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अलविदा! सांस्कृतिक संघर्ष के अपराजेय साथी लोकेश सोरी

लोकेश सोरी ने 28 सितंबर 2017 को भारत के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ा। उन्होंने दलित-बहुजनों के सांस्कृतिक संघर्ष को नयी धार देते हुए मिथकीय बहुजन जननायकों का अपमान करने वालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराया। अंतिम दिन तक वे अपने विचारों के प्रति दृढ रहे। बहादुर साथी को श्रद्धांजलि

(लोकेश सोरी का जन्म 22 जुलाई 1973 को छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के केरकट्टा नामक गांव में हुआ। उनकी मां का नाम रमशीला सोरी और पिता का नाम अमरू सोरी था। लोकेश ने इंटर तक की पढ़ाई की। फिर वे सामाजिक कार्यों में लग गए। स्थानीय पार्षद भी चुने गए। दलीय राजनीति से भी उनका जुड़ाव रहा। वे  कांकेर जिला भाजपा के अनुसूचित जाति/जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष रहे। बाद में उनका मोहभंग हुआ और रावण और महिषासुर वध का विरोध किया। उन्होंने इसे लेकर 28 सितंबर 2017 को एक मुकदमा भी कांकेर के पखांजूर थाने में दर्ज कराया। उनके मुकदमे पर कार्रवाई करने की बजाय शिकायत दर्ज करवाने के तीन दिनों बाद ही पुलिस ने उन्हें व्हाट्अप पर उन्माद फैलाने वाला संदेश भेजने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। करीब डेढ़ महीने बाद उन्हें जमानत मिली।  जेल की प्रताडना से उनका सामान्य सायनस मैक्सिलरी कैंसर में बदल गया। 11 जुलाई 2019 को उनका निधन हो गया)


बहुत अधिक दिन नहीं हुए, जब मुझे लोकेश सोरी  का व्हाट्सअप पर संदेश मिला था। उन्होंने लिखा था – ‘कुछ भी हो आखिरी दम तक लड़ूंगा। जय भीम’। लोकेश सोरी का कल 11 जुलाई 2019 को निधन हो गया। देर शाम छत्तीसगढ़ के पत्रकार साथी तामेश्वर सिन्हा ने मोबाइल पर यह जानकारी दी। दो दिनों पहले ही 9 जुलाई 2019 को लोकेश सोरी से फोन पर बात हुई थी। आवाज साफ नहीं आ रही थी। जितना समझ सका उसका आशय यह था कि डाक्टरों ने कीमो लगा दिया है। इसलिए मुंह और नाक से खून का रिसाव हो रहा है। डाक्टरों ने कहा है कि वे जल्द ही ठीक हो जाएंगे।

लोकेश सोरी, आप हमारे बहादुर साथी रहे। आज भी मुझे याद है 28 सितंबर 2017 का वह दिन जब यह खबर आयी कि छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले के पखांजूर थाना में मिथकीय बहुजन जननायकों का अपमान करने वालों खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ है। मुकदमा दर्ज करवाने वाले व्यक्ति आप थे। यह ऐसी खबर थी जिसके कारण छत्तीसगढ़ के हुक्मरान पखांजूर से लेकर रायपुर तक हिल गए। आपने एक इतिहास रचा था। पिछली कई सदियों में भारत में कभी ऐसा नहीं हुआ कि किसी ने द्विज वर्चस्वकारी संस्कृति और परंपराओं के खिलाफ कानूनी लड़ाई के लिए पहल की हो। दिल्ली में हमलोगों ने आपकी इस शानदार पहल पर गर्व महसूस किया था।

लोकेश सोरी (फाइल फोटो)

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बाद में जब यह जानकारी मिली कि पुलिस ने आपको ही गिरफ्तार कर लिया है तब यकीन मानिए मुझे आश्चर्य नहीं हुआ। मुझे इस बात का अंदेशा था कि जिनकी सांस्कृतिक बुनियाद को आपने हिला दिया है, वे भला खामोश क्यों बैठेंगे। आपकी गिरफ्तारी तो तय थी। लेकिन मुझे खुशी हुई जब करीब डेढ़ महीने बाद जमानत मिलने पर जेल से रिहा हुए और आपने बिना किसी खौफ के कहा कि वह ब्राह्मण-संस्कृति जिसकी बुनियाद में ही पाखंड और वर्चस्ववाद है, उसका विरोध करते रहेंगे। आपने अपने पुरखों के सम्मान की लड़ाई लड़ते रहने की बात कही।

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बेखौफ तो आप तब भी रहे जब आप बीमार पड़े। उस दिन आपने ही बताया था कि सर, ‘सायनस हो गया है। नाक से खून निकलता है। डाक्टर को दिखलाया है।’ फिर जब सायनस कैंसर हो गया और कांकेर में आपका इलाज नहीं हो पा रहा था तब भी आपने हिम्मत नहीं हारी। मोबाइल पर आपसे बातचीत होती और हर बार आप कहते कि इलाज के लिए रायपुर जाऊंगा। एक दिन आपने कहा कि लोग कह रहे हैं कि ऐसा दुर्गा के प्रकोप के कारण हुआ। क्या सचमुच में ऐसा ही हुआ?

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आपके मन में चल रहे अंतर्द्वंद्व को मैं समझता था। एक तरफ इलाज में पैसे खर्च हो रहे थे और ऊपर से दिन पर दिन बिगड़ती आपकी तबीयत। कोई और होता तो शायद पहले ही हिम्मत हार गया होता। लेकिन आप नहीं हारे। आप हमेशा कहते रहे कि मेरी लड़ाई जारी रहेगी। चाहे जिंदगी रहे या नहीं रहे।

आपके शब्द ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत का अनुसरण कर हमेशा कायम रहेंगे। यह विश्वास भी आपने ही व्हाट्सअप पर भेजे अपने संदेशों में दिलाते। उस दिन जब रायपुर के डॉ. आंबेडकर अस्पताल से आपने फोन किया और बताया कि वहां के डाक्टर आपका इलाज नहीं कर रहे हैं। तब आदिवासी लेखक व चिकित्सक डा. सूर्या बाली से मैंने आपकी सहायता के लिए अनुरोध किया। 

कीमो के बाद कितना दर्द होता है, यह मैंने तब जाना जब आपने फोन पर बताया। आपकी वह तस्वीर अब भी मेरे सामने है मेरे मोबाइल के फोटो फोल्डर में। आपकी आंखें सूजी हुई थीं। नाक से खून का निकलना जारी था। लेकिन आपने मुझसे बात की और मुझे दिलासा दिया कि आप ठीक हो जाएंगे। मैं भी थोड़ी देर के लिए यह भूल जाता था कि एक लाख लोगों में से कोई एक होता है जिसे मैक्सिलरी कैंसर होता है। दिमाग और नाक के बीच खाली जगह में अतिरिक्त मांस बन जाता है और फिर वहां सड़न होने लगती है। मेरे कई चिकित्सक मित्रों ने मुझे आपके बारे में पहले ही बता रखा था कि आप अपने जीवन के अंतिम चरण में हैं। लेकिन मैं आपसे यह बात कहता भी तो कैसे कहता। 

लेकिन आप भी यह जानते थे। इसलिए जब भी मौका मिलता मुझे बताते कि यदि आप को जीने का मौका मिला तो आप क्या-क्या करेंगे। आपने एक बार कहा कि यदि मुझे दस साल और समय मिल जाय तो मैं पूरे छत्तीसगढ़ में अपने लोगों का संगठन तैयार कर ब्राह्मणवादियों को चुनौती दूंगा। जब आप ऐसा कहते, तो मेरा विश्वास बढ़ता कि जिस संघर्ष को आपने आगे बढ़ाया है, वह अब रूकने वाला नहीं है। 

अलविदा मेरे बहादुर साथी। 

(कॉपी संपादन : सिद्धार्थ)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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