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जानिए सावित्रीबाई फुले का सामाजिक चिंतन, उनके पत्रों से

कम लोगों का ही ध्यान सावित्रीबाई फुले के पत्रों पर जाता है। सिद्धार्थ लिखते है कि सावित्रीबाई फुले के पत्रों में व्यापक समाज की चिंता, इंसानियत के प्रति गहरे प्रेम, अन्याय के प्रति तीखे विद्रोह, जातिवादी मानसिकता के खिलाफ आक्रोश और समता-आधारित समाज की आशाएं अभिव्यक्त हैं

3 जनवरी : सावित्रीबाई फुले जयंती विशेष 

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी, 1831 – 10 मार्च, 1897) द्वारा जोतीराव फुले को लिखे पत्र अपने जीवन साथी के प्रति उनके आत्मीय सम्मान, व्यापक समाज की चिंता, सभी इंसान (समुदायों) के प्रति गहरे प्रेम, अन्याय के प्रति तीखे विद्रोह, जातिवादी मानसिकता के खिलाफ आक्रोश और समता-आधारित समाज की चाह की सघन अभिव्यक्ति हैं। ये पत्र उनकी चिंतनशील उन्नत वैचारिक चेतना को स्पष्ट रूप से प्रकट करते हैं। इन पत्रों को पढ़ते हुए यह समझ में आता है कि वे किसी भी मनुष्य के दु:ख से कितना विचलित होती थीं और उस दु:ख को दूर करने के लिए वे किस हद तक कुछ भी करने को तैयार हो जाती थीं।

ये पत्र बताते हैं कि फुले दंपत्ति (सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले) के बीच संवेदना और चेतना के स्तर पर किस कदर की समानताएं थी। दोनों के सरोकार और चिंताएं एक थीं। जोतीराव फुले, सावित्रीबाई फुले के जीवन-साथी होने के साथ उनके शिक्षक और मार्गदर्शक भी थे। दोनों के बीच कितनी आत्मीयता थी, इसकी गहराई इन पत्रों में मिलती है। ये पत्र इस सार्वभौमिक सच्चाई के प्रतीक हैं कि जो दंपत्ति व्यापक समाज के सुख-दु:ख से वास्ता नहीं रखते और जिनके दिल में इंसान के प्रति गहरा प्रेम नहीं है, वे व्यक्तिगत जीवन में भी एक दूसरे से गहरा और उन्नत स्तर का प्रेम नहीं कर सकते हैं।

अपने पत्रों में सावित्रीबाई फुले अपने पति जोतीराव फुले को “सत्यरूप” कहकर संबोधित करती हैं। उनका संबोधन इस प्रकार है, “सत्यरूप जोतीबा जी को, सावित्री का सविनय प्रणाम।” जो कोई भी जोतीराव फुले के जीवन, संवेदना, विचारों और संघर्षों से परिचित होगा उसे यह स्वीकार करने में थोड़ी भी हिचक नहीं होगी कि जोतीराव फुले सत्य के प्रतीक थे। सावित्रीबाई फुले ने तीनों पत्रों के चंद पंक्तियों में ही निजी जीवन की बातें की हैं। सारे पत्रों में करीब सभी बातें सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई हैं। यह इस बात का प्रमाण हैं कि फुले दंपत्ति का सम्पूर्ण जीवन समाज को समर्पित था। उनकी संवेदना और सरोकार के केंद्र में “समाज” ही रहा। 

सावित्रीबाई फुले ने जोतीराव फुले को कुल तीन पत्र लिख हैं। ये तीनों पत्र मराठी में प्रकाशित “सावित्रीबाई फुले समग्र वाङ्मय” में संग्रहित हैं। पहला, 10 अक्टूबर 1856 को नायगांव पेठ खंडाला (सावित्रीबाई फुले का मायका), जिला सतारा से लिखा था। दूसरा भी नायगांव पेठ खंडाला, जिला-सतारा से 29 अगस्त 1868 को भेजा था। जबकि तीसरा, 20 अप्रैल 1877 को ओतूर जुन्नर से लिखा गया (माळी 2011)।

पहले पत्र के पहले पैराग्राफ में सावित्रीबाई फुले अपनी बीमारी का जिक्र करती हैं वे जोतीराव फुले को इस बात की सूचना देती हैं कि इस बीमारी के दौरान उनके भाई ने किस तरह उनकी सेवा की। इसमें भाई के प्रेम और लगाव का जिक्र करती हैं। 

अगले पैराग्राफ में वे फातिमा शेख की चर्चा करती हैं उनकी अनुपस्थिति में पुणे में शिक्षण और अन्य सामाजिक जिम्मेदारियां फातिमा शेख संभाल रही थीं। फातिमा के साथ उनके कितने गहरे रिश्ते थे और वे उन पर कितना विश्वास करती थीं, इसका भी संकेत इस पत्र में साफ़-साफ़ मिलता है। वे लिखती हैं कि, “मैं जानती हूं कि मेरे पुणे में न होने के कारण फातिमा शेख पर काम को बोझ बढ़ गया होगा। उसे सब काम संभालने में तकलीफ हो रही होगी परंतु फातिमा शेख काम करने में कभी ना-नुकर नहीं करती, इस बात की खुशी है और विश्वास है कि वो काम ठीक से संभाल लेगी” (तिलक 2017)।

फुले दम्पति के जीवन संघर्षों से परिचित हर व्यक्ति जानता है कि दलितों (महार-मांग) को शिक्षित करने, उनके लिए अपने घर के पानी का हौज (टैंक) खोल देने और उनके साथ पूरी तरह समानता का व्यवहार करने के कारण जोतीराव फुले के पिता ने सामाजिक दबाव में आकर दोनों (जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले) को घर से बाहर निकाल दिया था। दलितों (अतिशूद्रों) से खुद को श्रेष्ठ समझने वाले शूद्रों (आज की पिछड़ी जातियां), विशेषकर फुले की जाति के लोगों ने उन्हें समाज से बहिष्कृत कर दिया था, क्योंकि वे दलितों को अपने बराबर नहीं मानते थे। यही स्थिति सावित्रीबाई फुले के घर (मायके) में भी थी।

इस संदर्भ में अपने भाई का जिक्र करते हुए सावित्रीबाई कहती हैं कि “मायके में रहते हुए अक्सर भाई से आपके कामों के बारे में चर्चा होती रहती है। एक दिन उसने कहा कि ‘तुझे और तुम्हारे पति जोतीबा जी को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है क्योंकि आप दोनों महार-मांग जैसे अस्पृश्यों के लिए काम करते हो, आपका यह कार्य पाप कर्म है। यह निकृष्ट काम करके तुम लोग कुल को डुबोने का काम कर रहे हो, तुम लोग पथभ्रष्ट हो गए हो। मैं तुम्हें और तुम्हारे पति जोतीबा को फिर से समझा रहा हूं कि अपनी जाति-बिरादरी की परंपरा को निभाते हुए, उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए। वे जैसा कहते हैं वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। ये भी याद रहे कि ब्राह्मण जो बात बताए और जो भी कहे वही बात हमें धर्म-सम्मत मानकर उसका अनुसरण करना चाहिए’” (तिलक 2017)।

जोतिराव फुले और सावित्रीबाई फुले

भाई की बातों का सावित्रीबाई फुले जिस तरह से द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करती हैं, वह उनके गंभीर सामाजिक, सांस्कृतिक एवं मनोवैज्ञानिक चिंतन को अभिव्यक्त करता है। साथ ही मनुष्य के प्रति उनके गहरे प्रेम की झलक भी इसमें मिलती है। इसी पत्र में अपने भाई का एक समाजशास्त्री और मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए वे लिखती हैं, “वैसे तो मेरा भाई स्वभाव से दयालु प्रवृत्ति का है लेकिन वह बहुत भावुक और नासमझ भी है। बिरादरी की बातें सुन-सुनकर और उनकी बातों में आकर उसने न केवल मुझे भला-बुरा कहा बल्कि आपकी भी बुराई की। हम दोनों पर दोषारोपण किया। हम दोनों की निंदा करने में भी उसे कोई झिझक नहीं हुई। मां ने भी ये सब सहन किया, हालांकि उन्हें भाई का बर्ताव और व्यवहार अच्छा नहीं लगा।”

फिर वे बताती हैं कि कैसे मां ने भाई को फटकारा। यह सबकुछ सुनकर भी सावित्रीबाई फुले ने आपा नहीं खोया, न ही भाई के प्रति उनमें कोई कटुता आई। उन्होंने गंभीरता के साथ प्रेम से भरे शब्दों में भाई की संवेदना, विवेक और न्यायबोध को जागृत करने की कोशिश की और उन्हें इसमें उन्हें सफलता भी मिली। उन्होंने अपने भाई को किस भाषा में और किस तरह समझाया, यह देखने लायक है।

उन्होंने भाई से कहा, “आपको क्यों लगता है कि आपने जो कहा वो परम सत्य है? भाई आपकी बुद्धि को क्या हुआ है? आपको क्यों नहीं समझ में आता है कि आप बिल्कुल नासमझ व्यक्ति की तरह बातें करते हैं। आपकी मति ब्राह्मणों की चाल की शिकार हो गई है। उनकी घुट्टी पी-पीकर, उनके पाखंडी उपदेश सुनकर आपकी बुद्धि दुर्बल हो गई है और इसी कारण आपके स्वयं के विवेक ने काम करना बंद कर दिया है। एक तरफ आप इतने दयालु बनते हैं कि बकरी और गाय को खूब प्यार करते हैं, उन्हें दुलारते हैं, नागपंचमी के त्यौहार पर विषैले सांपों को भी दूध पिलाते हैं, आपके ये कृत्य धर्म-सम्मत हैं और महार-मांग जैसे इंसानों को आप इंसान [ही] नहीं समझते। उनसे आप परहेज करते हैं, उन्हें अछूत, अस्पृश्य समझकर दुत्कारते हो, क्यों करते हो ऐसा? ऐसा करने की सही वजह क्या है? क्या आप नहीं जानते कि ब्राह्मण लोग तुम्हें भी अछूत समझते हैं। हमारे स्पर्श से भी उन्हें नफरत है। वे आपसे महार जैसा ही व्यवहार करते हैं, है कि नहीं?” ( तिलक 2017)।

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सावित्रीबाई फुले का अपने भाई से कहा गया उपरोक्त कथन इसका भी प्रमाण है कि उन्हें ब्राह्मणवाद और श्रेणीक्रम आधारित जातीय संरचना का कितना गहरा ज्ञान था। उनका भाई उनके समझाने से काफी लज्जित हुआ, लेकिन बहुत सारे प्रश्न भी पूछता है। उन प्रश्नों का भी समझदारी के साथ सहज भाषा में सावित्रीबाई ने जवाब दिया। यह जवाब उनके चिंतक व्यक्तित्व की झलक देता है, जो उनकी कविताओं में सबसे मुखर तरीके से दिखाई देता है।

वे पूरी दुनिया और देश के पैमाने पर घटित हो रही घटनाओं से काफी परिचित थीं बहुत विषम और विपरीत परिस्थिति में उन्होंने अपने कार्यभारों को दक्षता के साथ निभाया। वे भाई के प्रश्नों का उत्तर देते हुए दूसरे देश के लोगों (अंग्रेजों) द्वारा महार-मांग लोगों के लिए किए जा रहे कार्यों की चर्चा करती हैं। ब्राह्मणों के कुचक्रों का पर्दाफाश करती हैं और शिक्षा की महत्ता बताती हैं।

सावित्रीबाई फुले लिखती हैं कि, “देखो! दूसरे देश के लोग (अंग्रेज), महार-मांग और अन्य [पिछड़े] जातियों के उत्थान हेतु बहुत काम कर रहे हैं … कैसे अज्ञानता और अनपढ़ता मनुष्यता के लिए घातक है, अविद्या के कारण मनुष्य पशुवत है। ब्राह्मण स्वयं को श्रेष्ठ समझते हैं, उनकी श्रेष्ठता का आधार ज्ञान अथवा शिक्षा पर अधिकार होना ही है। ज्ञान की महिमा अपार है। जो व्यक्ति या जाति शिक्षा पा लेती है या शिक्षित हो जाती है, उसका बौद्धिक विकास होने लगता है” (तिलक 2017)। वे विस्तार से शिक्षा के महत्व के बारे में अपने भाई को बताती हैं।

चूंकि उनके भाई ने जोतीराव फुले  के बारे में भी बुरा-भला कहा था। इसका जवाब देते हुए वे जोतीराव फुले के व्यक्तित्व के बारे में बताती हैं, “आप मेरे पति के बारे में कुछ नहीं जानते, वे एक सच्चे इंसान हैं, वे वास्तव में बहुत महान हैं। आज के समय में हमारे आस-पास यहां तक कि इस देश में उनकी तुलना में कोई नहीं है, न ही किसी से उनकी तुलना की जा सकती है। उनका ध्येय है कि महार-मांग और स्त्रियां शिक्षित होकर इंसान के रूप में स्वयं को स्थापित करते हुए अपना जीवन-यापन करें। यही वो वजह है जो जोतीबा और ब्राह्मणों के बीच मतभेद और विवाद का विषय बनकर समाज के धरातल में चर्चा हो रहा है। जोतीबा निर्भीक होकर ब्राह्मणों के विरोध की परवाह न कर, अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु डंके की चोट पर मांग, महार और स्त्रियों आदि को निष्ठापूर्वक पढ़ाते हैं” (तिलक 2017)।

आगे वे भाई से जोतीराव फुले के कामों के प्रति स्वयं की निष्ठा प्रकट करते हुए कहती हैं, “उनके इन आदर्श कामों में, मैं हमेशा उनका हाथ बंटाती रहूंगी” (तिलक 2017)। फिर विस्तार से उन कार्यों की चर्चा करती हैं, जो वे जोतीराव फुले के साथ मिलकर करती हैं। साथ ही वे अंग्रजों द्वारा फुले के कार्यों की प्रशंसा का जिक्र गर्व से करती हैं। 

जोतीराव फुले के साथ मिलकर किए जाने वाले कार्यों से मिलने वाले सुख की चर्चा करते हुए वे कहती हैं, “लोगों को शिक्षित करने में मुझे बहुत शांति मिलती है, स्त्रियों को पढ़ाने से मुझे खुद को प्रेरणा, प्रोत्साहन और ऊर्जा मिलती है। यह काम मुझे खुशी देता है, इससे मुझे सुख-शांति, आत्म-तृप्ति मिलती है। यही वो काम हैं जिसमें इंसानियत और मानवता दिखाई पड़ती है” (तिलक 2017)

पत्र में सावित्रीबाई यह भी जिक्र करती हैं कि मेरी बातों का गहरा असर भाई और मां पर पड़ा है। अंत में वे संकल्प व्यक्त करते हुए कहती हैं, “हमारे जीवन का एक-एक क्षण, एक-एक पल लोगों को शिक्षित करने और हर समय उनकी भलाई और उन्हें स्वाभिमानी बनाने में देना होगा। हमें विश्वास है कि हम सफल जरूर होंगे। भविष्य में हमारे किए गये कामों का मूल्यांकन समय जरूर करेगा, इससे अधिक और क्या लिंखू…” (तिलक 2017)। इस पंक्तियों से सावित्रीबाई फुले के अंदर भरी हुई सामाजिक परिवर्तन की अलक झलकती है

जातिवाद के खिलाफ सावित्रीबाई फुले के संघर्ष को दर्शाता हुआ चित्रण

दूसरा पत्र 29 अगस्त, 1868 को नायगांव खंडाला (सावित्रीबाई फुले का मायका) से लिखा था। यह पत्र प्रेम करने वाले एक जोड़े के बारे में है। इसमें युवक का नाम गणेश और युवती का नाम सिरजा है। युवक गणेश कहीं बाहर से आकर सावित्रीबाई फुले के गांव ( मायके) में रहने लगा था। उसका प्रेम गांव की एक लड़की सिरजा से हो गया था। लड़की गर्भवती भी हो जाती है। गांव के लोगों को यह बात पता चला। दोनों शादी करना चाहते थे। लड़की के गर्भवती होने की जानकारी होते ही गांव के कुछ लोग दोनों की निर्ममता से पिटाई करते हैं और उन्हें अपमानित भी करते हैं। उन्हें जान से मारने की कोशिश की जाती है जिसे आजकल “ऑनर किलिंग” कहते हैं।

जैसे ही यह खबर सावित्रीबाई फुले तक पहुंची, वह सबकुछ छोड़कर उन्हें बचाने के लिए दौड़ पड़ती हैं। वह उन दोनों को मारने पर उतारू भीड़ के सामने चट्टान की तरह खड़ी हो जाती हैं। हिंसक हो रही भीड़ को ब्रिटिश कानून के बारे में बताते हुए कहती हैं कि यदि आप लोग इनकी हत्या करेंगे तो निसंदेह आपको सजा होगी। इस तरह समझा-बुझाकर और ब्रिटिश कानून से डराकर उन्हें प्रेमी जोड़े की हत्या करने से रोकती हैं। गांव वाले उन्हें गांव से बाहर चले जाने की सजा सुनाते हैं। प्रेमी जोड़ा यह स्वीकार कर लेता है। प्रश्न यह उठता है कि आखिर वे लोग जाएं कहां?

इस समस्या का समाधान भी स्वयं सावित्रीबाई फुले ही प्रस्तुत करती हैं। उन्हें जोतीराव फुले के पास पुणे भेजती हैं। इस संदर्भ में वे जोतीराव को लिखती हैं कि, “मैंने इन दोनों को आपकी शरण में भेज दिया है। उम्मीद है, इस घटना की जानकारी मिलने के बाद आप उनकी कहीं रहने की व्यवस्था करेंगे” (तिलक 2017)

तीसरा पत्र ओतुर, जुन्नर से 20 अप्रैल 1877 में लिखा गया है। इस पत्र की पहली पंक्ति ही व्यापक मानवीय संवेदना और सरोकार से जुड़ी हुई है। पत्र की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है, “मेरे पत्र लिखने का आशय है ‘अकाल पर रोशनी डालना।’ … जिधर देखो, पशु-पक्षी अन्न व पानी के बिना तड़प-तड़पकर मर रहे हैं। उनकी लाशें चारों तरफ फैली हुई हैं। इंसानों के जिंदा रहने के लिए अनाज नहीं है, पशुओं के लिए चारा और पानी नहीं है। इस भयंकर आपदा से बचने के लिए गांव के गांव पलायन कर रहे हैं। कुछ मां-बाप अपने जिगर के टुकड़े बच्चे व जवान बेटियों को बेचकर, अपने लिए दो वक्त की रोटी के जुगाड़ के लिए मजबूर हो गए हैं” (तिलक 2017)। इस अकाल का जिस मार्मिकता के साथ सावित्रीबाई फुले ने वर्णन किया है, उसे पढ़कर कोई भी व्याकुल हो उठेगा। वे इस पत्र में यह बताती हैं किस तरह “सत्यशोधक समाज” अकाल पीड़ितों की मदद कर रहा है।

सावित्रीबाई फुले द्वारा जोतीराव फुले को लिखे ये तीनों पत्र ऐतिहासिक दस्तावेज हैं, जिनसे उस समय के समाज की स्थिति, फुले दंपत्ति के जीवन एवं कार्य और उनके आपसी रिश्तों का अध्ययन किया जा सकता है।

 

संदर्भ सूची :

  1. माळी, डॉ. मा. गो. (2011 [1988]). सावित्रीबाई फुले- समग्र वाङ्मय. (संपादित). मुंबई: महाराष्ट्र राज्य और संस्कृति मंडल।
  2. तिलक,रजनी. (2017). सावित्रीबाई फुले रचना समग्र. (संपादित).दिल्ली: द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन।

 

संपादन: गोल्डी

फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, सस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

 

लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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