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न्यायपालिका के लोकतांत्रीकरण की तेज होती मांग

समाज के किसी भी वर्ग के नौजवान प्रतियोगिता परीक्षाओं के जरिए आईएएस और आईपीएस बन सकते हैं। लेकिन वे न्यायाधीश नहीं बन सकते। यह तब तक नहीं होगा, जब तक न्यायपालिका का लोकतांत्रीकरण नहीं होता। बता रहे हैं अनिल कुमार :

भारत में न्यायपालिका न्याय के आस्था का विषय रही है। सामान्य जन विशेषकर नेताओं में यह भय भी रहा है कि न्यायपालिका के निर्णय की आलोचना करने पर “न्यायपालिका की अवमानना” के तहत उन्हें सजा मिल सकती है। इसलिए हाल तक अपनी मांगों को रखते हुए यह जोड़ दिया जाता था कि “मैं कोर्ट का पूरा सम्मान करता हूं।”

लेकिन विगत वर्षों में शोषित वंचित समाजों के बीच न्यायपालिका को लेकर नकारात्मक छवि बनी है। एक संस्था के रूप में न्यायपालिका पर तो उनको भरोसा है, लेकिन न्यायाधीशों पर नहीं। भारत के न्यायाधीश देश का प्रतिनिधित्व न करते हुए जाति और परिवार विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति विशेष घरानों से हो रही है और 1993 के सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बाद बने कॉलेजियम सिस्टम  से इसमें बदलाव की बची-खुची गुंजाइश भी खत्म हो गई। दूसरा सबसे बड़ा झटका तब लगा, जब देश की संसद ने 2013 में संविधान के अनुच्छेद 124 (2) और 217 (1) में संशोधन कर न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक पारित किया, लेकिन सर्वोच्च न्यायलय ने उसे भी खारिज कर दिया। इस तरह सर्वोच्च न्यायलय ने सीधे-सीधे संसद के कानून बनाने के अधिकार को अपने हाथ में ले लिया।

न्यायपालिका में कालेजियम सिस्टम के खात्मे को लेकर आयोजित एक रैली को संबोधित करते केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा

इससे पहले जन सामान्य में गुस्सा अन्य पिछड़े वर्ग के लिए क्रीमी लेयर लगाना, एससी-एसटी एक्ट में बदलाव, देश के विभिन्न अदालतों द्वारा आरक्षण को असरहीन करने को लेकर था। देश के कॉलेज और यूनिवर्सिटी बौद्धिकता फलने-फूलने का केंद्र हैं, लेकिन वहां कॉलेज और यूनिवर्सिटी के आधार पर पुरानी आरक्षण व्यवस्था को खत्म करके विभागवार आरक्षण देने के करण व्यवस्था में आरक्षण खत्म हुआ है।

न्यायपालिका में एक विशेष जाति के वर्चस्व पर राष्ट्रपिता महात्मा जोती राव फुले अपनी किताब ‘गुलामगिरी’ में भी लिखते हैं कि उस न्यायपालिका से न्याय की आशा नहीं की जा सकती है।

यह भी पढ़ें : खत्‍म हो उच्‍च न्‍यायपालिका पर कुछ परिवारों का आधिपत्‍य : रालोसपा

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी द्वारा 20 मई 2018 को आयोजित न्यायपालिका के लोकतांत्रीकरण विषय पर बोलते हुए संविधान विशेषज्ञ सुभाष  कश्यप ने भी कहा था कि न्यायाधीशों की वर्तमान नयुक्ति प्रक्रिया पारदर्शी और लोकतांत्रिक नहीं है। उन्होंने यह भी जोर दिया था कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए संविधान में स्पष्ट वर्णन है। न्यायधीशों की  नियुक्ति का काम सरकार का है।

राष्ट्रीय लोक समता पार्टी की तरफ से इसके अध्यक्ष उपेंद्र कुशवाहा ने कहा कि उनकी पार्टी न्यायपालिका का लोकतांत्रीकरण चाहती है। वे एक ऐसी न्यायपालिका चाहते हैं, जिसमें सबके प्रवेश के समान अवसर हो। आजादी से लेकर आज तक सिर्फ 150-200 परिवार ही न्यायपालिका चला रहें हैं।

उनका कहना था कि बात सिर्फ आरक्षण का नहीं है, बल्कि सबके लिए अवसर होने चाहिए। शोषित वंचित जातियों के साथ तो भेदभाव है ही, लेकिन गरीब सवर्ण या गरीब ब्राह्मण का लड़का-लड़की भी वहां तक पहुंचने का सपना नहीं देख सकता है। देश में कोई भी व्यक्ति संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा पास करके भारतीय प्रशासनिक सेवा, भारतीय पुलिस सेवा आदि में जा सकता है और देश के शीर्ष प्रशासनिक पद संभाल सकता है, लेकिन वह देश की शीर्ष न्यायपालिका का न्यायाधीश नहीं बन सकता है।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के तथाकथित चार बागी जजों के बारे में भी कहा कि उन सभी की पृष्ठभूमि उच्च कुलीन और न्याय व्यवस्था से जुड़ी हुई है। इनकी लड़ाई का विषय कुछ भी हो सकता है, लेकिन न्यायपालिका काे लोकतांत्रिक बनाने के लिए तो नहीं था।

इसी क्रम में 3 नवंबर 2018 को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के संगठनों के परिसंघ ने उदित राज के नेतृत्व में रामलीला मैदान, नई दिल्ली में एक रैली आहूत की थी।  रैली में देश के कोने-कोने से लोग आए थे। कुछ लोग 2 नवंबर 2018 की रात को ही दिल्ली के विभिन्न स्थलों विशेषकर आंबेडकर भवन में रुके हुए थे, लेकिन दिल्ली पुलिस ने उन्हें रामलीला मैदान आने से पहले ही रोक दिया था। रैली में आए लोगों ने यह भी बताया कि उनके साथ दिल्ली पुलिस ने उनके साथ मारपीट भी की।

डॉ. उदित राज ने कहा कि जजों की नियुक्ति की वर्तमान प्रक्रिया में से कॉलेजियम सिस्टम को समाप्त किया जाए। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व (आरक्षण) दिया जाए। न्यायालय सिर्फ वही काम करे, जिसका वर्णन संविधान में है। वह कार्यपालिका और विधायिका का काम न करे। उन्होंने यह भी कहा कि हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बने विशेष  मॉनिटरिंग सिस्टम खत्म हो, यह काम कार्यपालिका का है। कोर्ट एक जांच एजेंसी की तरह काम न करे। देश में इसके लिए विभिन्न एजेंसी काम कर रही है।

रैली को संबोधित करते भाजपा सांसद डॉ. उदित राज

डॉ. उदित राज ने यह भी कहा कि यह कैसी न्यायपालिका है, जिसमें वंचित समुदाय के नेता जो जेल जाते हैं, लेकिन सवर्ण समाज के नेता बेल पर छूट जातें हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि इस देश में अगर किसी ने संविधान का सबसे ज्यादा अवमानना की है, दुरुपयोग किया है, तो वे देश के न्यायाधीश हैं।

(कॉपी संपादन : प्रेम/एफपी डेस्क)


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लेखक के बारे में

अनिल कुमार

अनिल कुमार ने जेएनयू, नई दिल्ली से ‘पहचान की राजनीति’ में पीएचडी की उपाधि हासिल की है।

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