भारत सरकार की रैंकिंग बताती है कि देश के लगभग 1000 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों के टॉप तीन में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) भी शामिल है। निरंतर वह अपनी यह स्थिति बनाए हुए है। इस विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल करने वालों में से बड़ी संख्या में अकादमिक जगत तथा सरकारी क्षेत्र के सर्वोच्च विभागों में कार्यरत हैं। लेकिन, इस समय विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ इसके 7,000 छात्रों और 600 प्राध्यापकों के बीच गहरा आक्रोश व्याप्त है। और उनकी बहुत सारी शिकायतें हैं। नई दिल्ली स्थित इस कैंपस का वातावरण ‘दमघोंटू’ हो गया है। ‘जेएनयू’ की शानदार छवि को ‘मटियामेट करने की साजिश रची जा रही है।’ ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर रोक लगाई जा रही है और उसे ‘बेड़ियों में जकड़ा जा रहा है।’ उस पर ‘सुनियोजित ढंग से प्रहार’ किया जा रहा है। इस महीने की शुरुआत में 49 सांसदों ने उच्च शिक्षा मंत्री को एक सामूहिक पत्र लिखा। इस पत्र में विश्वविद्यालय के स्वरूप को ‘नष्ट’ किए जाने का आरोप लगाया गया है।
एक उच्च शिक्षा संस्थान को तबाह करने की कोशिश
विश्वविद्यालय का माहौल 2016 से ही बदतर होने लगा, जब सरकार ने इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रो. मामिडला जगदीश कुमार को जेएनयू के कुलपति पद पर नियुक्त किया। नए कुलपति को अपना पदभार संभाले कुछ ही दिन हुए थे कि वे विवादों के घेरे में आ गए। दरअसल, कुछ हिन्दू राष्ट्रवादी गुटों ने जेएनयू पर यह आरोप लगाया है कि यहां के छात्रों द्वारा कैंपस में एक प्रदर्शन के दौरान देशद्रोही नारे लगाए गए। यह आरोप लगाते हुए इन हिन्दूवादी गुटों ने जेएनयू पर आरोपों की बौछार कर दी। इसके चलते 10 छात्रों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया। छात्रों का बचाव करने की बजाय कुलपति प्रो. जगदीश कुमार का रवैया ऐसा रहा, जैसे- विश्वविद्यालय में वास्तव में और ज्यादा देभक्ति की भावना और अनुशासन की जरूरत हो। उन्होंने आक्रामक पूर्व-सेनाध्यक्षों तथा उन्मादी धार्मिक व्यक्तित्वों को व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया। कैंपस के भीतर सैन्य गौरव का भाव जगाने के लिए एक टैंक स्थापित करने का प्रस्ताव रखा।

कुलपति जगदीश कुमार के नेतृत्व में जेएनयू प्रशासन ने किसी भी मामले में छात्रों और प्राध्यापकों से सलाह-मशविरा लेने की परंपरा को समाप्त कर दिया। अब विश्वविद्यालय का संचालन आदेशों के आधार पर हो रहा है। इन आदेशों का पालन पालन न करने पर दंड का प्रावधान किया गया है। जेएनयू एक शिक्षण संस्थान से अधिक एक शोध संस्थान है। इसके बावजूद भी वहां के प्रोफेसरों को कक्षाओं में विद्यार्थियों की उपस्थिति दर्ज करने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसके साथ ही प्रोफेसरों को नियमित समय पर हाजिरी दर्ज करने का आदेश दिया गया। कोई प्रोफेसर कितने शोध-छात्रों की पीएच.डी. का निर्देशन कर सकता है, राष्ट्रीय स्तर पर लागू इस नियम को जेएनयू पर भी लागू कर दिया गया। इस तरह, जहां नए छात्रों के दाखिले में दो-तिहाई सीटों की कटौती हुई है; वहीं, शिक्षकों का समय बेकार जा रहा है। जानबूझकर उन्हें पीएच.डी. के निर्देशन से रोका जा रहा है। इन नियमों के लागू होने से जेएनयू की लम्बे समय से चलती आ रही उस नीति को बुरी तरह धक्का लगा है। जिस नीति तहत निम्न जाति और अन्य वंचित समूहों के लोगों को प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। स्नातक स्तर पर अध्ययन के लिए प्रवेश के लिए एक नई नीति बनाई गई है, जो प्रवेश परीक्षा की वर्तमान पद्धति को खत्म कर देगी। अब अत्यंत सराहनीय चुनौतीपूर्ण निबंधों का स्थान बहुविकल्पीय प्रश्न ले लेंगे।
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चार नए प्राध्यापकों ने अपनी थीसिस में काफी सामग्रियों की चोरी की है, इस तथ्य का कुछ छात्रों द्वारा खुलासा किए जाने के बावूजद भी प्रशासन की ओर से न तो कोई जांच हुई और न ही उनके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की गई। इसी बीच विश्वविद्यालय ने अमेरिका में बसे भारतीय राजीव मल्होत्रा तथा सुभाष काक को विश्विद्यालय में मानद प्रवक्ता नियुक्त कर दिया। ये दोनों लोग भारत के बारे में पश्चिमी धारणाओं का विरोध करने तथा प्राचीन भारतीय विज्ञान पर विवादास्पद विचारों को समर्थन देने के कारण जाने जाते हैं।
छात्रों तथा प्राध्यापकों ने इन बदलावों के खिलाफ तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। पिछले अगस्त में जेएनयू शिक्षक संघ के 93 फीसदी सदस्यों ने प्रो. जगदीश कुमार के इस्तीफे की मांग के समर्थन में अपना वोट दिया था। लेकिन, उससे कोई फायदा नहीं हुआ। छात्रों ने फ्लैश-मॉब (बड़े पैमाने का स्वत: स्फूर्त प्रदर्शन) विरोध प्रदर्शनों का आयोजन किया और एक फिल्म भी तैयार की। इस फिल्म में उन्होंने कुलपति की विफलताओं का विवरण दिया है। इसके साथ ही नए नियमों को छात्रों और प्राध्यापकों द्वारा अदालत में चुनौती दी गई।
लेकिन, प्रो. जगदीश कुमार को भारत के हिंदू-राष्ट्रवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ठोस समर्थन प्राप्त है। दशकों से यह संगठन इस संस्थान पर ‘वामपंथी तथा आजाद खयालों’ की मजबूत पकड़ के खिलाफ आक्रोशित रहा हैं। 2014 के आम चुनाव में इसी संघ परिवार के एक अन्य आनुषांगिक संगठन, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सत्ता में आने के बाद, जेएनयू इनके आक्रोश का शिकार हुआ।
भाजपा के समर्थकों द्वारा कुछ ऑनलाइन की जा रही टिप्पणियों को देखने पर यह लगता है कि पिछले दिनों जेएनयू को जितना बर्बाद किया गया है, वे उससे संतुष्ट नहीं हैं। हाल के एक ट्वीट में आह्वान किया गया कि ‘जेएनयू पर सर्जिकल स्ट्राइक की सख्त जरूरत है।’ एक दूसरे ट्वीट में कहा गया है कि ‘जेएनयू उन देशद्रोहियों और कम्युनिस्ट गुंडों का गढ़ है, जो करदाताओं के पैसों पर मजा ले रहे हैं। अतः उनकी इस आरामगाह को ही पूरी तरह नष्ट कर देना चाहिए।’ आगामी मई में आम चुनाव होने वाला है, जिसमें अगले पांच साल के लिए फिर से भारतीय जनता पार्टी सत्तासीन हो सकती है। अपने ऊपर मंडराते इस खतरे को जेएनयू किस तरह महसूस कर रहा है, यह साफ जाहिर है। एक प्रोफेसर ने यह घोषणा की है कि यदि भाजपा फिर से चुनाव जीतती है, तो वह कैंपस छोड़ देंगे। उनका कहना है कि, ‘‘मेरा इस जगह से जितना लगाव है, उतनी ही दूर मैं इनके उन्माद से रहना चाहता हूं।’’
(यह लेख ‘द इकोनॉमिस्ट’ के जनवरी, 2019 के संस्करण में प्रकाशित आलेख ‘Roiled academy’ पर आधारित है)
(कॉपी संपादन : प्रेम बरेलवी/सिद्धार्थ)
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