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भारतीय सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले की जीवन-यात्रा

हिंदू धर्म, समाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को सभी मानवीय अधिकारों से वंचित रखा गया था। आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने इसे चुनौती दिया, उनका नाम सावित्रीबाई फुले है। उन्होंने अपने कर्म और विचारों से वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवादी पितृसत्ता एक साथ चुनौती दी

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897)

हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों और महिलाओं को एकसमान माना गया है। अतिशूद्रों (अछूतों) को इंसानी समाज का हिस्सा नहीं माना गया अपितु उन्हें इंसान का दर्जा भी नहीं दिया गया। निर्णयसिंधु में उद्धृत एक स्मृति में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि –

स्त्रीशूद्राश्चय सधर्णाणः[1]

(अर्थात् स्त्री और शूद्र एकसमान होते हैं)

भागवतपुराण के अनुसार स्त्री तथा शूद्रों को वेद सुनने का अधिकार नहीं है। दोनों को शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है। हिंदू धर्मग्रंथों में साफ तौर पर कहा गया है कि –

स्त्रीशूद्रौनाधीयाताम्[2]

(अर्थात् स्त्री तथा शूद्र अध्ययन न करें)

ऐसा नहीं है कि महज अध्ययन के मामले में स्त्रियों और शूद्रों को समान माना गया था। करीब सभी मामलों में शूद्रों और स्त्रियों को समान माना गया। विवाह संस्कार को छोड़ दिया जाए तो अन्य सभी संस्कारों के मामले में स्त्रियों को शूद्रों के समकक्ष रखा गया है। दोनों को संपत्ति के अधिकार से वंचित किया गया है। मनुस्मृति में साफ तौर पर कहा गया है कि पत्नी, पुत्र और दास के पास कोई संपत्ति नहीं हो सकती है। उनके द्वारा अर्जित संपत्ति उनकी होती है, जिसके वे पत्नी/पुत्र/दास हैं।

भार्या पुत्रश्चः दासश्च त्रय एवाधनाः स्मृताः

यत्ते समधिगच्छन्ति यस्य ते तस्य तद्धनम्।[3]

जिस तरह ब्राह्मण ग्रंथों का आदेश है कि शूद्रों का मूल कार्य अन्य तीन वर्णों की सेवा करना है, उसी तरह स्त्री का मूल कार्य अपने पति की सेवा करना है। मनु ने बिना किसी संकोच के साफ शब्दों में आदेश दिया है कि उनके लिए ब्रह्मा ने केवल एक कर्म निर्धारित किया है कि वे विनम्र होकर तीन वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-की सेवा करें।

एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूइया।[4]

इसी तरह से महिलाओं के लिए इन हिंदू धर्मग्रंथों का आदेश है कि पति चरित्रहीन, लंपट, गुणहीन क्यों न हो, साध्वी स्त्री देवता की तरह उसकी सेवा करे।[5]  महाभारत में कहा गया है कि पति चाहे बूढ़ा, बदसूरत, घिनौना, अमीर या गरीब हो, लेकिन स्त्रियों की दृष्टि से वह उत्तम भूषण होता है, वह धनवान हो या निर्धन, खूबसूरत हो या बदसूरत, उसे साध्वी संतुष्ट रखती है, वह पत्नी सर्वश्रेष्ठ होती है। गरीब, कुरुप, निहायत बेवकूफ, कोढ़ी जैसे पति की सेवा करने वाली स्त्री अक्षय लोक प्राप्त करती है।[6]

सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897)

हिंदू धर्म, समाजिक व्यवस्था और परंपरा में शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की स्थिति को आधुनिक भारत में पहली बार जिस महिला ने चुनौती दिया, उनका नाम सावित्रीबाई फुले है। वे आजीवन शूद्रों-अतिशूद्रों की मुक्ति और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करती रहीं। उनका जन्म नायगांव नामक गांव में 3 जनवरी 1831 को हुआ था। यह महाराष्ट्र के सतारा जिले में है, जो पुणे के नजदीक है। वह खंडोजी नेवसे पाटिल की बड़ी बेटी थीं, जो वर्णव्यस्था के अनुसार शूद्र जाति के थे। वह जन्म से शूद्र और स्त्री दोनों ही एक साथ थीं, जिसके चलते उन्हें आजीवन दोनों के दंड एक साथ झेलने पड़े। ऐसे समय में जबकि शूद्र जाति के किसी लड़के के लिए शिक्षा प्राप्त करने की मनाही थी, उस दौर में शूद्र जाति में पैदा किसी लड़की के लिए शिक्षा पाने का कोई सवाल ही नहीं उठता। वे घर के काम करती थीं और साथ ही खेतों में पिता संग खेती के काम में सहयोग भी करती थीं।

शिक्षा और किताबों से दूर-दूर तक उनका कोई नाता नहीं था। पहली बार उन्होंने किताब तब देखा, जब वे गांव में अन्य लोगों के साथ बाजार शिरवाल गईं, यहां सप्ताह में एक बार बाजार लगता था। इस समय वे छोटी सी बच्ची ही थीं। जब वे बाजार से लौट रही थीं, उन्होंने देखा कि बहुत सारी विदेशी महिला और पुरुष एक पेड़ के नीचे ईसा मसीह की प्रार्थना करते हुए गाना गा रहे थे। वे जिज्ञासावस वहां रूक गईं, उन महिला-पुरुषों में किसी ने उनके हाथ में पुस्तिका थमाया। सावित्रीबाई पुस्तिका लेने से हिचक रही थीं। देने वाले ने कहा कि यदि तुम्हे पढ़ने नहीं आता, तब भी इस पुस्तिका को ले जाओ। इसमें छपे चित्रों को देखो, तुम्हें मजा आयेगा। वह पुस्तिका सावित्रीबाई अपने साथ लेकर आईं। उन्होंने उस पुस्तिका को संभालकर रख दिया। जब 9 वर्ष की ही उम्र में उनकी शादी 13 वर्षीय जोती राव फुले के साथ हुई और वे अपने घर से जोती राव फुले के घर आईं, तब वह पुस्तिका भी अपने साथ लेकर आई थीं।[7]

आधुनिक भारतीय पुनर्जागरण के दो केन्द्र रहे हैं – बंगाल और महाराष्ट्र। बंगाली पुनर्जागरण मूलतः हिंदू धर्म सामाजिक व्यस्था और परंपराओं के भीतर सुधार चाहता था और इसके अगुवा उच्च जातियों और उच्च वर्गों के लोग थे। इसके विपरीत महाराष्ट्र के पुनर्जागरण ने हिंदू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं को चुनौती दिया। वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरुषों के वर्चस्व के खात्मे के लिए संघर्ष किया। महाराष्ट्र में पुनर्जागरण की अगुवाई शूद्र और महिलाएं कर रही थीं। जोती राव फुले, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रमाबाई और ताराबाई शिंदे इसकी अगुवाई कर रहे थे। यह सच है कि इस पुनर्जागरण के सबसे प्रमुख व्यक्तित्व जोतीराव फुले थे। जोती राव गोविंदराव फुले (जन्म – 11 अप्रैल 1827, मृत्यु – 28 नवम्बर 1889) एक विचारक, समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक तथा क्रान्तिकारी कार्यकर्ता थे।

जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले की पेंटिंग

डा. आंबेडकर ने अपने शोध-पत्र ‘भारत में जातियां: उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास’ में लिखा है कि स्त्री-जाति से बाहर के पुरुषों से संबंध न कायम करने पाये, इसके लिए ब्राह्मणों ने सती प्रथा, विधवा प्रथा और बाल विवाह का नियम बनाया। इसमें सती प्रथा और विधवा प्रथा का पालन तो सिर्फ द्विज जातियां करती थीं, लेकिन उनकी देखा-देखी बाल विवाह का प्रचलन शूद्रों-अतिशूद्रों में भी हो गया। ब्राह्मणवादियों की इसी प्रथा का पालन करते हुए सावित्रीबाई के पिता खंडोजी नेवसे ने उनकी शादी 1840 में 9 वर्ष की उम्र में ही जोतीराव फुले से कर दी। जोतीराव फुले भी नाबालिग ही थे। बाल विवाह उस समय व्यापक तौर पर प्रचलित परंपरा थी।

जोतीराव फुले भी ब्राह्मणवादी वर्ण-जाति व्यवस्था के श्रेणीक्रम में शूद्र वर्ण और माली जाति के थे, जिनके लिए ब्राह्मणवादी धर्मग्रंथों का आदेश है उनका काम ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा करना है।

जोतीराव के पूर्वज खेती करते थे। गुजारा जैसे-तैसे हो जाता था। गांव के पटवारी के साथ उनकी पटी नहीं। उसके कारनामों से तंग आकर आखिर में उन्होंने गांव छोड़ दिया। पहले वे सतारा के कटगुल गांव में रहते थे, फिर पूना जिले के खानवड़ी गांव में और अन्त में पूना में आ बसे। बाद में उनके परिवार ने फुलवारी सजाने-संवारने का काम सीखा। धीरे-धीरे उनकी कीर्ति पेशवाओं तक पहुंच गयी। उन्हें पेशवाओं की फुलवारी में काम मिला। काम वे इतने बढिया ढंग से करते थे कि उससे प्रसन्न होकर पेशवाओं ने उन्हें पैंतीस एकड़ जमीन इनाम में दे दी। अब लोग उन्हें ‘फुले’ कहने लगे। जोतीराव के दादा शेटीबा थे। उनके तीसरे पुत्र गोविन्द थे, जिनके दूसरे पुत्र जोतीराव फुले थे। इसी के चलते उनका पूरा नाम जोतीराव गोविन्दराव फुले पड़ा।[8]

जोतीराव की उम्र सालभर ही थी, तभी उनकी मां विमलाबाई का देहांत हो गया। उसके बाद उनका लालन-पालन सगुणाबाई ने किया, जिनका पूरा नाम सगुणाबाई खंडू क्षीरसागर था। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले की शिक्षा-दीक्षा में सगुणाबाई की अहम भूमिका है।

जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले की कर्मस्थली महाराष्ट्र के फुलेवाड़ा में बने तोड़णद्वार पर उत्कीर्ण सावित्रीबाई फुले व उनके जीवन पर आधारित की प्रतिमाएं (तस्वीर : एफपी ऑन द रोड, जून 2017)

सगुणाबाई क्षीरसागर का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। बचपन में ही उनकी शादी हो गई थी और बहुत जल्दी वह विधवा हो गईं। उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए एक अनाथालय में काम करना शुरू किया। यह अनाथालय ईसाई मिशनरी द्वारा चलाया जाता था। जिसके संरक्षक मिस्टर जान थे। यहीं उन्होंने टूटी-फूटी अंग्रेजी भाषा सीखी। सर्वप्रथम यहां उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे जैसे मूल्यों की शिक्षा ग्रहण की।9 मानवीय गरिमा के साथ जीने का अर्थ समझा। उन्होंने इस शिक्षा और इन मूल्यों से जोतीराव फुले और बाद में सावित्रीबाई फुले को परिचित कराया। उन्हें आधुनिक मूल्यों से सींचा। सुगणाबाई ने जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले को गढ़ा था। उनको याद करते हुए सावित्रीबाई फुले ने एक कविता लिखी है, जिसमें वे उनकी प्यार-दुलार, मेहनत और ज्ञान की प्रशंसा की है। वे उन्हें आऊ कहकर बुलाती थीं। मराठी में मां को आऊ कहकर बुलाते हैं। सावित्रीबाई अपनी कविता ‘हमारी मां’ में उनके बारे में लिखती हैं-

हमारी मां बेहद मेहनती

प्यार-दुलार से परिपूर्ण

और दयालु थी

सागर भी उसके आगे

कमतर खाली-खाली

उसके आगे आसमान भी झुका-झुका।

हमारी मां घर आई

जैसे मयूर होकर बैठी।

जैसे मूर्तिमंत साक्षात्

विद्या की शक्ति

हृदय के भीतर हमने उसे रखा है।[9]

इस बात पर जरूर ध्यान देना चाहिए कि उन्होंने सगुणा को हमारी मां कहकर संबोधित किया है। वास्तव में सगुणाबाई ने 1 साल की उम्र से ही जोतीराव फुले को पाला-पोसा और शिक्षित-दीक्षित तो किया ही साथ ही 9 वर्षीय सावित्रीबाई को भी शिक्षक मां की तरह पाला-पोसा और शिक्षित-दीक्षित किया। जोतीराव फुले ने अपनी किताब ‘सृष्टिकर्ता की खोज’ (निर्मिकचा शोध) अपनी आऊ सगुणाबाई को समर्पित किया है। उन्होंने इस समर्पण में सगुणाबाई के लिए लिखा है कि ‘‘सत्य का ज्ञान कराकर, सगुणाबाई आपने हमें मानवीय और विनम्र बनाना सिखाया। आपने मुझे दूसरों के बच्चों को प्रेम करना सिखाया। बहुत आभार के साथ, मंैने आप से सीखा। यह पुस्तक मैं आपको समर्पित करता हूं।’’[10]

जब 1848 में जोतीराव फुले ने अछूत कही जाने वाली लड़कियों के लिए अलग से स्कूल खोला तो, उस स्कूल में सावित्रीबाई के साथ सगुणाबाई और फातिमा शेख भी शिक्षक नियुक्त हुई थीं।12 सगुणाबाई का देहांत 6 जुलाई 1854 को हुआ था।[11]

जोतीराव फुले सावित्रीबाई फुले के जीवनसाथी होने के साथ ही उनके शिक्षक भी थे। जोतीराव भली-भांति यह समझ गए थे कि शिक्षा के बिना शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को मुक्ति नहीं मिल सकती है। उन्होंने लिखा किµ

विद्या बिना मति गई

मति बिना नीति गई

नीति बिना गति गई

गति बिना वित्त गया

वित्त बिना शूद्र टूटे

इतने अनर्थ

एक अविद्या ने किए

जोतीराव फुले अविद्या को सारे अनर्थों की जड़ मानते थे। उन्होंने बार-बार इस बात को रेखांकित किया है कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जानबूझकर शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा ताकि उन्हें दास बनाकर रखा जा सके, उनका शोषण किया जा सके।

शिक्षा की महत्ता को समझते हुए उन्होंने अपनी बुआ सगुणाबाई के साथ मिलकर सावित्रीबाई को पढ़ना-लिखना सिखाया। जिस पहली किताब से उनकी शिक्षा की शुरुआत हुई, वह वही तस्वीरों वाली किताब थी, जिसे वह अपने साथ लेकर आई थीं। यह ईसा मसीह की चित्रों वाली कहानी थी।14 सावित्रीबाई फुले सगुणाबाई के साथ ही जोतीराव फुले को अपनी कविताओं में शिक्षा की ज्योति जगाने वाले के रूप में याद करती हैं। उन्होंने ‘जोतीबा’ शीर्षक से एक कविता लिखी है, जिसमें वे जोतीराव फुले की पूरी जीवन-यात्रा और जीवन-संघर्षों का वर्णन करती हैं। वे लिखती हैं –

जैसे थे संत तुकोबा

वैसे ही संत जोतीबा

ज्ञान का अमृत बांटा जनता में

क्रियाशील स्रष्टा नेता जोतिबा[12]

उन्होंने अपने काव्य संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ की पहली कविता में ही सबसे पहले जोतीराव फुले को याद किया है। वे लिखती हैं –

जिनकी प्रेरणा से

मैं कविताओं का सृजन करती हूं

जिनके स्नेह से

मुझे परमानन्द होता है प्राप्त

जिन्होंने दी सद्बुद्धि सावित्री को

जिन्होंने मुझे पढ़ाया-लिखाया

प्रणाम करती हूं मन से मैं जोतिबा को[13]

जोतीराव फुले और सगुणाबाई की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद सावित्रीबाई फुले ने औपचारिक शिक्षा अहमदनगर में ग्रहण किया। उसके बाद उन्होंने पुने के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण लिया। इस प्रशिक्षण स्कूल में उनके साथ फातिमा शेख ने भी अध्यापन का प्रशिक्षण लिया। यहीं उनकी गहरी मित्रता कायम हुई। फातिमा शेख उस्मान शेख की बहन थीं, जो जोतीराव फुले के घनिष्ठ मित्र और सहयोगी थे। बाद में इन दोनों सहपाठिनी ने एक साथ अध्यापन का कार्य भी किया। जब 15 मई 1848 को पुणे के भीड़बाडा में जोतीराव फुले ने पहला स्कूल खोला तो वहां सावित्रीबाई फुले मुख्य अध्यापिका बनीं।17  यहां इस तथ्य को जरूर रेखांकित कर लेना चाहिए कि सावित्रीबाई फुले, सगुणाबाई और फातिमा शेख पहली भारतीय महिला थीं, जो अध्यापक बनीं।[14]

जोतीराव फुले व सावित्रीबाई फुले की कर्मस्थली महाराष्ट्र के फुलेवाड़ा में उनके घर के परिसर में फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन (तस्वीर : एफपी ऑन द रोड, जून 2017)]

शिक्षा ग्रहण करने और अध्यापन का प्रशिक्षण लेने के बाद सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं को शिक्षित करने का वीणा उठाया। उनकी एक कविता का शीर्षक है, ‘शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ’। इस कविता में वे आह्वान करती हैं कि अतिशूद्रों (आज के दलित) भाइयों जागो! गुलामी की परंपरा को तोड़ दो और शिक्षा ग्रहण करो  –

उठो भाईयों, अतिशूद्रों!

जागो, उठ खड़े हो जाओ!

परम्परा की गुलामी खत्म करने

भाईयों शिक्षा के लिए जाग्रत हो जाओ।

ग्             ग्             ग्

संकल्प करें हम सब

ज्ञान प्राप्त करने का

विद्या का संचय करने का

शूद्र होने का धब्बा जीवन से मिटाने का।[15]

जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले दोनों शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए एक साथ जीवन-संघर्ष में उतरे। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षा की जरूरत के संदर्भ में उन्होंने लिखा कि ‘‘मेरे देशबंधुओं में महार, मांग, चमार दुःख और अज्ञान में डूबे हुए हैं। स्त्रियों के स्कूल ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकर्षित किया। पूर्ण विचारोपरांत मेरा यह निश्चित मत हुआ कि लड़कों के स्कूल के बजाय लड़कियों का स्कूल होना बहुत जरूरी है। महिलाएं दो-तीन साल की आयु में जो संस्कार अपने बच्चों पर डालती हैं, उसी में उन बच्चों के भविष्य के बीज होते हैं।’’[16]

जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले द्वारा शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं के लिए खोले जा रहे स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही थी। इनकी संख्या चार वर्षों में करीब 18 तक पहुंच गई। फुले दंपत्ति के ये कदम सीधे-सीधे ब्राह्मणवाद को चुनौती थे। शिक्षा पर उनके एकाधिकार को चुनौती मिल रही थी क्योंकि समाज पर उनके वर्चस्व  के लिए सबसे अहम कारक शिक्षा पर एकाधिकार था। लोकमान्य तिलक जैसे लोगों ने इन स्कूलों का विरोध किया। जोतीराव फुले के पिता गोविन्दराव फुले पर चारों ओर से दबाव पड़ने लगा कि वे या तो स्कूल बंद करा दें या अपने बेटे और बहू को घर से बाहर निकाल दें। लोगों ने उनसे कहना शुरू किया कि ‘‘तुम्हारा लड़का धर्म और समाज के लिए कलंक है। उसकी पत्नी भी निपट निर्लज्ज और मर्यादाहीन है। दोनों समाजद्रोही और धर्मद्रोही हैं। उनके व्यवहार के कारण तुम पर परमात्मा का कोप होगा। अच्छा हो, दोनों को घर से बाहर निकाल दो।’’[17] ब्राह्मण पुरोहितों ने गोविन्दराव पर कड़ा दबाव बनाया। गोविन्दराव पुरोहितों और समाज के सामने कमजोर पड़ गए। उन्होंने जोतीराव फुले से कहा कि या तो स्कूल छोड़े या घर।[18] एक इतिहास निर्माता नायक की तरह दुखी और भारी दिल से जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए घर छोड़ने का निर्णय लिया। पति-पत्नी खाली हाथ घर से निकले। उन्होंने सामाजिक हित के लिए व्यक्ति हित को दांव पर लगा दिया। उस्मान शेख ने उन्हें रहने की जगह दी और नया जीवन शुरू करने के साधन मुहैया करायें।[19]

परिवार से निकाले जाने के बाद ब्राह्मणवादी शक्तियों ने सावित्रीबाई फुले का पीछा नहीं छोड़ा। जब सावित्रीबाई फुले स्कूल में पढ़ाने जातीं, तो उनके ऊपर गांववाले पत्थर और गोबर फेंकते। सावित्रीबाई रूक जातीं और उनसे विनम्रतापूर्वक कहतीं ‘‘मेरे भाई, मैं तुम्हारी बहनों को पढ़ाकर एक अच्छा कार्य कर रही हूं। आपके द्वारा फेंके जाने वाले पत्थर और गोबर मुझे रोक नहीं सकते बल्कि इससे मुझे प्रेरणा मिलती है। ऐसे लगता है, जैसे आप फूल बरसा रहे हों। मैं दृढ़ निश्चय के साथ अपनी बहनों की सेवा करती रहूंगी। मैं प्रार्थना करूंगी की भगवान आपको बरक्कत दें।’’[20]  गोबर से सावित्रीबाई फुले की साड़ी गंदी हो जाती थी, इस स्थिति से निपटने के लिए वह अपने पास एक साड़ी और रखती थीं। स्कूल में जाकर साड़ी बदल लेती थीं।

एक दिन जब सावित्रीबाई फुले स्कूल से घर वापस आ रही थीं तो एक मोटा-तगड़ा बदमाश उनके सामने आकर खड़ा हो गया। उस बदमाश ने उनसे कहा कि यदि तुमने महार और मांगों (अछूत मानी जाने वाली जातियां) को पढ़ाना बंद नहीं किया तो तुम्हारे लिए ठीक नहीं होगा। तुम्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। लोग इस दृश्य को देखने के लिए इकट्ठा हो गए लेकिन कोई भी सावित्रीबाई फुले को बचाने के लिए सामने नहीं आया। सावित्रीबाई डटकर खड़ी रहीं, उन्होंने उस बदमाश को एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया। वह बदमाश भाग खड़ा हुआ और दर्शक भी चले गए। यह खबर आग की तरह पूरे पुणे में फैल गई और उसके बाद ऐसी कोई घटना दुबारा नहीं घटी।[21] 1852 में उन्हें आदर्श शिक्षक पुरस्कार प्राप्त हुआ था। इसी वर्ष सरकार द्वारा फुले दंपत्ति का शिक्षा में उनके योगदान के लिए अभिनंदन किया गया था।

सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले महिलाओं को सिर्फ शिक्षित ही नहीं करना चाहते थे, वे चाहते थे कि उन्हें जीवन के सभी क्षेत्रों में बराबरी मिले। जिस तरह जीवन के सभी क्षेत्रों में फुले दंपत्ति बराबरी के आधार पर जी रहे थे, वे चाहते थे कि महिलाओं को वे सभी अधिकार मिले जो पुरुषों को प्राप्त हैं। इसके लिए जोतीराव फुले ने ब्राह्मणवादी विवाह पद्धति की जगह सत्यशोधक  विवाह पद्धति की शुरुआत की। इस विवाह पद्धति में शादी के लिए लड़के-लड़की की सहमति आवश्यक थी। इसमें पुरोहित के लिए कोई स्थान नहीं था, न ही कन्यादान होता था।

23 वर्ष की उम्र में 1854 को सावित्रीबाई फुले का काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ। उनकी कविताएं शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति की भावनाओं और विचारों को अभिव्यक्त करती हैं। इन कविताओं में वे ब्राह्मणवाद-मनुवाद पर करारी चोट करती हैं, अंग्रेजी शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करती हैं, इतिहास की ब्राह्ममवादी व्याख्या को खारिज करती हैं, और नई व्याख्या प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविताएं आशा और उत्साह से भरी है। वे इन कविताओं में नए समाज का सपना देखती हैं, जिसमें किसी तरह का कोई अन्याय न हो, वर्ण-जाति व्यवस्था न हो और महिलाएं पुरुषों के अधीन न हो, बल्कि उनकी बराबर की साथी हों। वे ‘सावित्री-जोतीबा संवाद’ कविता में अन्याय के अंधेरे के मिटने और न्याय के उजाले की चर्चा चंद्रमा और सूरज के प्रतीक से करती हंै, यहां चंद्रमा रात का और सूरज दिन का प्रतीक बनकर आया।

कहे सावित्री-

चन्द्रमा अस्त हो गया

और सूरज आ पहुंचा है

चारों ओर फैल गया

अनोखा, अपूर्व उजाला

पूर्व दिशा में[22]

शिक्षा के साथ ही फुले दंपत्ति ने समाज की अन्य समस्याओं की ओर ध्यान देना शुरु किया। सबसे बदत्तर हालात विधाओं की थी। ये ज्यादात्तर उच्च जातियों की ब्राह्मण परिवारों से थीं। अक्सर कम उम्र में लड़कियों की शादी उनसे बहुत ज्यादा उम्र के पुरुषों से कर दी जाती थी। इनमें कई सारी विधवायें हो जाती थीं। ऊंची कही जाने वाली इन जातियों में विधवा का दुबारा विवाह नहीं हो सकता था। समाज इन्हें हेय दृष्टि से देखता था। इन्हें अशुभ और अपशकुन समझा जाता था। रंगीन साड़ी पहनने तक का अधिकार नहीं था। वे कोई साज-सिंगार नहीं कर सकती थीं। किसी शुभ कार्य में शामिल नहीं हो सकती थीं। सुस्वादु और अच्छा भोजन करने की  भी उन्हें मनाही थी। वे अक्सर सफेद या भगवा साड़ी पहनती थीं। उनके बाल मुंड दिए जाते थे। डा. आंबेडकर ने लिखा है कि इस सबका उद्देश्य यह होता था कि वे पर-पुरुष की ओर आकर्षित न हो, न ही उनकी ओर कोई पुरुष आकर्षित हो। उनके भीतर सेक्स या प्रेम की भावना न जागे। लेकिन कई बार ये विधवाएं अपने परिवार और संगे-संबधियों के हवस का शिकार हो जाती थीं या किसी पुरुष की तरफ आकर्षित होकर शारीरिक संबंध कायम कर लेती थीं। इस प्रक्रिया में यदि वे गर्भवती हो जाती थीं, तो उनके पास आत्महत्या करने या जन्म के बाद बच्चे की हत्या करने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचता था।

ऐसी ही एक घटना ब्राह्मणी विधवा काशीबाई के साथ हुआ। वे किसी पुरुष के हवस का शिकार होकर गर्वभती हो गईं। उन्होंने एक बच्चे को जन्म दिया। लोक-लाज से विवश होकर उन्होंने उस बच्चे को कुएं में फेंक दिया। उन पर हत्या का मुकदमा चला और 1863 में उन्हें आजीवन कारावास की सजा हुई।[23] इस घटना ने सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले को भीतर तक हिला दिया। 1863 में फुले दंपत्ति ने बालहत्या प्रतिबंधक गृह शुरू किया। कोई भी विधवा आकर यहां अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी। उसका नाम गुप्त रखा जाता था। इस बालहत्या प्रतिबंधक गृह का पोस्टर जगह-जगह लगाया गया। इन पोस्टरों पर लिखा था कि ‘‘विधवाओं! यहां अनाम रहकर बिना किसी बाधा के अपना बच्चा पैदा कीजिए। अपना बच्चा साथ ले जाएं या यहीं रखें, यह आपकी मर्जी पर निर्भर रहेगा। अन्यथा अनाथाश्रम उन बच्चों की देखभाल करेगा ही।’’[24] विधवा ब्राह्मणियों या अन्य विधवाओं के लिए इस तरह का भारत का पहला गृह था। सावित्रीबाई फुले बालहत्या प्रतिबंधक गृह में आने वाली महिलाओं और पैदा होने वाले बच्चों की देख-रेख खुद करती थीं।

सावित्रीबाई और जोतीराव की कोई संतान नहीं थी। जोतीराव पर यह दबाव था कि वे किसी और स्त्री से विवाह कर लें ताकि वे अपने वारिस को जन्म दे सकें। जोतीराव ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उनका तर्क था कि ऐसे भी हो सकता है कि संतान न होने का कारण वे स्वयं हों तो क्या ऐसी स्थिति में सावित्रीबाई को दूसरे पुरुष से विवाह करने की इजाजत दी जाएगी। फुले दपंत्ति ने एक बच्चा गोद लेने का निर्णय लिया। सन् 1874 में एक रात मूठा नदी के किनारे टहलते समय जोतीराव की नजर एक महिला पर पड़ी, जो अपना जीवन समाप्त करने के लिए नदी में कूदने को तैयार थी। जोतीराव ने दौड़कर उसे पकड़ लिया। उस स्त्री ने उन्हें बताया कि वह विधवा है और उसके साथ बलात्कार हुआ था। उसे छह माह का गर्भ था। जोतीराव ने उसे सांत्वना दी और अपने घर ले गए। सावित्रीबाई ने खुले दिल से उस स्त्री का अपने घर में स्वागत किया। उस स्त्री ने एक बच्चे को जन्म दिया, जिसका नाम यशवंत रखा गया। फुले दंपत्ति ने यशवंत को गोद ले लिया और उसे अपना कानूनी उत्तराधिकारी घोषित किया। उन्होंने यशवंत को शिक्षित किया और वह आगे चलकर डाक्टर बना। दूसरे स्रोतों (श्याम बेनेगल कृत ‘भारत एक खोज, एपिसोड-45’ जवाहर लाल नेहरु की पुस्तक डिस्कवरी आफ इंडिया पर आधारित) के अनुसार यशवंत की माता जोतीराव फुले के परिचित ब्राह्मण की विधवा बहन थी, जो अपने किसी रिश्तेदार के द्वारा गर्भधारण कर चुकी थी और घर के लोगों द्वारा इसके लिए प्रताड़ित हो रही थी। जोतीराव और सावित्रीबाई ने न सिर्फ उसकी जचगी करवाई बल्कि उसके बेटे यशवंत को गोद भी लिया। यह तथ्य कि फुले दंपत्ति ने स्वयं संतान को जन्म देने की जगह एक अनजान स्त्री के बच्चे को गोद लेने का निर्णय किया, अपने सिद्धांतों और विचारों के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। ऐसा करके उन्होंने जाति, वंश, मातृत्व, पितृत्व इत्यादि के संबंध में प्रचलित रूढ़िवादी धारणाओं को खुलकर चुनौती दी।[25] यशवंत को ही फुले दंपत्ति ने अपने पुत्र के रूप में पाला-पोसा और शिक्षित-दीक्षित किया। बाद में यशवंत डाक्टर बने। यशवंत ने भी सामाजिक कार्यों में फुले दंपत्ति का सहयोग किया। विधवा का पुत्र होने के चलते यशवंत की शादी होने में दिक्कतें आईं। 4 फरवरी 1889 को उनका सत्यशोधक पद्धति से विवाह हुआ।

ब्राह्मणवादी व्यवस्था जहां एक ओर महिलाओं को इंसानी दर्जा देने को तैयार न थी, वहीं वह दूसरी ओर अतिशूद्रों को इंसान भी नहीं मानती थी। ब्राह्मणवादी पेशवाई शासन में अतिशूद्रों (अछूतों) की क्या स्थिति थी, इस संदर्भ में डा. आंबेडकर ने लिखा है कि ‘‘मराठों के देश में पेशवाओं के शासनकाल में अछूत को उस सड़क पर चलने की अनुमति नहीं थी, जिस पर कोई सवर्ण चल रहा हो ताकि उसकी छाया पड़ने से हिंदू अपवित्र न हो जाएं। उनके लिए आदेश था कि वह एक चिह्न या निशानी के तौर पर अपनी कलाई या गले में धागा बांधे रहें ताकि कोई हिंदू गलती से उससे छू जाने पर अपवित्र न हो जाए। पेशवाओं की राजधानी पूना में अछूतों के लिए यह आदेश था कि वह कमर में झाडू बांधकर चले ताकि वह जिस जमीन पर पैर रखें, वह उसके पीछे बंधी झाडू से साफ हो जाए ताकि उस जमीन पर पैर रखने से कोई हिंदू अपवित्र न हो जाए। पूना में अछूत के लिए जरूरी था कि वह जहां भी जाए, अपने गले में मिट्टी की हांडी बांध कर चले और जब थूकना हो तो उसी में थूके ताकि जमीन पर पड़ी हुई अछूत की थूक पर अनजाने में किसी हिंदू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र न हो जाए।[26] भले ही 1818 में अंग्रेजों ने पेशवाई का अंत कर दिया लेकिन समाज में अभी भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था कायम थी। इस व्यवस्था के तहत पानी पीने के हौजों से महार, चमार और मांग पानी नहीं भर सकते थे। तपती दोपहरी में वे कई बार पानी मांग-मांग कर थक जाते थे लेकिन उन्हें एक घूंट पानी मिलना मुश्किल हो जाता था। फुले दंपत्ति ने 1868 में अपने घर के पानी का हौज इन जातियों के लिए खोल दिया। उन्होंने घोषणा कर दिया था कि कोई भी, किसी भी समय यहां आकर पानी पी सकता है।[27]

जहां एक ओर जोतीराव फुले के पिता नहीं चाहते थे कि जोतीराव और उनकी पत्नी अछूतों के लिए काम करे, वहीं दूसरी ओर सावित्रीबाई फुले के भाई भी नहीं चाहते थे कि उनकी बहन सावित्रीबाई और उनके बहनोई जोतीराव फुले अछूतों के लिए काम करें। इस तथ्य का पता सावित्रीबाई फुले के पत्रों से चलता है। यह पत्र उन्होंने अपने मायके से जोतीराव फुले को लिखा था। 1868 में सावित्रीबाई गंभीर तौर पर बीमार पड़ी। वे काफी कमजोर हो गईं। वे कुछ दिनों आराम करने के लिए अपने मायके गईं। वहां भी उन्होंने लोगों की मदद करना और सामाजिक कार्यों में हिस्सेदारी करना जारी रखा। सावित्रीबाई के भाई इस बात को पसंद नहीं करते थे कि सावित्रीबाई और उनके पति अछूतों के लिए काम करें। मायके से सावित्रीबाई ने जोतीराव को कई पत्र लिखे। उसमें एक पत्र में अपने भाई के विचारों के बारे में वे लिखती हैं कि ‘‘मायके में रहते हुए अक्सर भाई से आपके कामों के बारे में चर्चा होती रहती है, एक दिन उसने कहा कि ‘‘तुम्हे और तुम्हारे पति जोतीबा जी को समाज से बहिष्कृत कर दिया गया है क्योंकि आप दोनों महार-मांग जैसे अस्पृश्यों के लिए काम करते हो, आपका ये कार्य पाप कार्य है। ये निकृष्ट कार्य करके तुम लोग पथभ्रष्ट हो गए हो। मैं तुम्हें और तुम्हारे पति जोतिबा को फिर से समझा रहा हूं कि अपनी जाति-बिरादरी की परंपरा निभाते हुए, उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए। वे जैसा कहते हैं, हमें वैसा व्यवहार करना चाहिए। उनके बताए रास्ते पर चलना चाहिए। तुम लोगों को यह भी याद रखना चाहिए कि ब्राह्मण जो बात बताए और जो कहे वही बात हमें धर्मसम्मत मानकर उनका अनुसरण करना चाहिए।’’[28]

हालांकि सावित्रीबाई फुले ने अपने भाई को तथ्यपरक और तार्किक जवाब दिया, लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अछूतों से घृणा करते थे, जिसका असर शूद्र जातियों (आज की पिछड़ी जातियां) पर भी था। सावित्रीबाई फुले को अछूतों के लिए समाज के साथ अपने परिवार से भी संघर्ष करना पड़ा।

वर्ण-जाति व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के अन्य रूपों से संघर्ष करने के लिए जोतीराव फुले ने 1773 में ‘सत्यशोधक समाज’ नामक संस्था का निर्माण किया था। इस संस्था के संचालन में भी सावित्रीबाई फुले सक्रिय भूमिका निभाती थीं। ‘सत्यशोधक समाज’ शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की मुक्ति के लिए संघर्ष करने के साथ ही अन्य सामाजिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी और सहयोग करता था। सन् 1876-77 में महाराष्ट्र में अकाल पड़ा। बडी़ संख्या में लोग भूख से तड़प-तड़प कर मर रहे थे। सत्यशोधक समाज अकाल पीड़ितों को राहत पहंुचाने में लग गया। सावित्रीबाई फुले और जोतीराव फुले दोनों अलग-अलग जगहों पर पीड़ितों की मदद कर रहे थे। फुले दंपत्ति अकाल में अनाथ हुए बच्चों के लिए 52 स्कूल खोले। जिसमें बच्चों के रहने, खाने-पीने और पढ़ने का इंतजाम था।[29]

28 नवंबर 1890 को सावित्रीबाई फुले के जीवन-साथी और शिक्षक जोतीराव फुले का देहांत हो गया। दुख की इस घड़ी में भी उन्होंने अद्वितीय साहस का परिचय दिया। शमशान घाट पर जब यह बहस शुरू हुई कि अंतिम संस्कार गोद लिए हुए पुत्र द्वारा किया जाना चाहिए या किसी रिश्तेदार द्वारा तो सावित्रीबाई ने आगे बढ़कर यह कहा कि वे स्वयं अपने पति को मुखाग्नि देंगी और उन्होंने ऐसा किया भी। आज भी किसी हिन्दू पत्नी द्वारा अपने पति की चिता को अग्नि देना बहुत ही हिम्मत का काम माना जाता है। आज से सवा सौ साल पहले सावित्रीबाई ने यह कर दिखाया था। इस घटना से समाज में मानो भूचाल-सा आ गया। इससे यह पता चलता है कि सावित्रीबाई की सोच कितनी स्वतंत्र और मौलिक थीं और वे अपने विचारों और सिद्धांतों को अपने व्यक्तिगत जीवन में भी लागू करती थीं।[30]

जोतीराव फुले की मृत्यु के बाद सत्यशोधक समाज की बागडोर सावित्रीबाई फुले के हाथों मंे सौंपी गई। 1891 से लेकर 1897 तक उन्होंने इसका नेतृत्व किया। सन् 1893 में पुणे के निकट सासबड़ में सावित्रीबाई फुले की अध्यक्षता में सत्यशोधक समाज का वार्षिक अधिवेशन संपन्न हुआ। जोतीराव फुले के निकटतम सहयोगी महाघट पाटिल ने उनके प्रथम स्मृति दिवस के अवसर पर सन् 1891 में फुले का पहला जीवन चरित्र प्रकाशित किया था। यह पुस्तक उन्होंने सावित्रीबाई फुले को अर्पित करते हुए कहा कि ‘‘आज जोतीबा हमारे बीच नहीं हैं, उनके कार्य की संपूर्ण जिम्मेदारी जब वे जीवित थे तभी से सावित्रीबाई ने संभाली है। आज (उनके निधन के बाद) सत्यशोधक समाज की संपूर्ण जिम्मेदारी उन्होंने खुद ही उठाई है। यह किताब मैं उनको समर्पित करता हूं।’’

1892 में उनकी कविताओं का दूसरा संग्रह ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ प्रकाशित हुआ। यह बावन कविताओं का संग्रह है। इसे उन्होंने जोतीराव फुले की याद में लिखा है और उन्हीं को समर्पित किया है। यह संग्रह उन्होंने 1891 में पूरा किया था। उन्होंने इस संग्रह के संदर्भ में लिखा है कि ‘‘1891 चैत्र शुक्ल पन्द्रह यानी पूर्णिमा के दिन 1891 की रात के दो बजकर बीस मिनट पर यह बावन कविताओं का संग्रह जोतीबा फुले की याद में उनको समर्पित करते हुए पूरा हुुआ।’’36  दो कविता संग्रहों के अतिरिक्त, सावित्रीबाई फुले ने जोतीराव फुले के चार भाषणों का संपादन भी किया। ये चारों भाषण भारतीय इतिहास पर हैं। सावित्रीबाई फुले के भाषण भी 1892 में प्रकाशित हुए। इसके अतिरिक्त उनके द्वारा लिखे पत्र भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। ये पत्र उस समय की परिस्थितियों, लोगों की मानसिकता, फुले के प्रति सावित्रीबाई की सोच और उनके विचारों को सामने लाते हैं।

1896 में एक बार फिर पूना और आस-पास के क्षेत्रों में अकाल पड़ा। सावित्रीबाई फुले ने दिन-रात अकाल पीड़ितों को मदद पहुंचाने के लिए दिन-रात एक कर दिया। उन्होंने सरकार पर दबाव डाला कि अकाल पीड़ितों को बड़े पैमाने पर राहत सामग्री पहुंचाए। शूद्रों-अतिशूद्रों और महिलाओं की शिक्षिका और पथप्रदर्शक मां सावित्रीबाई का जीवन अनवरत अन्याय के खिलाफ संघर्ष करते और न्याय की स्थापना के लिए बीता। उनकी मृत्यु भी समाज सेवा करते ही हुई। 1897 में प्लेग की वजह से पूना में महामारी फैल गई। वे लोगों की चिकित्सा और सेवा में जुट गईं। स्वंय भी इस बीमारी का शिकार हो गईं। 10 मार्च 1897 को उनका देहांत हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी उनके कार्य और विचार मशाल की तरह भारत के बहुजन समाज को रास्ता दिखा रहे हैं।

(कॉपी संपादन : इमामुद्दीन/एफपी डेस्क)

संदर्भ :

[1] निर्णयसिंधु पृ. 249

[2] स्वामी विद्यानंद सरस्वती, वेद मीमांसा, दिल्ली, 1984, पृ.230-233

[3] डा. आंबेडकर, प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति,  अनुवाद और संपादन, डा. सुरेंद्र अज्ञात, सम्यक प्रकाशन,              2012, पृ. 224

[4] डा. आंबेडकर, प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति,  अनुवाद और संपादन, डा. सुरेंद्र अज्ञात, सम्यक प्रकाशन,               2012, पृ.219

[5] मनुस्मृति, 5.154

[6] महाभारत व्यवहारकांड 1.2 पृ.1030

[7] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर कालेज आफ काॅमर्स एंड इकोनाॅमिक्स, 2017 , पृ.6

[8] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतीबा फुले, डा. मु.ब. शाह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ 20

[9] काव्य फुले,  सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर काॅलेज आॅफ काॅमर्स एंड इकोनामिक्स, 2017, पृ.9

[10] एक भूली बिसरी समाज सुधारक, सावित्रीबाई फुले का जीवन और संघर्ष, संपादक, बृजरंजन मनी, पैमिला सरदार, पृ.46

[11][11] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, संपादन, अनिता भारती, अनुवाद, शेखर पवार और फारुख शेख, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2015, पृ.91

[12] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर काॅलेज आफ काॅमर्स एंड इकोनाॅमिक्स, 2017 पृ. 9

[13] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, संपादन, अनिता भारती, अनुवाद, शेखर पवार और फारूख शेख, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2015, पृ.53

[14] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतीबा फुले, डा. मु.ब. शाह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ.25

[15] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर कालेज आफ काॅमर्स एंड इकोनामिक्स, 2017 पृ.10

[16] वही, पृ.25

[17] वही पृ.10

[18] वही, पृ.10

[19] वही, पृ.10

[20] सावित्रीबाई फुले की कविताएं, संपादन, अनिता भारती, अनुवाद, शेखर पवार और फारुख शेख, स्वराज प्रकाशन, नई दिल्ली 2015, पृ. 41

[21] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर कालेज आफ काॅमर्स एंड इकोनामिक्स, पृ.12

[22] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतीबा फुले, डा. मु.ब. शाह, राधाक्ष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ. 31

[23] काव्य फुले,  सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर कालेज आफ काॅमर्स एंड इकोनामिक्स, पृ. 12-13

[24] जाति का विनाश व भारत में जातियां: उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास, डा. भीमराव आंबेडकर, फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली, 2018, पृ.41-42

[25] भारतीय सामाजिक क्रांति के जनक, महात्मा जोतीबा फुले, डा. मु.ब. शाह, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली, 2009, पृ.32

[26] सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, संपादक- रजनी तिलक, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2017, पृ.103

[27] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर कालेज आफ काॅमर्स एंड इकोनामिक्स, पृ.14

[28] काव्य फुले, सावित्री जोतीराव फुले, संपादक, ललिता धारा, प्रकाशक, पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी. डा. आंबेडकर कालेज आफ काॅमर्स एंड इकोनामिक्स, पृ.14

[29] महात्मा फुले: साहित्य और विचार, संपादक- हरि नरके,  महात्मा फुले चरित्र साधने समिती, महाराष्ट्र शासन, द्वारा उच्च व तंत्रशिक्षा विभाग, मंत्रलय मुंबई, 1993, पृ.44-45

[30] सावित्रीबाई फुले रचना समग्र, संपादक- रजनी तिलक, द मार्जिनलाइज्ड पब्लिकेशन, दिल्ली, 2017, पृ.96


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