लिखा हुआ है–
“भगवती दुर्गा सर्वासुरविनाशा एवं सर्व दानवघातिनी है। अत: प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को शत्रु–हन्ता होना चाहिए और उसे शत्रु–संहार के विभिन्न उपायों एवं युक्तियों का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए।“
“भगवती दुर्गा ने धर्म, संस्कृति, राष्ट्र एवं आर्यत्व (हिंदुत्व) की रक्षा के लिए असंख्य आतताइयों का संहार किया है। अत: प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को अपने जीवनकाल में कम–से–कम एक आतताई का वध अवश्य करना चाहिए। किन्तु आतताई की पहचान मनमाने ढंग से नहीं, अपितु मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों में दिए गए निर्देशों एवं लक्षणों के आधार पर करनी चाहिए।“
मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों में आतताई कौन लोग बताए गए हैं? मनुस्मृति में निम्नलिखित आदेश मिलते हैं—
- वेद-निंदक को राजा नगर से निकाल दे।[2]
- जिन्होंने अपने धर्म को छोड़ दिया है, और जो प्रतिलोम वर्णसंकर तथा विधर्मी पंथों के सन्यासी हैं, उनको जलांजलि नहीं देनी चाहिए।
- गुरु, देवता और शास्त्रों में जिनकी श्रद्धा न हो, जो वेद के विरुद्ध तर्क करता हो तथा जो नीचे दृष्टि रखकर चलते हों, उनका सम्मान न करे।[3]
- जो परम्परा, स्मृति और ज्ञान-दर्शन वेद पर आधारित नहीं हैं, वे सब परलोक के लिए निष्फल हैं।[4]
मनुस्मृति के इन आदेशों के अनुसार, वेदनिन्दक, अपना धर्म छोड़ने वाले लोग, (जो बौद्ध धर्म अपनाने वाले हो सकते हैं), प्रतिलोम वर्णसंकर, (यानी वे लोग, जिनके पिता शूद्र हैं), विधर्मी पंथों (जैसे जैन, बौद्ध और आजीवक) के सन्यासी, नीची दृष्टि रखकर चलने वाले लोग, (ये लक्षण भी बौद्ध भिक्षुओं के हैं) और वे लोग, जिनका ज्ञान वेद-आधारित नहीं है, यही लोग नास्तिक भी हैं, मनु की दृष्टि में सम्मान के अधिकारी नहीं हैं। उसने वेदनिन्दक को नगर से निकालने का निर्देश दिया है। किन्तु उल्लेखनीय है कि मनु ने इनमें से किसी की भी हत्या करने का आदेश नहीं दिया है।

धर्मानंद कोसंबी[5] का मत है कि चीनी यात्री फाहियान के समय के बाद गुप्त काल में, जिसे ब्राह्मण अपना स्वर्ण काल मानते हैं, ब्राह्मणवाद की बड़ी प्रतिक्रान्ति हुई, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं का कत्लेआम हुआ, और ब्राह्मणों द्वारा विपुल पौराणिक साहित्य लिखा गया। मनुस्मृति, रामायण और महाभारत आदि के निर्माण का यही समय है। वेद्निन्द्कों और बौद्धों के खिलाफ घृणा का प्रचार भी इसी युग में किया गया। रामायण में बुद्ध, चार्वाक और नास्तिक को चोर कहा गया है, यह इसका प्रमाण है. इतिहास में सुंग और शशांक काल में हम बड़े पैमाने पर वेद्निन्द्कों और बौद्धों का विनाश होता हुआ देखते हैं। इसके बाद निरंतर ब्राह्मणवाद की प्रतिक्रान्ति होती रही, और गैर-हिन्दुओं के प्रति नफरत फैलाई जाती रही।
आज के दौर में आरएसएस के हिंदुत्ववादियों के लिए विधर्मी आतताई ईसाई और मुसलमान हैं, और नास्तिक आतताई कम्युनिस्ट और प्रगतिशील लेखक-विचारक हैं। और ये ही लोग उनकी घृणा के सर्वाधिकार शिकार हैं।
डा. वेदराम वेदार्थी ‘शस्त्रहीन हिन्दू हिन्दू नहीं’ के निवेदन में लिखते हैं—
‘निस्संदेह हिन्दू विश्व के सर्वश्रेष्ठ मानव हैं। वे अनुपम प्रतिभा, पराक्रम तथा कौशल के धनी और प्राचीनतम, महानतम एवं मौलिकतम धर्म, संस्कृति और राष्ट्र के उत्तराधिकारी हैं। आर्य हिन्दू जन्मजात योद्धा हैं। उनके लगभग समस्त देवी–देवता शक्तिमान, शस्त्रधारी एवं शत्रु–हन्ता हैं। फिर भी ऐसे अनुपम, अद्वितीय, अजेय हिन्दू आज इतना दुर्दशाग्रस्त क्यों हैं और उनकी वर्तमान दुर्दशा का मूल कारण और उस मूल कारण का एकमात्र निर्णायक निराकरण क्या है?’[6]
हिन्दू सर्वश्रेष्ठ मानव हैं, यह कहकर अगर कोई अपनी तारीफ़ खुद करना चाहता है, तो करता रहे, इस पर कोई क्या कर सकता है? बात तो तब है, जब कोई दूसरा कहे कि हिन्दू वास्तव में सर्वश्रेष्ठ मानव हैं। और यह कहना तो और भी अपनी शेखी बघारना है कि ‘हिन्दू विश्व के सर्वश्रेष्ठ मानव हैं’। हिन्दुओं ने कौन सा विश्वस्तर का आविष्कार किया है, जो हिन्दू विश्व के सर्वश्रेष्ठ मानव हो गए? जिन हिन्दुओं को मुट्ठीभर मुसलमानों और अंग्रेजों ने पराजित कर उन पर एक हजार वर्ष तक शासन किया हो, वे कहां के योद्धा और कहां के पराक्रमी? वे तो हद दर्जे के कायर और डरपोक प्राणी हैं। अगर हिन्दुओं के ‘समस्त देवी-देवता शक्तिमान, शस्त्रधारी एवं शत्रु-हन्ता हैं’, तो उनकी शक्ति और शस्त्रविद्या ने किन शत्रुओं का विनाश किया था? जब हूणों, मुसलमानों और अंग्रेजों ने भारत पर चढ़ाई की, तो वे सारे शक्तिमान, शस्त्रधारी और शत्रु-हन्ता देवी-देवता कहां थे? कौन सी गहरी गुफा में जाकर सो गए थे? आतताई शत्रु हिन्दुओं का संहार करते रहे, और विष्णु शेषनाग की शैय्या पर आराम से शयन करते रहे। तब शिव का तीसरा नेत्र क्यों नहीं खुला, जो शत्रु को भस्म करने की क्षमता रखता है? जो देवी-देवता हिन्दुओं को शत्रुओं का गुलाम बनने से नहीं रोक सके, वे कहां के शत्रु-हन्ता? किस आधार पर लेखक सवाल कर रहा है कि ‘अजेय हिन्दू आज इतना दुर्दशाग्रस्त क्यों है?’ हिन्दू कब अजेय था और कौन से युग में था? कौन सा हिन्दू राजा अजेय रहा था? राणा प्रताप ने अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी, तो क्या वह अजेय हो गया था? अपना सारा राज्य गंवाने के बाद जंगलों में पलायन करना कौन-सी हिन्दू विजय का प्रतीक है?

आगे लेखक वेदराम हिन्दुओं की गुलामी को याद करते हुए प्रश्न करते हैं–
‘अरब, अफगान, मुगल आदि आतताई आक्रामक ऐसी परम पराक्रमी हिन्दू जाति के अजेय एवं
दिव्य राष्ट्र भारतवर्ष पर पुन:-पुन: आक्रमण करने का साहस किस प्रकार जुटा सके, वे हिन्दुओं
के मन्दिरों को धराशायी कर, उनके ही स्थान पर उनके ही मलबे से, मस्जिदों का निर्माण किस
प्रकार करा सके, वे लाखों आर्य पुत्रियों एवं आर्य पुत्रों को लौंडी और गुलाम बनाकर गजनी, बगदाद, मदीना और मक्का के चौराहों पर निर्वस्त्र प्रदर्शित कर नीलाम किस प्रकार कर सके। वे
असंख्य हिन्दुओं का धर्मान्तरण कर उन्हें अधर्मी एवं विधर्मी बनाने का कुचक्र किस प्रकार चला
सके, और वे देवभूमि भारतवर्ष तथा देवपुत्र आर्य हिन्दुओं के ऊपर सैकड़ों वर्षों तक घोर अन्याय
एवं क्रूरतापूर्वक कुशासन किस प्रकार कर सके?[7]’
इन सारे प्रश्नों के उत्तर लेखक वेदराम को हिन्दू इतिहास में मिल सकते थे, पर उन्होंने उसमें झाँकने का प्रयास नहीं किया. जिस प्रकार ब्राह्मण और हिन्दू शासकों ने बौद्ध मन्दिरों, विहारों और स्तूपों को धराशायी कर उनके स्थान पर उनके ही मलबे से हिन्दू देवी-देवताओं के मन्दिर खड़े किए, उसी प्रकार मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भी मन्दिर गिराए, और हो सकता है, उन्होंने कुछ के स्थान पर मस्जिदें भी बनाई हों। इतिहास हमेशा अपने को दोहराता है।
हिन्दू क्यों गुलाम बना? इसके उत्तर में लेखक लिखता है, ‘मैंने इस प्रश्न के उत्तर की खोज में अपने जीवन के लगभग 45 वर्ष खपाए हैं और ऋग्वेद से लेकर रामचरितमानस तक और तुलसीदास से लेकर दयानन्द, विवेकानन्द और रामतीर्थ तक लगभग समस्त वांग्मय का मंथन किया है। प्रभु के अनुग्रह से मुझे इस प्रश्न का उत्तर खोजने में सफलता भी मिली है। क्या है वह उत्तर? वह उत्तर है, सामान्य हिन्दू शस्त्रहीन था।’[8]

सामान्य हिन्दू क्यों शस्त्रहीन था, इसका कारण लेखक ने नहीं बताया है। जैसा कि आरएसएस का कोई भी चिंतक बताना नहीं चाहता, इसलिए इस पुस्तक का लेखक भी यह कैसे बताता कि सामान्य हिन्दू ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था के कारण शस्त्रहीन था? वह यह तो स्वीकार करता है कि ‘सामान्य हिन्दू के लिए शस्त्रहीनता की यह स्थिति एक विचित्र दासता की स्थिति थी। दासता और पराश्रितता की इस भयावह परिस्थिति में छुरेबाज आततायी आक्रामकों का प्रत्येक प्रहार सामान्य हिन्दू को और अधिक निराशावादी, और अधिक पलायनवादी, और अधिक अहिंसावादी, और अधिक आत्मवादी और और अधिक मोक्षवादी बनाता गया। सामान्य हिन्दू आर्य-पथ से भटक गया, भोले भक्तों ने और अधिक भटका दिया।’[9] पर, वह हिन्दू भारत का अध्ययन करके यह नहीं समझ सका कि हिन्दुओं को शस्त्रहीन और गुलाम बनाने का काम ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था ने किया था। उन्होंने तुलसीदास से लेकर दयानन्द, विवेकानन्द और रामतीर्थ तक अध्ययन किया, पर उन्हें इस अध्ययन में कहीं भी यह तथ्य नहीं मिला, कि हिन्दू समाज एक मिथक है। काश, उन्होंने कबीर, रैदास, जोतीराव फुले, राहुल सांकृत्यायन और डा. आंबेडकर को पढ़ने का प्रयास किया होता। अगर डा. वेदराम ने डा. आंबेडकर को पढ़ लिया होता, तो जिस प्रश्न का उत्तर खोजने में उन्होंने 45 साल खपा दिए, वह उत्तर उन्हें उनकी पुस्तक ‘जाति का विनाश’ पढ़कर ही मिल जाता। उसमें वह देख लेते कि—
“हिन्दू समाज एक मिथक है। स्वयं हिन्दू नाम ही विदेशी है। मुसलमानों ने यहां के हिन्दुओं को यह नाम दिया था, ताकि उनकी अपनी अलग पहचान बन सके। मुस्लिम आक्रमण के पहले किसी भी संस्कृत ग्रन्थ में यह नाम नहीं मिलता। उन्हें एक नाम की जरूरत ही महसूस नहीं हुई, क्योंकि उन्हें एक समुदाय का गठन होने की प्रतीति ही नहीं थी। अपने आप में हिन्दू समाज का अस्तित्व नहीं है। यह जातियों का एक समुच्चय मात्र है। प्रत्येक जाति को अपने अस्तित्व का एहसास है। उसके अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह बनी रहे।”[10]
डा. वेदराम इस सत्य को तुलसीदास, दयानन्द, विवेकान्द और रामतीर्थ से नहीं समझ सकते थे, क्योंकि वे स्वयं नहीं समझे थे कि हिन्दुओं को वर्णव्यवस्था ने गुलाम बनाया है। वर्ण-व्यवस्था ने केवल क्षत्रियों को ही शस्त्र रखने का अधिकार दिया था। उसके अनुसार अन्य कोई भी हिन्दू शस्त्र धारण नहीं कर सकता था, तो वह लड़ कैसे सकते थे?
किन्तु, तुलसीदास, दयानन्द, विवेकानन्द और रामतीर्थ के अध्ययन से डा. वेदराम ने जो पाया, वह उन्हीं के शब्दों में, “सौभाग्य से हिन्दू की मूल समस्या और उसके एकमात्र निर्णायक समाधान के साथ मेरा साक्षात्कार हो गया; सत्य का साक्षात्कार हो गया। क्या है सत्य। वह है—
- हिन्दू की मूल समस्या ——- अस्तित्व.
- एकमात्र निर्णायक समाधान —- शस्त्रधारण”[11]
45 साल के व्यापक अध्ययन ने डा. वेदराम को यह साक्षात्कार कराया कि हिन्दू की मूल समस्या अस्तित्व है, और उसका एकमात्र समाधान शस्त्रधारण है। शस्त्रधारण तो समझ में आता है, पर हिन्दू की मूल समस्या अस्तित्व की किस तरह है, यह समझ में नहीं आता। अस्तित्व से उनका तात्पर्य क्या है, यह भी उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है।
बहरहाल, इसे उनकी किताब के पहले अध्याय से समझा जा सकता है। इस अध्याय का नाम है—सर्वोपास्य दुर्गा। इस अध्याय पर चर्चा करने से पहले मैं यह बता दूं कि इस किताब में कुल जमा चार अध्याय हैं और सभी का विषय दुर्गा है, जिसकी समस्त सामग्री उन्होंने ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ से प्राप्त की है, जो एक काल्पनिक, हास्यास्पद और अवैज्ञानिक कथा-पुस्तिका है।
पहले अध्याय में वह ‘प्रस्तावना’ शीर्षक में लिखते हैं—‘मेरा सुविचारित विश्वास है कि प्रासंगिकता, उपयोगिता एवं अनुकूलता की दृष्टि से मूर्तिपूजक एवं अवतारवादी हिन्दुओं को इस कलिकाल में केवल, एकमात्र भगवती दुर्गा की उपासना करनी चाहिए।’[12] अपने इस विश्वास के उन्होंने पांच कारण बताए हैं—
- भगवती दुर्गा भगवान की महामाया एवं महाशक्ति है।
- कलिकाल में राष्ट्रद्रोही, धर्मद्रोही एवं हिन्दूद्रोही आतताई….हिन्दू समाज को विघटित और छिन्नभिन्न करने के लिए भांति-भांति के खेल खेल रहे हैं. ऐसे तत्वों को समूल नष्ट करने के लिए जिस शक्ति और संघर्ष की जरूरत है, दुर्गा उस सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत है और समस्त संघर्ष की अधिष्ठात्री है।
- कलियुगी अवतारों और स्वामियों के पापपाशों से आर्यपुत्रियों को बचाने का सर्वोत्तम उपाय यही है कि उन्हें दुर्गा का उपासक बनाया जाए।
- भगवती दुर्गा वर्गनिरपेक्ष है। अत: वह सभी वर्णों और जातियों की उपास्य हो सकती है. परशुराम ब्राह्मण हैं, राम क्षत्रिय हैं, कृष्ण पिछड़ी जाति के यादव हैं, बुद्ध महारों और जाटवों ने जकड़ लिए हैं। महावीर जैनों तक सीमित हैं, और नानक केवल सिक्खों के गुरु बन गए हैं। अत: आज इन दिव्यशक्तियों को समस्त भारतीयों के उपास्यदेव घोषित करने में अनेक लोग आपत्ति कर सकते हैं और कर रहे हैं। भगवती दुर्गा वर्गनिरपेक्ष, वर्णनिरपेक्ष, जातिनिरपेक्ष, पंथनिरपेक्ष है, अत: सर्वमान्य है।
- भगवती दुर्गा कालनिरपेक्ष है। वह कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग– चारों युगों के लिए समान रूप से प्रासंगिक, उपयोगी एवं अनुकूल है।[13]

क्या इन्हीं पांच विश्वासों में हिन्दू का अस्तित्व है? क्या यही हिन्दू की मूल समस्या है? अगर डा. वेदराम के लिए हिन्दू-अस्तित्व का यही अर्थ है, तब तो मैं कहूंगा कि उन्होंने अपने 45 साल व्यर्थ गंवा दिए। उन्हें किसी सत्य का साक्षात्कार नहीं हुआ, और न उन्होंने सत्य को जानने का प्रयास किया। इसके विपरीत उन्होंने बड़े शातिर ढंग से हिन्दुओं को एक काल्पनिक, हास्यास्पद और पौराणिक मिथकीय देवी से जोड़ने का काम किया, जो यकीनन आरएसएस और भाजपा के उग्रवादी राम मन्दिर आन्दोलन के दौरान, मुसलमानों तथा मन्दिर-विरोधी प्रगतिशील लोगों के विरुद्ध, हिन्दुओं को आक्रामक बनाने का षड्यंत्र था। इस कृत्य से स्पष्ट होता है कि बहुजनों में व्यापक स्तर पर दुर्गा को स्थापित करने का काम भारतीय राजनीति के इसी अन्धकार-युग में किया गया था। लेखक जानता है कि भगवती दुर्गा काल्पनिक है और वह किसी भी शत्रु का वध करने नहीं आ सकती। पर उसका मकसद दुर्गा के द्वारा शत्रु-दमन की झूठी कहानियां सुनाकर हिन्दुओं को आक्रामक, उग्रवादी और हत्यारा बनाना है। जो भी धर्मभीरु और कमअक्ल हिन्दू इस खेल में फंसेंगे, वे आस्था के नाम पर अपने ही देश के लोगों का खून बहायेंगे, और अपराधी बनकर जेल जायेंगे। आरएसएस और भाजपा के नेता तथा वेदराम जैसे उग्रवादी लेखक सत्ता की मलाई खायेंगे और खून बहाने वाले लोग हिन्दूभक्त का तमगा पाकर खुश हो जायेंगे। अस्तु!
लेखक ने ‘श्रीदुर्गासप्तशती’ के हवाले से भगवती का मूल स्वरूप इस प्रकार व्यक्त किया है—
“पूर्व काल की बात है, स्वारोचिष मन्वन्तर में चैत्रवंशी राजा सुरथ और समाधि वैश्य ने मेधामुनि से प्रश्न किया—भगवन, आप जिन्हें महामाया कहते हैं, वह देवी कौन है? ब्रह्मन, उनका आविर्भाव कैसे हुआ? उनके चरित्र कौन–कौन हैं? मेधा ऋषि ने उत्तर दिया, देवी नित्यस्वरूपा हैं. सम्पूर्ण जगत उन्हीं का रूप है। यद्यपि, वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि वे देवकार्य के लिए लोक में प्रकट होती है।”
“जब मधु और कैटभ ब्रह्मा का वध करने के लिए तत्पर हो गए, तब ब्रह्मा ने विष्णुनेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्रा का स्तवन किया। उनके स्तवन में भगवती देवी का विराट व्यापक स्वरूप हमारे सामने आता है। ब्रह्मा ने विश्वेश्वरी, जगदात्री, स्थितिसंहारकारिणी, विष्णुशक्ति, भगवती निद्रा का स्तवन करते हुए कहा—तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं गुणत्रयविभाविनी प्रकृति हो। तुम्हीं भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि हो।’[14]

डा. आंबेडकर[15] के अनुसार, दुर्गा पौराणिक देवी है। वैदिक देवियों में से किसी ने भी युद्ध नहीं किया और न किसी असुर को मारा। वैदिक युग में सारा युद्ध देवता करते हैं, किन्तु पौराणिक काल में यह युद्ध देवियां करती हैं। क्या पौराणिक काल में कोई देवता नहीं था? पौराणिक देवियां पांच हैं—सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती, दुर्गा और काली। इनमें सरस्वती और लक्ष्मी क्रमश: ब्रह्मा और विष्णु की पत्नियां हैं, जबकि पार्वती, दुर्गा और काली शिव की पत्नियां हैं। सरस्वती और लक्ष्मी ने किसी असुर की हत्या नहीं की। और न उन्होंने कोई वीरता का काम किया। सरस्वती और लक्ष्मी ने भी असुरों के विरुद्ध कोई लड़ाई नहीं लड़ी, यह काम शिव की पत्नियों ने ही क्यों किया? इनमें पार्वती एक साधारण स्त्री क्यों है? उसमें दुर्गा जैसी कोई वीरता क्यों नहीं है? डा. आंबेडकर ने ये सारे प्रश्न ‘रिडिल्स ऑफ़ हिन्दूइज्म’ में उठाए हैं।[16] डा. वेदराम ने अगर इस किताब को पढ़ा होता, तो उनके दिमाग का बहुत सारा कचरा साफ़ हो गया होता। तब वह यह नहीं लिखते कि—
“विष्णु शेषनाग की शैय्या पर शयन कर रहे थे। उनके नेत्रों में योगनिद्रा (महामाया) भरी थी। उस समय विष्णु के कर्णमल से मधु और कैटभ नामक दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए और विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्मा का वध करने को तत्पर हो गए। ब्रह्मा ने विष्णु को जगाने के लिए तमोगुण की अधिष्ठात्री देवी योगनिद्रा महामाया का स्तवन किया। ब्रह्मा की स्तुति सुनकर विष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, ह्रदय और वक्ष:स्थल से निकलकर योगनिद्रा ब्रह्मा के समक्ष खड़ी हो गईं। योगनिद्रा से मुक्त होते ही विष्णु जाग उठे। उठकर भगवान विष्णु ने पांच हजार वर्षों तक मधु और कैटभ के साथ बाहुयुद्ध किया। इस बीच मोहनिद्रा महामाया उन्हें मोह में डाले रही। अंत में भगवान ने दोनों असुरों को जांघ पर रखकर चक्र से काट डाला।”[17]
ब्राह्मणों ने कैसी-कैसी पागलपन की कहानियां लिखी हैं, जिनका न सिर है और न पैर। भला किसी के कान के मैल से भी कोई पैदा होता है? अगर कान के मैल को खाने की लालच में कोई कीड़ा कान में घुस जाए, और वह कान में डेरा जमाकर अंडे-बच्चे पैदा कर ले, पर उस मैल से मानवरूपी दो असुर पैदा हो जाएं, यह नितांत असम्भव है, और ऐसा सोचना भी हद दर्जे की गप्प है। इस कहानी में इससे बड़ी दो गप्पें और हैं। पहली यह कि विष्णु ने अपने ही मैल से पैदा असुरों से पांच हजार वर्षों तक युद्ध किया। दूसरी गप्प यह है कि विष्णु के नाभिकमल में ब्रह्मा विराजमान थे। तीसरी गप्प यह है कि ब्रह्मा की स्तुति सुनकर विष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, ह्रदय और वक्ष:स्थल से निकलकर महामाया प्रगट हो गईं। चौथी गप्प यह है कि महामाया पांच हजार वर्षों तक दोनों असुरों को अपने रूप के मोह में डाले रही। और तब विष्णु ने उन्हें अपनी जांघ पर रखकर चक्र से काटा।
जिसमें थोड़ी सी भी बुद्धि है, वह इस कहानी पर हंसेगा और कई सवाल खड़े करेगा। वह पूछेगा कि ब्रह्मा विष्णु के नाभिकमल में क्यों और कैसे विराजमान थे? क्या वह उनके रहने की जगह थी? विष्णु के ही मैल से पैदा असुर इतने ताकतवर कैसे हो गए, कि उनसे पांच हजार साल तक लड़ना पड़ा? जब महामाया पांच हजार वर्ष तक दोनों असुरों को अपने रूप-जाल में मोहित किए रही, तो विष्णु ने युद्ध किनसे किया? विष्णु से पैदा असुर विष्णु के ही सहोदर थे, फिर उनको क्यों मारा गया? अगर विष्णु को उन्हें मारना ही था, तो उसी समय जांघ पर रखकर क्यों नहीं मार दिया? पांच हजार वर्ष बाद क्यों मारा? ये ऐसे प्रश्न हैं, जिन्हें सुनकर शेखचिल्ली का सिर भी चकरा जायेगा।
डा. वेदराम ने दूसरे अध्याय में दुर्गा के सेनानी रूप का वर्णन किया है। एक जगह उन्होंने लिखा है कि “देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रक्खा है।”[18] यहां यह सवाल क्यों नहीं उठाना चाहिए कि दुर्गा के सम्पूर्ण जगत की सीमा क्या है? सम्पूर्ण जगत में तो 195 देश आते हैं। भारत को छोड़कर शेष 194 देश भी क्या दुर्गा की शक्ति से व्याप्त हैं? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि भारत के बाहर किसी भी देश में दुर्गा को नहीं जाना जाता। भारत में भी दुर्गा ऐतिहासिक नहीं है, अर्थात इतिहास से इसके बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। यह केवल पौराणिक देवी है, अर्थात इसका जन्म ब्राह्मणों की कलम से लिखी गईं पौराणिक कहानियों में हुआ है। और जन्म की कहानियां भी अस्वाभाविक और अवैज्ञानिक आधार की हास्यास्पद तथा अविश्वसनीय हैं।
डा. वेदराम आगे लिखते हैं, “महाबला एवं सर्ववाहनवाहिनी भगवती दुर्गा जानती हैं कि धर्मद्रोही एवं कपटाचारी आतताइयों, दुर्जनों और दानवों को समूल नष्ट करने के लिए विभिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग करना पड़ता है। अत: वे सर्वस्त्रधारिणी हैं।”[19]

ऐतिहासिक बुद्ध ने स्वतंत्रता और समानता की विचारधारा के बल पर, तथा करुणा, मैत्री और अहिंसा के हथियार से केवल भारत में ही नहीं, बल्कि भारत के बाहर भी बहुत से देशों में एक बड़ी धार्मिक और सामाजिक क्रान्ति की थी और वे ‘जगतगुरु’ बने। ध्यान रहे कि केवल बुद्ध ही जगतगुरु हैं, किसी ब्राह्मण संत को यह श्रेय नहीं जाता है। बुद्ध ने सिर्फ विचार से भारत के लोगों को बदल डाला था। किन्तु क्या कारण है कि किसी भी हिन्दू देवी-देवता ने स्वतंत्रता और समानता के विचार से समाज को बदलने का प्रयास नहीं किया। प्रत्युत, वे अपने ही देश के विरुद्ध विचार के लोगों को शत्रु मानकर उनका खून बहाते रहे। और बाहर वाले शत्रुओं से पिटते रहे। उनका कुछ नहीं बिगाड़ सके। मध्यकाल में हमलावर मुसलमानों ने उन्हें कुचला, और उसके बाद अंग्रेजों ने। उन्होंने दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन किया।
दरअसल हिन्दुओं के जीवन का सम्पूर्ण इतिहास गुलामी का इतिहास है। वे सब जगह परस्त हुए, और अपनी पराजय को छिपाने के लिए उन्होंने अपनी झूठी विजय के पुराण लिखे, जिनमें काल्पनिक देवी-देवताओं के पात्र खड़े करके उनसे काल्पनिक युद्धों में अपने शत्रुओं का संहार कराया गया है। राम से लेकर दुर्गा तक उनकी सारी विजय-गाथाएं मिथक हैं, जिनका कोई इतिहास नहीं है। इन मिथकीय गाथाओं के पीछे ब्राह्मणों ने अपनी पराजय को दिखाया है, जो उनकी पौराणिक कथाओं में भी साफ-साफ दिखाई देती है।
उदाहरण के लिए, विष्णु की कथा से स्पष्ट है कि दो असुरों से देवता पांच हजार वर्षों तक युद्ध करते रहे, दुर्गा का सम्मोहन भी उनके काम नहीं आया, और पांच हजार वर्ष बाद उन्हें विष्णु ने मारा। इससे पता चलता है कि वे इतने बलवान थे कि उन्होंने पांच हजार वर्ष तक आर्यों को जीतने नहीं दिया। यह इस बात का प्रतीक है कि पांच हजार वर्ष भारत में आगन्तुक हमलावर आर्यों के लगातार युद्ध यहां के मूलनिवासी दैत्य, दानव, असुर, राक्षस और ब्रात्यों से हुए थे। इसकी साक्षियां ऋग्वेद में भरी पड़ी हैं।[20]
लेकिन पराजितों का शेखी बघारने में क्या खर्च होता है? कुछ भी नहीं। सो, दुर्गा को लेकर भी खूब शेखी बघारी गई है। उस अकेली ने कितने असुरों अर्थात अनार्यों को मौत के घाट उतारा, उसका पूरा विवरण डा. वेदराम ने किताब के तीसरे अध्याय में दुर्गा के रणकौशल के अंतर्गत दिया है। उसने जिन असुरों को मौत के घाट उतारा था, वे नाम उनके अनुसार ये हैं—‘महापराक्रमी मधु, कैटभ, चिक्षुशुर, चामर, उदग्र, महाहनु, अग्निलोमा, बाष्कल, ताम्र, अन्धक, उग्रास्य, अग्रवीर्य, दुर्मुख, परिवारित, विडाल, महिषासुर, धूम्रलोचन, चंड, मुंड, उदायुध, कम्बू, कालक, दौह्रिद, मौर्य, कालकेय, रक्तबीज, निशुम्भ, और शुम्भ।’

एक ही स्त्री से इतने सारे असुरों को अलग-अलग स्थानों और काल-खंडों में मरवाने का चमत्कार केवल ब्राह्मण ही कर सकते हैं। लेखक ने इन हत्याओं का वर्णन विस्तार से हिन्दू विजय के रूप में किया है।
इन सबके आधार पर डा. वेदराम अंतिम चौथे अध्याय में निष्कर्ष स्वरूप कुछ सुझाव देते हैं। उनका “विश्वास है कि यदि आर्य पुत्रियों तथा आर्यपुत्र इन सुझावों को आत्मसात करके तदनुसार आचरण करेंगे, तो वे सम्मान और स्वाभिमान के साथ जीने की कला में निपुण हो जायेंगे, और शक्ति, साहस तथा वीरता के साथ आतताइयों का सामना करके भारत माता के अस्तित्व एवं अस्मिता की रक्षा करने में सक्षम हो सकेंगे।”[21]
हिन्दुओं को भारत माता के अस्तित्व एवं अस्मिता की रक्षा के लिए आर्य लेखक ने ये सुझाव दिए हैं, जो उनके अनुसार सनातन वैदिक धर्म का सन्देश है–
- अवतारवादी एवं प्रतिमापूजक आर्य हिन्दुओं को एकमात्र भगवती दुर्गा की ही उपासना करनी चाहिए।
- आर्यपुत्रियों को स्वप्न में भी किसी पुरुष देवता की उपासना नहीं करनी चाहिए।
- प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को शक्तिमान होना चाहिए।
- प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को शस्त्रधारी होना चाहिए।
- प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को प्राचीन तथा अर्वाचीन दोनों प्रकार के वाहनों का प्रयोग करने में पूर्णत: प्रशिक्षित एवं सुदक्ष होना चाहिए।
- प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को शत्रुहंता होना चाहिए।
- प्रत्येक आर्यपुत्री एवं आर्यपुत्र को अपने जीवन-काल में कम-से-कम एक आतताई का वध अवश्य करना चाहिए।
- आर्य हिन्दू समाज के सभी सम्पन्न श्रीमानों द्वारा आतताइयों के विरुद्ध धर्मयुद्ध में संलग्न आर्य पुत्रियों एवं आर्य पुत्रों की सभी प्रकार से सहायता करनी चाहिए।
- आर्य पुत्री को अपने पति के रूप में केवल वीर पुरुष का ही चयन करना चाहिए। और,
- भगवती दुर्गा की भांति आर्य हिन्दुओं के अन्य समस्त देवी-देवता शस्त्रधारी एवं शत्रुहन्ता हैं। इतने पर भी इंद्र, शंकर, राम, कृष्ण, हनुमान और दुर्गा के भक्त हिन्दू शस्त्रहीन क्यों हैं? कहने की आवश्यकता नहीं कि इन देवी-देवताओं के प्रत्येक सच्चे भक्त को शस्त्रधारी और शत्रुहंता होना चाहिए। यही वैदिक धर्म का सार है, यही सनातन धर्म का सन्देश है।[22]
और, यही हिन्दू धर्म है, जिसमें नफरत और हिंसा के सिवा कोई शिक्षा नहीं दी जाती। हिन्दू धर्म के किसी भी ग्रन्थ में प्रेम, मैत्री, करुणा, अहिंसा, समानता, स्वतन्त्रता और भ्रातृत्व की शिक्षा नहीं दी गई है। सबके-सब नफरत सिखाते हैं— केवल दूसरे धर्मों और पंथों के प्रति ही नहीं, बल्कि अपने धर्म में वर्ण-वर्ण के प्रति, और जाति-जाति के प्रति भी। बस विरोधी का वध करो, यही हिन्दू धर्म है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
संदर्भ :
[1] मनुस्मृति, 9/225 (अनुवादक : पं. ज्वाला प्रसाद चतुवेदी, रणधीर बुक सेल्स, हरिद्वार, तीसरा संस्करण 1992)
[2] वही, 5/89
[3] वही, 4/30
[4] वही, 12/95
[5] यथा ही चोर: स तथा बुद्ध्स्तथागतं नास्तिकमत्र विद्धिI
तस्माद्धि य: शक्यतम: प्रजानां स नास्तिके नाभिमुखो बुध: स्यातII
(अयोध्या काण्ड, 109/34)
[6] शस्त्रहीन हिन्दू हिन्दू नहीं, उपर्युक्त, निवेदन, पृष्ठ 1
[7] वही
[8] वही.
[9] वही, निवेदन, पृष्ठ 2
[10] डा. आंबेडकर, जाति का विनाश, अनुवाद : राजकिशोर, द मार्जिनाइज्ड नई दिल्ली, 2018, पृष्ठ 64
[11] डा. वेदराम, उपर्युक्त, पृष्ठ 2
[12] वही, पृष्ठ 1
[13] वही, पृष्ठ 1 एवं 2
[14] वही, पृष्ठ 4
[15] डा. बाबासाहेब आंबेडकर राइटिंगस एंड स्पीचेस, वाल्यूम 4, 1987, एजुकेशन डिपार्टमेंट, गवर्नमेंट ऑफ़ महाराष्ट्र, बम्बई, पृष्ठ 99-107
[16] वही,
[17] डा. वेदराम वेदार्थी, उपर्युक्त, पृष्ठ 5-6
[18] वही, पृष्ठ 10
[19] वही, पृष्ठ 11
[20] देखिए, चन्द्रिकाप्रसाद जिज्ञासु की पुस्तक ‘भारत के आदि निवासियों की सभ्यता’, चन्द्रिका प्रसाद जिज्ञासु ग्रन्थावाली, खंड 1, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, इग्नू रोड, दिल्ली, 2017
[21] डा. वेदराम वेदार्थी, उपर्युक्त, पृष्ठ 28
[22] वही, पृष्ठ 35-36
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