छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के खिलाफ संघर्ष करने वाले लोकेश सोरी का निधन बीते 11 जुलाई को कांकेर जिले के कोमलदेव जिला अस्पताल में हो गया। वे मैक्सिलरी कैंसर से पीड़ित थे। इससे पहले उनका इलाज रायपुर के डॉ. आंबेडकर अस्पताल में चल रहा था। इससे पहले वे सुर्खियों में तब आए जब 28 सितंबर 2017 को उन्होंने कांकेर जिले के पखांजूर थाने में मिथकीय बहुजन नायकों का अपमान करने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया था। लोकेश सोरी के निधन पर देश के अलग-अलग राज्यों के बुद्धिजीवियों व सामाजिक कार्यकर्ताओं ने शोक व्यक्त किया है।
यह जानकारी तो थी कि लोकेश सोरी बीमार चल रहे हैं। उनके निधन के समाचार ने दुखी कर दिया है। वे हमारे समाज के बहादुर साथी थे। उन्होंने हमारे गोंड समाज के पुरखों के आत्मसम्मान के लिए लड़ाई लड़ी। वे हमेशा प्रेरणादायी बने रहेंगे। – तिरूमाय चंद्रलेखा कंगाली, लेखिका, आदिवासी संस्कृति की अध्येता

सांस्कृतिक वर्चस्ववाद के प्रखर विरोधी लोकेश सोरी के निधन की जानकारी मिली। मैं अत्यंत ही मर्माहत महसूस कर रहा हूं। दलित-बहुजनों के सांस्कृतिक अस्मिता के जिस संघर्ष को हमलोगों ने प्रारंभ किया, उसे उन्होंने नयी ऊंचाई तक पहुंचाया। इसके लिए हम उन्हें हमेशा याद रखेंगे। – प्रेमकुमार मणि, सामाजिक-राजनीतिक चिंतक व साहित्यकार
लोकेश सोरी के जाने की सूचना से शोकसंतप्त हूं। इतने साहसी आदमी के जाने से देश का नुकसान हुआ। – नंदिनी सुंदर, प्रोफेसर, समाजशास्त्र, दिल्ली विश्वविद्यालय
लोकेश सोरी हमारे समाज के सम्मान के लिए लड़े। उनके देहांत से हम सब दुखी हैं। लेकिन मैं कहना चाहती हूं उन लोगों को जो उनकी बीमारी को हिंदू देवी-देवता का प्रकोप कहते हैं, कि हमारे समाज का आदमी तो बीमारी से मरा, परंतु उससे बड़ी बीमारी तो आप जैसे लोगों के दिमाग में घुस गई है। – उषाकिरण आत्राम, गोंडवाना भाषाविद् व साहित्यकार
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अपने पुरखों के अपमान को लेकर हमारे समाज के लोग खुलकर विरोध नहीं करते हैं। लोकेश उनमें से थे जिन्होंने न केवल खुलकर हमारे नायकों के अपमान करने वालों का विरोध किया बल्कि न्याय के लिए जो उचित मार्ग है, उस दिशा में पहल करने का साहस किया। उनका निधन हमारे पूरे समाज के लिए क्षति है। – मनीष कुंजाम, पूर्व विधायक, छत्तीसगढ़
फारवर्ड प्रेस परिवार लोकेश सोरी के निधन से शोकाकुल है। सच कहने के एवज में उन्हें जेल में डाला गया, जहां उनका सामान्य सा साइनस कैंसर में बदल गया। वे अंतिम दम तक अगाध जिजिविषा से न सिर्फ बीमरी बल्कि सामाजिक व सांस्कृतिक वर्चस्व से लड़ते रहे। न उन्हें राजनीतिक बल तोड पाया, न ही वे बहुमत के आगे झुके। उनके बलिदान ने हमें प्रेरणा दी है तथा नई उर्जा से भर दिया है। –प्रमोद रंजन, प्रबंध संपादक, फारवर्ड प्रेस
(कॉपी संपादन : नवल)
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