घरेलू और कारीगरी कार्यक्षेत्र भारत के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे की रीढ़ हैं। कारीगरों में ब़ढ़ई (काष्ठकार), लोहार, मिस्त्री, नक्काश, बुनकर, मोची, चर्मकार, कुम्हार, झाड़ू बनाने वाले, तेली, दर्ज़ी, बाँस और गन्ना श्रमिक तथा नारियल से रस्सी बनाने वाले माने जाते हैं। उनमें से बढ़ई और लोहार गांव की आर्थिक संरचना में सर्वोच्च स्तर पर होते हैं क्योंकि उनकी सेवाएं अत्यावश्यक हैं। एक सुप्रतिष्ठित नृविज्ञानी, जेन ब्रौवर, ने अपनी पुस्तक ‘द मेकर्स ऑफ़ द वर्ल्ड – कास्ट, क्राफ़्ट एण्ड माइंड ऑफ़ साउथ इंडियन आर्टीज़न्स’ (ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, दिल्ली, 1995), में कारीगरों की परंपरा और विरासत को बेहद दिलचस्प तरीके से ग्रहण कर प्रस्तुत किया है। परंपरागत रूप से कारीगर और घरेलू उत्पादक, समाज के वंचित तबके से आते हैं – अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) तथा अल्पसंख्यक समुदाय। उनके जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए, उनकी आजीविका के प्राथमिक स्रोत को एक सतत विकास-मार्ग पर मज़बूती से स्थापित करना ज़रूरी है। हालांकि असल में, बढ़ते विनियमन और भूमंडलीकरण के दौर में कारीगरी तथा घरेलू उत्पादन क्षेत्र स्वतंत्र रूप से फल-फूल नहीं पा रहा है। अतः अपर्याप्त प्रौद्योगिकी, अनुपयुक्त विपणन तथा संस्थागत क्रेडिट जैसे क्षेत्रगत बाधाओं को ध्यान में रखकर उनका समाधान ढूंढा जाना चाहिए। इसलिए, कारीगरी तथा घरेलू उत्पादन क्षेत्रों के सबलीकरण की दिशा में संबंधित संस्थागत संरचना का पुनर्गठन सबसे परिवर्तनकारी तरीका हो सकता है। इसके आलोक में योजना आयोग की रिपोर्ट-कारीगरी तथा घरेलू उत्पादन के लिए प्रौद्योगिकीय, निवेश और विपणन सहायता पर अंतर-मंत्रालयी कार्य समूह की रिपोर्ट, जिसे आईएमजी (2005) कहा जाता है, में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव रखा गया था।
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