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साहित्य अकादेमी या द्विज साहित्य अकादेमी?

1955 से लेकर 2018 तक साहित्य अकादेमी द्वारा सम्मान पाने वालों में शूद्र, ओबीसी और मुसलमान शामिल नहीं हैं। आखिर यह पक्षपात क्यों? फारवर्ड प्रेस की रिपोर्ट :

भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित संजीव के उपन्याससूत्रधारके नायक भिखारी ठाकुर अपने प्रति होने वाले जातिगत पक्षपातों पर रुआंसा होकर अविनाश चन्द्र विद्यार्थी से कहते हैं

जिस साहित्य और साहित्यकार को वे इतनी बड़ी चीज मानते आये थे, वहां भी कनफुसुकिया और चपड़ चालाकी, वही डाह, वहीबाभनसूदचलता है क्या! रामजी हे रामजी! उसी से बचने के लिए साहित्य और कला में आये और यहां भी वही…! चौबे जी की तरह विद्वान होते तोनहीं नहीं, चौबे जी की तरह विद्वान ब्राह्मण होते तो और बात थी, खालीबाभनहोते तो भी चलता!

                                                                                          (‘सूत्रधारपृ.304) बताते हैं, अंश सत्य घटना पर आधारित है।

साहित्य अकादेमी के सन् 1955 से लेकर 2017 तक के साहित्य अकादेमी सम्मान प्राप्त करनेवालों की वर्षवार, पुस्तकवार और मजबूरन जातिवार सूची दी जा रही है। खुदर्बीन लेकर ढूंढ़िये, सूची में एक भी पिछड़े, शूद्र, अतिशूद्र, अल्पसंख्यक (नारी या पुरुष) का नाम है? साहित्य अकादेमी के कर्ताधर्ता, विद्वान और भारत सरकार के लोग क्या बताने की कृपा करेंगे कि क्यों नहीं है! क्या विगत 63-64 सालों में एक भी जन्मना गैर द्विज साहित्यकार के साहित्य को इस सम्मान योग्य नहीं पाया गया? और तो और आचार्य चतुरसेन शास्त्री, फणीश्वरनाथ रेणु और राजेन्द्र यादव को भी नहीं? जब रेणु और राजेन्द्र ही नहीं माने गये तो दूसरों का क्या!

साहित्य अकादेमी सम्मान का प्रतीक चिन्ह

आश्चर्य की बात है कि इस सूची में कोई मुसलमान लेखक भी नहीं हैराही मासूम रजा, शानी, बदी उज्जमा, आबिद सुरतीकोई नहीं। सूची में जिन चार महिला लेखकों के नाम हैं, उनमें एक भी पिछड़े, दलित (शूद्र, अतिशूद्र), अल्पसंख्यक परिवारों की नहीं (नासिरा शर्मा भी शर्मा (ब्राह्मण) ही हैं, अल्पसंख्यक में गण्य नहीं हो सकतीं।

साहित्य अकादेमी सम्मान (हिन्दी)

वर्षनामपुस्तकजाति
1955माखनलाल चतुर्वेदी/हिम तरंगिनि (कविता)ब्राह्मण
1956वासुदेव शरण अग्रवालपद्मावत संजीवनी व्याख्या (टीका)वैश्य
1957आचार्य नरेन्द्र देवबौद्ध धर्म दर्शनखत्री
1958राहुल सांकृत्यायनमध्य एशिया का इतिहास(इतिहास)ब्राह्मण
1959रामधारी सिंहदिनकरसंस्कृति के चार अध्याय (शोध)भूमिहार ब्राह्मण
1960सुमित्रानंदन पंतकला बौर बूढ़ा चांद (कविता)ब्राह्मण
1961भगवतीचरण वर्माभूले बिसरे चित्र(उपन्यास)कायस्थ
1963अमृतराय/प्रेमचन्द्रकलम का सिपाही (जीवनी)कायस्थ
1964अज्ञेयआंगन के पार द्वार(कविता)ब्राह्मण
1965नगेन्द्ररस सिद्धान्त (कविता समालोचना)ब्राह्मण
1966जैनेन्द्र कुमारमुक्तिबोध (उपन्यास)जैन
1967अमृतलाल नागरअमृत और विष (उपन्यास)ब्राह्मण
1968हरिवंश रायबच्चनदो चट्टानें (कविता)कायस्थ
1969श्रीलाल शुक्लराग दरबारी(उपन्यास)कायस्थ
1970रामविलास शर्मानिराला की साहित्य साधना(जीवनी)ब्राह्मण
1971नामवर सिंहकविता के नये प्रतिमान (साहित्य आलोचना)राजपूत
1972भवानी प्रसाद मिश्रबुनी हुई रस्सी (कविता)ब्राह्मण
1973हजारी प्रसाद द्विवेदीआलोक पर्व (आलेख संग्रह)ब्राह्मण
1974शिवमंगल सिंह सुमनमाटी की बारात(कविता)राजपूत
1975भीष्म साहनीतमस (उपन्यास)खत्री
1976यशपालमेरी तेरी उसकी बात(कविता)खत्री
1977शमशेर बहादुर सिंहचुका भी हूं नहीं मैं (कविता)जाट
1978भारत भूषण अग्रवालउतना वह सूरज है (कविता)वैश्य
1979सुदामा पाण्डेयधूमिलकल सुनना मुझे(कविता)ब्राह्मण
1980कृष्णा सोबतीजिन्दगीनामा(उपन्यास)खत्री
1981त्रिलोचनताप के ताये हुए दिन (कविता)राजपूत
1982हरिशंकर परसाईविकलांग श्रद्धा का दौर (व्यंग्य)ब्राह्मण
1983सर्वेश्वर दयाल सक्सेनाखूंटियों पर टंगे लोग (कविता)कायस्थ
1984रघुवीर सहायलोग भूल गये हैं(कथा संग्रह)कायस्थ
1985निर्मल वर्माकव्वे और काला पानी (कथा संग्रह)खत्री
1986केदारनाथ अग्रवालअपूर्वा (कविता)वैश्य
1987श्रीकान्त वर्मामगध (कविता)कायस्थ
1988नरेश मेहताअरण्य (कविता)ब्राह्मण
1989केदारनाथ सिंहअकाल में सारस (कविता)राजपूत
1990शिवप्रसाद सिंहनीला चांद (उपन्यास)राजपूत
1991गिरजाकुमार माथुरमैं वक्त के हूं सामने (कविता)कायस्थ
1992गिरिराज किशोरढाई घर(उपन्यास)वैश्य
1993विष्णु प्रभाकरअर्द्धनारीश्वर(उपन्यास)वैश्य
1994अशोक वाजपेयीकहीं नहीं वहीं (कविता)ब्राह्मण
1995कुँवर नारायणकोई दूसरा नहीं (कविता)मारवाड़ी जैन
1996सुरेन्द्र वर्मामुझे चांद चाहिए(उपन्यास)कायस्थ
1997लीलाधर जगूड़ीअनुभव के आकाश में चांद (कविता)ब्राह्मण
1998अरूण कमलनये इलाके में(कविता)ब्राह्मण
1999विनोद कुमार शुक्ल/दीवार में एक खिड़की रहती   है(उपन्यास)ब्राह्मण
2000मंगलेश डबरालहम जो दिखते हैं (कविता)ब्राह्मण
2001अलका सरावगीकलिकथा: वाया बाईपास (उपन्यास)मारवाड़ी
2002राजेश जोशीदो पंक्तियों के बीच (कविता)ब्राह्मण
2003कमलेश्वरकितने पाकिस्तान(उपन्यास)कायस्थ
2004वीरेन डंगवालदुश्चक्र में स्रष्टा(कविता)ब्राह्मण
2005मनोहर श्याम जोशीक्याप (उपन्यास)ब्राह्मण
2006ज्ञानेन्द्रपतिसंशयात्मा (कविता)ब्राह्मण
2007अमरकान्तइन्हीं हथियारों से (उपन्यास)कायस्थ
2008गोविन्द्र मिश्रकोहरे में कैद रंग(उपन्यास)ब्राह्मण
2009कैलाश वाजपेयीहवा में हस्ताक्षर (कविता)ब्राह्मण
2010उदय प्रकाशमोहनदास (कहानी)राजपूत
2011काशीनाथ सिंहरेहन पर रग्घू (उपन्यास)राजपूत
2012चंद्रकान्त देवतालीपत्थर फेंक रहा हूं (कविता)ब्राह्मण
2013मृदुला गर्गमिल जुल मन (उपन्यास)वैश्य
2014रमेश चन्द्र शाहविनायक(उपन्यास)वैश्य
2015रामदरस मिश्रआग की हंसी (कविता)ब्राह्मण
2016नासिरा शर्मापारिजात (उपन्यास)ब्राह्मण
2017रमेश कुंतल मघविमिथकसरित्सागर ब्राह्मण
2018चित्रा मुद्गलनाला सोपारा पो.बा.नं.203 (उपन्यास)ब्राह्मण

बहुजन विमर्श को विस्तार देतीं फारवर्ड प्रेस की पुस्तकें

साहित्य अकादेमी कोई अमूर्त संस्था नहीं है। इसके निदेशक, सचिव, पदाधिकारी, जूरी के सदस्य हाड़ मांस के पुतले होते हैं। इस जातपात के कोढ़ से ग्रस्त समाज में कोई पक्षपात विहिन निर्णय नहीं हो पायेगा? सम्मान के जूरी, संस्तुतिकर्ता या निर्णायक मंडल के सदस्य कौन लोग होते आये हैं जो जातिवाद के विरुद्ध और साहित्य, कला, संस्कृति और मानवता के पक्ष में अपने लेखन और भाषण में बढ़चढ़ कर बोलने वाले इस बिंदु पर आकर न्याय के पक्ष में आवाज उठाने में लाचार क्यों हो जाते हैं

            यहां तक आतेआते सूख जाती हैं कई नदियां

            हमें मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा?

तर्क देने वालों के हजारहा कुतर्क हो सकते हैं, मसलन छूटे हुए नामों में निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, दुष्यन्त कुमार जैसे अनेक नाम हैं। जहां तक निराला का प्रश्न है, वेब्राह्मण समाज में ज्यों अछूतबनकर रहे’।

            आज अमीरों की हवेली

            किसानों की होगी पाठशाला

            धोबी, पासी, चमार, तेली

            खोलेंगे अंधेरे का ताला

           कैसे स्वीकार्य होते!

राहुल सांकृत्यायन की स्थिति भी कोई बेहतर थी। उनका निष्कर्ष था, हिन्दुस्तान तो सबसे बड़े नरक में है, क्योंकि इसके ऊपर बिलायती जोकों की गुलामी भी है और अपनी भी!’ ‘सतमी के बच्चेजैसी कहानियाँ और उनका पूरा साहित्य साक्षी है। ऐसे राहुल जी को साहित्य अकादेमी सम्मान मिल गया तो इसके पीछे जवाहर लाल नेहरू थे। नागार्जुन तो खुलेआम सामाजिक न्याय और दबेकुचले लोगों के पक्षधर थे। उन्होंनेसूअरपर भी कविता लिखीयह भी तो मादरे हिन्द की बेटी है। नागार्जुन को यह कहकर हटाया गया कि उन्हें मैथिली में पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। नागार्जुन मैथिली से ज्यादा हिन्दी के साहित्यकार थे। इस भोड़े बहाने के बरक्स नोबेल पुरस्कार को रखते हैंमैडम क्यूरी को दोदो बार नोबेल मिल चुका है। औरों को भी किसी किसी बहाने छांटा गया होगा, निष्पक्ष द्विजों को भी। हमें तो लगता है, आज प्रेमचन्द भी होते तो उन्हें भी अकादेमी ने इसी विनाह पर इस योग्य माना होता।दुष्यंतऔरअदमजैसे कितने जन्मना द्विज, जनता के कवि थे, मगर ऐसे सारे जनपक्षधर अकादेमी द्वारा नकारे गए।ऐसे अनेक साहित्यकार हैं, जिन्हें अकादेमी ने सम्मानित किया भी तो ज्यादातर उनकी दोयम दर्जे या नखदंत विहीन कृतियों को सम्मानित किया, जबकि  उनकी तेजस्वी कृतियों को छोड़ दिया। साहित्य अकादेमी का काम क्या तेजस्विता पर धूल डालना भर रह गया है? सारा आयोजनप्रयोजन अच्छे साहित्यकार को निष्प्रभ और हाशिए के बाहर करने जैसा क्यों लगता है?

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ऐसा नहीं है कि वंचित जनपक्षधर, ओबीसी, स्त्री, दलित और अल्पसंख्यक साहित्य अकादेमी के सम्मान के लिए मरे जा रहे हैं, पर अगर हों तो गलत क्या है? तुम पियो तो पुण्य, हम पियें तो पाप! परीक्षाओं और साक्षात्कारों में क्यों पूछा जाता है कि अमुक लेखक को कितने सम्मान मिले हैं, किस कृति को अमुकअमुक पुरस्कार या सम्मान मिला है, विदेश यात्राओं और दीगर चीजों पर यह मुद्दा प्रभाव डालता है। सबसे बुरा यह कि जनता में वही गलत संदेश जाता है। कुल मिलाकर यह भ्रम या गलत संदेश की स्थिति फैलती है कि एक निर्णय रोजीरोटी और सम्मान से जीने के लिए कईकई निर्णयों को प्रभावित करता है।

ऐसा संदेश क्यों जाता है कि पिछड़े, दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक साहित्य अकादेमी से दूरदूर रहें, यहां उनके लिए कोई स्थान नहीं है, यह सिर्फ और सिर्फ जन्मना सवर्णों के लिए आरक्षित है।

ध्रुव और उत्तम की वह मिथकीय कथा याद आती है जहां पिता की गोद में बैठने को गए ध्रुव को उत्तम की मां यह कहकर वंचित करती है कि गोद में बैठने के लिए तुम्हें मेरी कोंख से जन्म लेना चाहिए था।

अगर ऐसा नहीं है तो क्या अकादेमी एक श्वेत पत्र जारी करेगी–  सम्मानित लेखक, पुस्तक, वर्ष के साथसाथ यह भी कि विचारार्थ अन्य किनकिन लेखकों की किनकिन कृतियों को शामिल किया गया, जूरी के सदस्य कौन थे, निदेशक कौन, संस्तोता कौन, उनमें पात्रता थी या नहीं चयन/निर्णय करने की? क्या निर्णायक मंडल को प्रकाशित सभी श्रेष्ठ कृतियों की जानकारी थी? ऐसा इसलिए कि कमअजकम पता तो चले कि वे अर्हतायें कौनकौन सी हैं जो उन्हें प्राप्त करनी चाहिए थी। ज्यादा नहीं, विगत 10 वर्षों की सूची जारी करें।

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ऐसा क्या हो गया कि सारी बौद्धिक प्रतिभा द्विजों तक ही केन्द्रित हो गई और विगत 63 वर्षों में एक भी गैर द्विज इस स्तर तक पहुंच सका? प्रगतिशील माने जाने वाले एक शीर्ष पत्रकार ने तो एक बार यहां तक कहा था कि सभी क्षेत्रों में श्रेेष्ठ प्रतिभायें ब्राह्मण वंश से ही आती हैं। क्या मतलब…? वर्गों की तरह वर्णों में भी साहित्य बंटा होता है और गैर द्विजों पर घृणा से थूकते थे दुर्वासागण हमेशा प्रचारितप्रसारितपूजित होते रहते हैं।

सालदरसाल यह सब स्वस्थ साहित्य के नाम पर चलाया जाता रहा और कोई चूं तक नहीं करता कि कहीं उनका नाम लिस्ट में आतेआते निकाल दिया जाये।

साहित्य अकादेमी सम्मान के इस मत्स्य न्याय के पक्ष में यह भी तर्क दिए जा सकते हैं कि राधाकृष्ण, धर्मवीर भारती, रांगेय राघव, मोहन राकेश, शरद जोशी, सुरेन्द्र चैधरी आदि सवर्ण प्रतिभायें भी तो थीं जिन्हें अकादेमी सम्मानित कर सकी, कि भारत की प्रायः आधी आबादी वाली हिन्दी के लिए एक सम्मान है और शेष भाषायें, जिनमें कतिपय भाषाओं के बोलने वालों की कुल संख्या कुछ एक लाख ही है, के लिए भी एक सम्मान, तो सबको अकादेमी कैसे मिलती! पूछा जाए, क्यों? एक ही वर्ष में सम्मान एकाधिक लोगों को देने का नियम भी तो बनाया जा सकता है। ज्ञानपीठ ने अपना सम्मान बांटा या नहीं? नोबेल पुरस्कार तो प्रायः हर साल बटते देखे गए हैं। अपनी इसी असूझ मात्र की मारी होती अकादेमी तो ऐसी दुविधायें दूर की जा सकती हैं, पर नहीं।

मजेदार बात है कि अकादेमी निराला की साहित्यसर्जना का सम्मान नहीं करती, वहींनिराला की साहित्य साधनाको सम्मान योग्य मानती है। कभीकभी लगता है, यह सब बहुत सचेत भाव से नहीं होता होगा, किंचित स्वतः स्फूर्त भाव से होने लगा होगा। तो क्या अतिसंख्य लोगों का ऐसा ही मानना है? अपने अंधकूप कम्फर्ट जोन के बाहर आकर देखें तो जन्मगत आधारों की धुरी धसकने लगी है। अब, जबकि बौद्धिकता की नईनई अर्गलायें, आयाम और वितान खुलने लगे हैं, साहित्य अकादेमी या ऐसी तमाम संस्थायें अपने वर्गोंवर्णों तक ही सीमित रखकर उन्हें बौद्धिक दारिद्रय में कैद रखने का सांस्कृतिक अपराध नहीं कर रही हैं? एक बार जरा मुड़कर देखे तो उसे पता चलेगा कि रोकने की इतनी कोशिशों के बावजूद क्या रेणु, राजेन्द्र यादव, राही मासूम रजा, रांगेय राघव आदि के साहित्य की स्वीकार्यता को अकादेमी रोक पायी। वे आज भी लोकप्रिय हैं जबकि अकादेमी के सम्मानित अधिकतर साहित्य को कोई पूछता भी नहीं।

(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क, इमामुद्दीन )


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