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मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ : भाजपा राज में बढ़ी आदिवासियों की बदहाली

चुनावी राजनीति के लिहाज से मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की निर्णायक संख्या है। इन राज्यों में बीते 15 वर्षों में भाजपा का राज रहा है। इस दौरान आदिवासियों की स्थिति जीवन के सभी क्षेत्रों में बद से बदतर होती गई है। इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित क्रिस्टोफर जैफरलोट और कैलायारसन के संयुक्त लेख में उल्लेखित तथ्यों का विश्लेषण कर रहे हैं सिद्धार्थ :

नये भारत में बढ़ा आदिवासियों के हाशिए का दायरा

पूर्वोत्तर राज्यों को छोड़कर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ भारत के उन चार राज्यों में शामिल हैं, जहां आदिवासियों की जनसंख्या इन राज्यों की कुल जनसंख्या से 20 प्रतिशत अधिक है। छत्तीसगढ़ में तो इनकी आबादी 30 प्रतिशत से अधिक है। साल-दर-साल इन दोनों राज्यों में आदिवासियों की स्थिति जीवन के सभी क्षेत्रों में बद से बदतर होती गई है। अंग्रेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में बीते 27 नवंबर 2018 को प्रकाशित ‘मार्जिन्स ऑफ न्यू इंडिया’ शीर्षक लेख में क्रिस्टोफर जैफरलोट और कैलायारसन ए के मुताबिक कथित तौर पर नये भारत में सबसे अधिक वंचितों में मुसलमान और आदिवासी हैं।

लेखकद्वय ने प्रति व्यक्ति आय को पहले मानक के रूप में लिया है। उनके मुताबिक भारत के मानव विकास सर्वे 2011-12 के अनुसार छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की प्रति व्यक्ति आय अन्य समुदायों के लोगों की तुलना में सिर्फ 51 प्रतिशत रह गई  है, जो कि 2004-5 में 68 प्रतिशत थी। इसका मतलब है कि इस राज्य के अन्य समुदायों की तुलना में उनकी आय मे तेजी से गिरावट आई है। मध्यप्रदेश में यह अनुपात 65 प्रतिशत से गिरकर 55 प्रतिशत हो गया है। दोनों लेखकों ने बताया है कि प्रति व्यक्ति आय में गिरावट के मामले में छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश से बदत्तर स्थिति सिर्फ गुजरात की है। गुजरात में आदिवासियों की प्रति व्यक्ति आय अन्य वर्गों की तुलना सिर्फ 35 प्रतिशत है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में जंगल से पत्ते ले जातीं आदिवासी महिलाएं

प्रति व्यक्ति आय में गिरावट के साथ ही आदिवासी अन्य वर्गों की तुलना में शिक्षा के क्षेत्र में भी इन राज्यों में बदतर होती जा रही है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़  में सिर्फ 1.7 प्रतिशत आदिवासी स्नातक हैं। मध्यप्रदेश में आदिवासियों और गैर-आदिवासियों की साक्षरता में अंतर 19 प्रतिशत है, जबकि देश के स्तर पर यह अंतर 14 प्रतिशत है। आंकड़े बताते हैं कि इन प्रदेशों के विश्वविद्यालयों में आदिवासियों के लिए आरक्षित सीटें भरी नहीं जाती हैं। इसी तरह सार्वजनिक क्षेत्रों में आदिवासियों के लिेए निर्धारित आरक्षण कोटा भरा नहीं जाता है।

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आदिवासियों की बदतर स्थिति का घनिष्ठ संंबंध नौकरीपेशा समूह में आदिवासियों के प्रतिनिधित्व का बहुत कम होने से है। छत्तीसगढ़ में सिर्फ 6.2 प्रतिशत आदिवासी सरकारी या सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में हैं। मध्य प्रदेश में सरकारी नौकरियों में आदिवासियों की स्थिति में गिरावट आई है। 2004-5 में नौकरीपेशा इस समूह में आदिवासियों की हिस्सेदारी 4.9 प्रतिशत थी, जो 2011-12 मेें गिरकर सिर्फ 3.5 प्रतिशत रह गई।

क्रिस्टोफर जैफरलोट और कैलायारसन ए ने बताया है कि छत्तीसगढ़ में 34 प्रतिशत आदिवासी ‘श्रमिक’ हैं। इसका मतलब है कि दूसरे लोगों के खेतों में काम करते हैं। मध्य प्रदेश में ऐसे लोगों की संख्या 46 प्रतिशत है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के एक स्थानीय बाजार में सब्जियां बेचतीं आदिवासी महिलाएं

अगर छत्तीसगढ़  और मध्यप्रदेश में आदिवासियों की स्थिति की तुलना दक्षिण के राज्यों से करें तो वहां उनकी स्थिति बेहतर है। इस संदर्भ  में लेखकद्वय ने लिखा है कि इसका कारण यह नहीं है कि ये राज्य धनी है, बल्कि इसका कारण है कि वहां ज्यादा समानता है। कर्नाटक में आदिवासियों की प्रति व्यक्ति आय अन्य समुदायों की तुलना में 80 प्रतिशत है। मध्य प्रदेश और छ्त्तीसगढ़ के उलट यहां 2004-05 की तुलना में अन्य सुमदायों के सापेक्ष उनकी प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई है। 2004-05 की तुलना में यह 62 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2011-12 में 80 प्रतिशत हो गई है। अविभाजित आंध्र प्रदेश में यह छलांग लगाकर इसी समयान्तराल में 76 प्रतिशत से बढ़कर 86 प्रतिशत हो गई है। कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में आदिवासियों की स्थिति शिक्षा के क्षेत्र में भी बेहतर हुई है। 2.6 प्रतिशत आदिवासी आंध्रपदेश में और 3.4 प्रतिशत कर्नाटक में स्नातक हैं।

लेखकद्वय क्रिस्टोफर जैफरलोट और कैलायारसन ए

लेखकद्वय के अनुसार इन दोनों राज्यों में आदिवासियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में भी गिरावट आई है।  मध्य प्रदेश में जहां आदिवासियों की जनसंख्या 20 प्रतिशत है, वहां मंत्रिमंडल में सिर्फ 12.5 प्रतिशत आदिवासियों को प्रतिनिधित्व दिया गया है। जबकि अधिकांश आदिवासी सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। छत्तीसगढ़ की स्थिति इससे बेहतर नहीं है। 2013 में छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल में सिर्फ 2 आदिवासियों को जगह दी गई थी, जबकि 2008 में 5 और 2003 में 8 आदिवासी प्रतिनिधियों को मंत्रिमंडल में जगह मिली थी।

इन दोनों राज्यों में वनाधिकार कानून का ठीक से अनुपालन नहीं हो रहा है। यह कानून आदिवासियों को जंगल की भूमि पर अधिकार प्रदान करता है। मध्य प्रदेश में जंगल की जमीन पर आदिवासियों के 60 प्रतिशत से अधिक दावे रद्द कर दिए गए हैं। वनाधिकार कानून की भावनाओं का उल्लंघन करते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने सरकार के लिए आदिवासियों की जमीन का अधिग्रहण सुगम बनाने के लिए छत्तीसगढ़ लैंड कोड एक्ट की धारा 165 में संशोधन कर दिया है।

लेखकद्वय ने राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के आधार पर बताया है कि इन दोनों राज्यो में आदिवासियों के प्रति आपराधिक घटनाओं में निरंतर वृद्धि हुई है। इन दोनों राज्यों में करीब 15 वर्षों से भाजपा शासन कर रही है।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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