“उसी दौर में [मंडल आंदोलन के दौरान] एक अति लोकप्रिय टेलीविजन धारावाहिक रामायण का प्रसारण हो रहा था जिसने संयोगवश उस आंदोलन को गैर सांप्रदायिक [व धार्मिक] रूप से उत्तेजित कर दिया। लालकृष्ण आडवाणी ने गौर से इस घटना का अध्ययन किया और एक विस्थापित सिंधी तथा एक दूसरी संस्कृति से ताल्लुक रखने के बावजूद उत्तर भारत में राम के प्रभाव का इस्तेमाल करने का फैसला किया।आडवाणी सोमनाथ से राम की जन्मभूमि अयोध्या की रथ यात्रा पर रवाना हुए, जहां पहले मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया था अब उन्हें [आडवाणी को] उस मस्जिद की जगह एक राम मंदिर का निर्माण करना था। उस रथ यात्रा में उनके सलाहकार प्रमोद महाजन और नरेंद्र मोदी थे जो बीजेपी के उभरते हुए सितारे थे।” पैट्रिक फ्रेंच ने 2011 में प्रकाशित अपनी चर्चित किताब ‘भारत:एक तस्वीर’ में जिस संदर्भ का उल्लेख किया है, उसका संपूर्ण चलचित्र हमारे सामने है।
फिलहाल आडवाणी नेपथ्य में हैं, प्रमोद महाजन की मृत्यु हो चुकी है और नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री हैं। इस दरम्यान हमने गोधरा से लेकर मुजफ्फरनगर और अभी कुछ दिनों पहले ही दिल्ली के सांप्रदायिक दंगों में झुलसते-उजड़ते घरों को देखा है। “जय श्री राम” के नारों के साथ उग्र भीड़ को निर्दोष लोगों पर हमला करते हुए देखा है। बेहद खौफनाक माॅब लिंचिंग जैसे अपराधों में भी इस नारे की अनुगूंज सुनी गई है।
पिछले ही वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने द्वारा अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का रास्ता साफ कर दिया गया है। इसके लिए केन्द्र सरकार ने एक ट्रस्ट का निर्माण भी कर दिया है। कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण किए गए तालाबंदी के बीच ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या जाकर मंदिर निर्माण की आधारशिला रखी और पूजा अर्चना की। इसी बीच नरेन्द्र मोदी सरकार ने घोषणा की है कि रामानंद सागर के धारावाहिक रामायण का दूरदर्शन पर दोबारा प्रसारण किया जाएगा। प्रसारण के पहले एपीसोड को भाजपा सरकार के मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों ने उत्सव की तरह लोगों से साझा किया।
सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने रामायण देखते हुए प्रसन्नचित्त अपनी फोटो ट्वीट करते हुए लिखा , “मैं रामायण देख रहा हूँ,और आप?” स्वास्थ्य मंत्री से लेकर उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने भी रामायण देखने वाले अपने फोटो शेयर किए। यह सब तब हो रहा है जब पूरी दुनिया में कोरोना वायरस के प्रकोप से मुर्दाघाटों वाली स्थिति बनी हुई है। चीन से लेकर इटली, ईरान, स्पेन,जर्मनी,अमेरिका जैसे पूँजीवादी, विकसित और उच्च स्वास्थ्य सेवाओं से संपन्न देशों से लेकर एशिया,अफ्रीका के तमाम विकासशील और गरीब देशों में कोरोना का प्रकोप फैल चुका है। हजारों लोगों की मौत हो चुकी है। लाखों लोग कोरोना के संक्रमण से जूझ रहे हैं। सभी देशों में लाॅकडाउन किया जा रहा है। सड़कों पर वीरानी है। अस्पतालों में भीड़ है लेकिन मौत का साया पसरा हुआ है। शायद ही दुनिया में कभी इतना सन्नाटा और खौफ रहा हो। यहां तक कि भारत में भी अफरातफरी की स्थिति है। बड़ी संख्या में गरीब प्रवासी मजदूर बड़े शहरों से अपने घरों की ओर पैदल ही लौट रहे हैं। इनमें अधिकांश दलित, ओबीसी और आदिवासी हैं।
नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने कोरोना से लड़ने और लाॅकडाउन का पालन करवाने के लिए रामायण दिखाने की तरकीब निकाली है। जाहिर तौर पर यह आरएसएस की विचारधारा का पोषण करती है। इस ऐलान के पहले 21 मार्च को एक दिन के जनता कर्फ्यू के साथ शाम पाँच बजे थाली और ताली बजाने का आह्वान खुद प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। लोगों ने इसे एक तमाशे में तब्दील कर दिया था। प्रदर्शन के लिए लोग सड़कों चौराहों पर आ गए। तब शायद लोगों को घर में बिठाने के लिए रामायण के पुनर्प्रसारण का निर्णय लिया गया। लेकिन एक सवाल जरूर पूछा जाना चाहिए कि दूरदर्शन पर रामायण का प्रसारण ही क्यों? भारतीयता को दर्शाने वाले ‘भारत : एक खोज’ या संविधान की बहस पर केन्द्रित धारावाहिक को क्यों नहीं दिखाया जा सकता था?
प्रकाश जावड़ेकर ने प्रसारण की सूचना देते हुए ट्वीट किया था कि जनता की मांग पर रामायण को दूरदर्शन पर दिखाया जाएगा। सोशल मीडिया पर मंत्री दोनों बार ट्रोल हुए। जब उन्होंने रामायण देखते हुए अपना फोटो शेयर किया तो लोगों ने दिल्ली, हरियाणा, मुंबई, लखनऊ के चौराहों और सड़कों पर भटकती बदहवास मजदूरों की भीड़ की तस्वीरें पोस्ट कीं। प्रकाश जावड़ेकर की इस हरकत पर लोगों ने इतनी तल्ख टिप्पणियाँ कीं। इसके जवाब में जावड़ेकर को अपना ट्वीट डिलीट करना पड़ा। लेकिन सवाल फिर वही है कि जब लाखों मजदूर अपने बाल बच्चों समेत सैकड़ों कोस भूखे प्यासे पैदल चलने को मजबूर हों तब रामायण दिखाने का औचित्य क्या है? क्या भाजपा महामारी और भुखमरी के इन बुरे दिनों में भी अपना हिन्दुत्ववादी एजेंडा आगे बढ़ाने में लगी है? क्या भाजपा इतनी निष्ठुर और बेहया है कि उसे हिन्दुत्व के एजेंडे के अलावा कुछ नहीं सूझता? क्या वास्तव में हिन्दुत्व का एजेंडा अफीम के नशे में तब्दील हो चुका है? इसलिए भाजपा के लिए हिन्दूराष्ट्र का मुद्दा ही महत्वपूर्ण है। क्या हिन्दुत्व ही भाजपा की जीत को सुनिश्चित करता है, इसलिए लोगों के जान माल की हिफाजत भाजपा के लिए कोई मायने नहीं रखती?
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दरअसल भाजपा अपने दीर्घकालिक एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। ऐसा लगता है कि भाजपा अपने पितृ संगठन आरएसएस की स्थापना के सौवें वर्ष (2025) में भारत को हिन्दू राष्ट्र के तौर पर घोषित करना चाहती है। संघ प्रमुख मोहन भागवत पहले ही कह चुके हैं कि भारत हिन्दू राष्ट्र है। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में टिप्पणी की थी कि हिन्दू कोई धर्म नहीं बल्कि जीवन शैली है। इस आधार पर ही मोहन भागवत समस्त भारतीयों की एक ही जीवन शैली मानते हुए सभी लोगों को हिन्दू और भारत को हिन्दू राष्ट्र कह रहे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि केवल धर्म के आधार पर ही नहीं बल्कि संस्कृति के आधार पर भी भारत विविधताओं वाला राष्ट्र है। भाजपा सरकार जानती है कि संविधान में बदलाव किए बिना भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं बनाया जा सकता। इसलिए उसने लोकतंत्र के सभी स्तंभों और तमाम संस्थाओं पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है। यही कारण है कि किसी भी मुद्दे पर सरकार को घेरना विपक्ष के लिए मुमकिन नहीं हो रहा है।
भाजपा अपने एजेंडे की कामयाबी की ओर लगातार बढ़ रही है। संविधान और उसके मूल ढाँचे पर प्रहार करने से भी पार्टी नहीं चूक रही है। जैसे, धर्मनिरपेक्षता को ही देखिए। देश विभाजन के समय उभरी सांप्रदायिक दरार को पाटने के लिए संविधान और समाज में धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्य को स्थापित करने की कोशिश की गई थी। लेकिन आज विशेषकर मीडिया के मार्फत एक ऐसा नैरैशन खड़ा किया जा चुका है कि मध्यवर्ग और सामान्य हिन्दू जनमानस में सेक्यूलरिज्म का मतलब मुस्लिम परस्त और देशद्रोह हो गया है। ‘सेक्यूलर’ शब्द को इतना महत्वहीन और नकारात्मक बना दिया गया है कि राजनीतिक दलों ने भी इससे दूरी बना ली है। 2019 का लोकसभा चुनाव बड़े बहुमत के साथ जीतने के बाद नरेन्द्र मोदी ने बहुत गर्व के साथ कहा था कि इस चुनाव में धर्मनिरपेक्षता की बात करने की किसी की हिम्मत नहीं हुई। अब सामान्य लोग अपने को सांप्रदायिक कहने में कोई संकोच नहीं करते। उग्र हिन्दू कहलाने में उन्हें गर्व की अनुभूति होती है।
इसका बहुत स्पष्ट कारण है। जनसंघ और उसके नये अवतार भाजपा ने हमेशा ही बहुसंख्यकवादी राजनीति की है। उसने सांप्रदायिकता के दाग को हमेशा तमगे की तरह इस्तेमाल किया है। सांप्रदायिक राजनीति से भाजपा ने खुद को हिन्दू हितैषी के रूप में प्रदर्शित किया। इसका ही नतीजा है कि आज ‘सेक्यूलर’ शब्द का मतलब हिन्दू विरोधी पाकिस्तान परस्त या वामपंथी हो गया है।
आरएसएस जैसे संगठन ने संविधान का हमेशा ही विरोध किया है। जब संविधान को स्वीकृति मिली तो संघ ने अपने मुखपत्र ‘आर्गनाइजर’ के 30 नवंबर 1949 के संस्करण में संपादकीय में लिखा – “भारत के नये संविधान में सबसे बुरी बात यह है कि उसमें कुछ भी भारतीय नहीं है।…उसमें भारत की प्राचीन संवैधानिक विधि का एक निशान तक नहीं है। ना ही उसमें प्राचीन भारतीय संस्थाओं, शब्दावली या भाषा के लिए कोई जगह है।…उसमें प्राचीन भारत में हुए अनूठे संवैधानिक विकास की तनिक भी चर्चा नहीं है। मनु के नियम, स्पार्टा के लाईकरगस और फारस के सोलन के बहुत पहले लिखे गए थे। आज भी मनु के नियम, जिन्हें मनुस्मृति में प्रतिपादित किया गया है, पूरी दुनिया में प्रशंसा के पात्र हैं और भारत के हिन्दू स्वतःस्फूर्त ढंग से उनका पालन करते हैं और उनके अनुरूप आचरण करते हैं। परंतु हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इस सबका कोई अर्थ नहीं है।”
इसके पहले काशी के स्वामी करपात्री के नेतृत्व में रामराज्य परिषद और गोरखनाथ पीठ के महन्त दिग्विजयनाथ के नेतृत्व में हिन्दू महासभा ने संविधान सभा के विरोध में दिल्ली में प्रदर्शन किया था। महन्त दिग्विजयनाथ और स्वामी करपात्री का कहना था कि मनुस्मृति के होते हुए हमें नए संविधान की क्या जरूरत है। डॉ. भीमराव आंबेडकर पर प्रहार करते हुए उनका बयान था कि एक अछूत के द्वारा संविधान लिखा जाना घोर अन्याय और अनाचार है। इन्हीं करपात्री के विरोध करने पर हिन्दू कोड बिल (1955) पारित नहीं हो पाया था और डॉ. आंबेडकर ने नाराज होकर नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया था। हिन्दू कोड बिल द्वारा सदियों से असमानता, शोषण और अन्याय की शिकार हिन्दू स्त्रियों को पितृसत्तात्मक व्यवस्था से मुक्त करके कानूनी रूप से पुरुषों के बराबर अधिकार देने का प्रावधान किया जाना था। करपात्री ने बिल का विरोध करते हुए कहा कि सनातनी हिन्दू व्यवस्था में पति पत्नी के संबंध जन्म जन्मांतर के होते हैं। इस बिल से हिन्दू परिवार विखंडित होंगे।
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सवाल यह है कि हिन्दू राष्ट्र है क्या? भारतीय जनता पार्टी में योगी आदित्यनाथ रामराज्य की बात कहते हैं जबकि आरएसएस हिन्दू राष्ट्र बनाने के संकल्प को दोहराता है। पहली बात तो यह है कि रामराज्य और हिन्दू राष्ट्र; दोनों एक ही हैं। वी.डी. सावरकर ने 1923 में ‘हिन्दुत्व और हू इज हिन्दू’ नामक किताब में हिन्दुत्व को हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा के रूप में पेश किया था। सावरकर हिन्दू महासभा के कर्ताधर्ता थे। हिन्दू महासभा के अध्यक्ष के तौर पर सावरकर ने 1937 में ‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दुत्व में सशस्त्रीकरण’ का नारा दिया था। इसके पहले आजादी के आंदोलन में गिरफ्तार होने के बाद सावरकर अंग्रेजों से माफी माँगकर जेल से बाहर आए थे और फिर जीवनभर अंग्रेजी हुकूमत का विश्वसनीय बनकर रहे। बदले में अंग्रेज सरकार सावरकर को साठ रुपया महीना पेंशन देती थी। एक तरह से सावरकर अंग्रेजों की दलाली करने लगे थे। सावरकर के चेले नाथूराम गोडसे ने ही 30 जनवरी 1948 को गाँधी को गोली मारी थी। माना जाता है कि गोडसे ने जिस पिस्तौल से गाँधी की हत्या की थी, वह योगी आदित्यनाथ के दादागुरू दिग्विजयनाथ की थी। दिग्विजयनाथ ने धर्मनिरपेक्ष और समतावादी वचारों वाले नाथपंथ के गोरखनाथ मठ का न सिर्फ हिन्दूकरण किया बल्कि मठ की गद्दी का ठाकुरीकरण भी कर दिया। दिग्विजयनाथ के शिष्य ठाकुर जाति के अवैद्यनाथ हुए और उनके चेले बने उत्तराखंड के अजय सिंह बिष्ट।गोरखनाथ पीठ के वर्तमान महंत अजय सिंह बिष्ट उर्फ योगी आदित्यनाथ हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद योगी आदित्यनाथ ने अपनी पार्टी हिन्दू युवा वाहिनी का भारतीय जनता पार्टी में विलय कर लिया। तभी उन्होंने आरएसएस की सदस्यता भी ग्रहण की। आदित्यनाथ को रामराज्य वाली शब्दावली भाती है। इसके मिथकीय संदर्भ में स्वाभाविक तौर पर राज्य पर अधिकार क्षत्रिय यानी ठाकुर का बनता है। जबकि भाजपा के शीर्ष नरेन्द्र मोदी और अमित शाह रामराज्य जैसे मुहावरे का इस्तेमाल नहीं करते। एक साक्षात्कार में नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि “मैं एक हिन्दू हूं और राष्ट्रवादी हूं इसलिए मैं हिन्दू राष्ट्रवादी हूं”। जाहिर है कि यह कूटनीतिक बयानी इसलिए है क्योंकि संविधान घोषित तौर पर धर्म निरपेक्ष है और मोदी को राष्ट्रीय राजनीति करना है।इसके बरक्स योगी ज्यादा आक्रामक लगते हैं।चूँकि उनका चोला भी गेरुआ है, इसलिए वे मुखर होकर रामराज्य का मुहावरा उछालते हैं।
जाहिर तौर पर करपात्री का रामराज्य आदिम सामंतवादी व्यवस्था पर आधारित है जिसमें शूद्र, स्त्री, दास आदि वंचित तबकों को नीच ठहराया गया है। इसी रामराज्य यानी हिन्दूराष्ट्र के एजेंडे पर भाजपा बढ़ रही है। सरकारी शब्दावली से लेकर उसकी नीतियों और निर्णयों में हिन्दुत्व की छाप दिखती है। सबरीमाला मंदिर में रजस्वला उम्र वाली स्त्रियों के प्रवेश निषेध से लेकर कोरोना प्रकोप के बीच राम मंदिर का निर्माण कार्य इस बात का सबूत है कि भाजपा अपने एजेंडे पर अडिग है। रामायण का पुनर्प्रसारण इस बात को साबित करता है कि भाजपा के लिए रामकथा की राजनीति में अभी बहुत जान है।
(संपादन : नवल)