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बसपा व बामसेफ आंबेडकरवादी नहीं; जातिगत जनगणना समय की मांग : प्रकाश आंबेडकर

राजनीति में वैचारिक स्पष्टता जरूरी है। फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार के साथ प्रकाश आंबेडकर की विस्तृत बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि बसपा और बामसेफ की राजनीति शुरू से ही फेल थी। ये दोनों आंबेडकराइट आइडियोलॉजी से कभी जुड़े नहीं। प्रस्तुत है इस लंबेी बातचीत का संपादित अंश

क्या वजहें हैं कि 1956 में बाबासाहब डॉ. आंबेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद दलित आंदोलन अपने लक्ष्य हासिल करने में असफल रहा पर आरएसएस की विभाजनकारी चल पड़ी। मौजूदा हालात के लिए कौन कितना जिम्मेदार है? इन सवालों को लेकर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार ने वंचित बहुजन अघाड़ी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर से विस्तृत बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत का संपादित स्वरूप

आरएसएस के मजबूत होने के पीछे महत्वपूर्ण कारक आप क्या मानते हैं? 

मैं इसके लिए सबसे बड़ा जिम्मेदार कांग्रेस को मानता हूं। बाबासाहेब हमेशा कहते थे कि “कांग्रेस इज नथिंग बट ए हिन्दू आर्गेनाइजेशन” (कांग्रेस केवल एक हिंदू संगठन है)। मैं समझता हूं कि जितनी भी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं, उन्हें सोनिया गांधी का सम्मान करना चाहिए। यह इसलिए कि उन्होंने गुजरात दंगों के दौरान बिना किसी लाग-लपेट के कहा था कि “कांग्रेस इज ए सॉफ्ट हिन्दुत्व पार्टी एंड आरएसएस-बीजेपी इज ए हार्ड हिन्दुत्व पार्टी” (कांग्रेस नरम हिंदुत्ववादी दल है, जबकि आरएसएस-बीजेपी घोर चरम हिंदुत्ववादी पार्टी है)।

सॉफ्ट हिन्दुत्ववादी का मतलब यह हुआ कि हम हिन्दुत्व को मानेंगे। आपको [दलितों, पिछड़ों व आदिवासियों को] मारेंगे जरूर, आपके अधिकार भी छीनेंगे। लेकिन यह हम धीरे-धीरे करेंगे। आपको एक झटके में नंगा नहीं करेंगे। पहले आपकी कमीज निकालेंगे, फिर आपका पैंट और फिर आपके अंत:वस्त्र। तो सॉफ्ट हिंदुत्व का मतलब यही है कि धीरे-धीरे करके वे नंगा जरूर करेंगे। वहीं ये जो भाजपा वाले हैं, तुरंत नंगा करेंगे। हमारे लोगों को एक झटके में नंगा करके दुनिया के सामने खड़ा कर देना चाहते हैं। तो कांग्रेस और भाजपा में मूल अंतर यही है। परंतु दोनों का इरादा नंगा करना ही है। 

मेरा सवाल यह था कि इमरजेंसी के दौरान जिस तरह से जनसंघ का साथ लेकर जनता पार्टी की सरकार बनी क्या उसने आरएसएस को मजबूत बनाया? लोहिया भी संघ को लेकर मुखर नहीं रहे थे।

मैं भी यही बताने जा रहा हूं। देश में सामाजिक व्यवस्था मनुवादी व्यवस्था के आधार पर चल रही थी। संविधान में जो व्यवस्था बनायी गयी, वह मनवुादी व्यवस्था को खत्म करने के लिए थी। लेकिन जातिगत भेदभाव को जड़ से खत्म करने के लिए जो नीतियां बनायी जानी चाहिए थीं, वह बनी ही नहीं। आप इसको ऐसे समझिए कि आज की अर्थव्यवस्था के हरेक क्षेत्र में शूद्रों-अतिशूद्रों के लिए स्थान नहीं है। कृषि के सेक्टर में या तो वे खेतिहर मजदूर हैं या फिर एकदम छोटे किसान। सर्विस सेक्टर को एक उदाहरण के रूप में लें। मसलन, हाउसिंग सेक्टर में कौन लोग हैं और किनके लिए यह सेक्टर है। आज भी बड़ी संख्या में शूद्र-अतिशूद्र ऐसे हैं जिनके पास एक इंच भी जमीन नहीं है।

प्रकाश आंबेडकर

अब यदि सरकार को राष्ट्रीय स्तर पर समावेशन करना था तो विषमताओं को दूर करने का प्रयास सबसे पहले किया जाना चाहिए था। न केवल सामाजिक और सांस्कृतिक स्तर पर बल्कि आर्थिक स्तर पर भी। सरकार को ऐसे नियम बनाने चाहिए ताकि वंचितों की जरूरतों को पूरा किया जाए।

सरकार यही कहती है कि आपको सरकारी आवास तभी मिल सकता है जब आप जाति व्यवस्था को मानते हैं। जैसे ही एक बार आपने जाति का परित्याग किया तो आपको कहा जाएगा कि जब आपने जाति ही छोड़ दी फिर कैसा अधिकार। जब तक सरकार असमानता को दूर नहीं करेगी तब तक कोई समस्या का समाधान नहीं होने वाला।

आज आरएसएस मुसलमानों के खिलाफ हिंदुओं को भड़का रही है। इसके लिए वह हिंदुओं को डरा रही है। इस भय के कारण वे संघ के गुलाम बनते जा रहे हैं और अपने ही हाथों अपने ही मुल्क की जड़ों को काट रहे हैं। 

मेरा सवाल है कि आप आरएसएस के मजबूत होने में समाजवादियों की भूमिका को कैसे देखते हैं

देखिए, राजनीति में वैचारिक स्पष्टता जरूरी है। मेरे हिसाब से 1977 में जनता पार्टी की जो सरकार आयी, उसमें आरएसएस (जनसंघ) के मंत्री थे। उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल करने से पहले महात्मा गांधी की समाधि पर शपथ ग्रहण करने के लिए कहा गया था। जो गोडसे को मानने वाले थे, उन्होंने गांधी की समाधि पर जाकर कसम खायी। दरअसल मैं मानता हूं कि यही समाजवादियों की सबसे बड़ी गलती रही। ऐसा मैं मानता हूं। उसके पहले आरएसएस जन-सामान्य की विचारधारा से कटी हुई थी, क्योंकि आमजनों की नजर में आरएसएस के लोग महात्मा गांधी की हत्या में शामिल थेइसलिए लोग उनसे दूर रहे और इस कारण उन्हें आगे बढ़ने का मार्ग नहीं मिल रहा था। जैसे ही 1977 की मोरारजी की सरकार आई और उसमें जनसंघ के मंत्री शामिल हुए, उससे उनकी स्वीकृति बढ़ी। उन दिनों आरएसएस ने क्या प्रचार चलाया था, आपको उसके बारे में बताता हूं। आरएसएस कहता था – “देखिए, कांग्रेस हम पर आरोप लगाती रही, लेकिन समाजवादी नहीं मानते हैं कि हमने गांधी के हत्यारे का साथ दिया। अगर ये मानते तो हमें महात्मा गांधी की समाधि पर शपथ ग्रहण समारोह में उपस्थित नहीं होने देते। हमको उपस्थित होने का मौका दिया है तो हम महात्मा गांधी के हत्यारे नहीं हैं।” इसलिए आरएसएस पर जो बंदिशें लगी हुई थीं, वह खुल गयीं। 

आजादी के बाद, बाबासाहेब ने आरपीआई की नींव डाली और एक पोलिटिकल इंटीग्रेशन की शुरुआत की। हालांकि उनके निधन के बाद जो दलित आंदोलन हुए, वे भी किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच सकेइसे आप किस रूप में देखते हैं?

दुर्भाग्य ही कहूंगा। उस वक्त बहुत कम नेता थे, जिन्हें अपनी काबिलियत पर भरोसा थाजो यह मानते थे कि जातिगत समाज से ऊपर उठकर राजनीति किया जाए या मैं राजनीति कर सकता हूं, जैसा कि बाबासाहेब ने कोशिश थी कि आरपीआई इस देश में कांग्रेस के खिलाफ मुख्य विपक्षी दल के रूप में खड़ी हो। इसके लिए उन्होंने अपने समकालीन जितने भी ऐसे सोचने वाले लोग थे, जिनमें लोहिया भी थे, सभी को खत लिखा और विचार-विमर्श चलाया। उन्हें लोगों की स्वीकृतियाँ भी मिली। लेकिन उनके गुजरने के बाद उनके जितने भी अनुयायी थे, वे इस बात को आगे नहीं ले जा पाए। एक सक्षम पार्टी के रूप में आरपीआई को उभरना चाहिए था, उभर नहीं सका। यही कारण रहा कि कांग्रेस ने इस परिस्थिति का फायदा उठाया। जब जातिगत आधार पर पार्टिंया उभरती हैं, तो उन्हें तोड़ना बहुत आसान होता है और कांग्रेस ने उसे सफलतापूर्वक तोड़ दिया।

ज. वि. पवार की एक किताब है, ‘दलित पैंथर : एक आधिकारिक दस्तावेज’, उसमें वे कह रहे हैं कि दलित पैंथर के गठन के पहले आरपीआई के नेता भी कांग्रेस के खेमे में चले गये थे, उनके नीतियों को मानने लगे थे

बहुत सारे लोग कांग्रेस में चले गयेठीक वहीं हालत दलित पैंथर की भी हुई। सवाल यह है कि आप जाति की राजनीति करोगे तो उसकी सीमा होती है और एक सीमा के बाद फिर आपको लगता है कि अब इसकी कोई जरूरत नहीं रही। दूसरी पार्टियों में जाओ और वे दूसरी पार्टियों में चले जाते हैं। वे चाहे आरपीआई के नेता हों या दलित पैंथर के, सब के सब खत्म हो गए। 

कांशीराम जी के आंदोलनों के बारे में आपकी क्या राय हैं? खासकर बसपा की राजनीति को लेकर।

बसपा की राजनीति शुरू से ही फेल थीबामसेफ की राजनीति भी फेल थी, क्योंकि उन्होंने अपनी एक अलग आइडियोलॉजी की शुरुआत की। वे आंबेडकराइट आइडियोलॉजी से कभी जुड़े नहीं। मैं कभी उन्हें आंबेडकरवादी नहीं मानता। उन्होंने सिर्फ बाबासाहेब की तस्वीर का उपयोग किया जैसे कि दूसरे लोग करते हैं। मैं इसे उदाहरण के साथ बताता हूं। उन्होंने हर जगह ऐसा किया। महाराष्ट्र में सवर्णों का सबसे बड़ा दुश्मन कौन है, तो वह महार है। बसपा वाले कभी उनके लिए एक लफ्ज “ढेरों” का इस्तेमाल करते थेयह “ढेर” शब्द महाराष्ट्र में बुना गया। यह शब्द क्यों इस्तेमाल किया जा रहा था? उनके पीछे एक लॉजिक था कि इनको हम गाली देंगे तो हो सकता है कि सवर्ण हमारे साथ आएंगेयानी आरएसएस की जो रिएक्शनरी थ्योरी है, मुसलमानों को टारगेट करके हम पूरे हिन्दुओं को कब्जे में लेंगे, उसी तरह इनकी भी थ्योरी थी कि हर राज्य में जिन्होंने मनुवाद के खिलाफ आंदोलन किया है, और सवर्णों के खिलाफ उनको नफरत है, उनको हम लोग टारगेट करें।

धर्म और जाति की राजनीति दोनों अलग बात हैं। धर्म एक ग्लू है, जाति की राजनीति एक ग्लू नहीं है। यही करने के बाद भाजपा जहां एक ओर कामयाब हो जाती है तो दूसरी बीएसपी व बामसेफ फेल। लेकिन यह आंबेडकराइट फिलासफी नहीं है। बाबासाहब ने कहा कि एक व्यवस्था के मुताबिक इंसान चलता है, वह व्यवस्था जब तक है वह इंसान वैसे ही चलेगा। व्यवस्था बदलने के बाद भी अगर वो इंसान उसी तरह जा रहा है तो ही हम कह सकते हैं, वह इंसानियत का दुश्मन है। अगर इंसानियत के आधार पर नयी व्यवस्था बनी है, वह इंसानियत के साथ जाना चाह रहा है, तो हम लोग उसको मानते हैं कि वह इंसानियत का पुजारी है। इसलिए उन्होंने फर्क किया ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद के बीच। उसमें उन्होंने [आंबेडकर] कहा कि मेरी लड़ाई ब्राह्मणों के साथ नहीं है, मेरी लड़ाई ब्राह्मणवाद के खिलाफ है और इसी लाइन को छोड़ते हुए, उनके बाद उनके नेता, उनके बाद में आयी तमाम राजनैतिक पार्टियां, इन्होंने द्वेष की राजनीति की शुरुआत की, जिसे हम लोग नफरत की राजनीति कहते हैं, उस नफरत की राजनीति में आरएसएस माहिर है, इसलिए वह आगे चली गयी।

हाल के दिनों में दलितों और पिछड़ों में एका बनती दिख रही है। खासकर आरक्षण आदि के सवाल पर। इसकी शुरूआत रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या के बाद हुई।

चूंकि यह सामाजिक आंदोलन है इसलिए एकता है। लेकिन यदि इस एकता का उपयोग राजनीति के लिए किया गया तो यह एकता नहीं बचेगी। इसमें कान्फ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट आता है। दरअसल, बुनियादी बातों पर सहमति ही नहीं है और न ही इसकी कोशिश की गई है। जब तक आपका बुनियादी बातों पर समझौता नहीं हो पाता है तबतक आप उस पर कुछ भी ठोस नहीं कर सकते हैं। 

यानी आप यह कहना चाह रहे हैं कि एससी, एसटी और ओबीसी के जो लोग हैं, सिर्फ मुद्दों को लेकर सड़क पर लड़ते रहें, पालिटिक्स न करें?

ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं। जो राजनीतिक पार्टियां करती हैं, वही मैं कह रहा हूं। मैं तो यह मानता हूं कि एससी, एसटी और ओबीसी तीनों को मिलकर न्यूनतम साझा कार्यक्रम तय करने होंगे। इन कार्यक्रमों को लेकर एकजुट रहना होगा। तभी कुछ मजबूत स्थिति बन सकती है। नहीं हो वही होगा जो हाल रेत के महलों का होता है।

अभी-अभी जो महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव हुए, उस चुनाव में आपने ओवेसी की पार्टी एआईएमआईएम के साथ मिलकर एक प्रयोग किया…

इसे मैं प्रयोग के तौर पर नहीं मानता हूं। हम एआईएमआईएम के साथ नहीं गये, क्योंकि उनकी डिमांड ऐसी थी…वे चाहते थे कि मुसलमानों को सौ सीटें दी जाय। हम लोगों के लिए ऐसा कर पाना संभव नहीं था। इसलिए हम अलग-अलग लड़े।

दलितों-मुसलमानों के बीच एकता की शुरुआत तो हुई ही थी?

लोकसभा चुनाव के समय की शुरुआत हुई थीयहां मैं कहूँगा कि पार्टी के जो हेड होते हैं, निर्णय उसी को लेना चाहिएनिर्णय लेना जब आप दूसरों पर छोड़ देते हैं, तब मैनिलपुलेशन की बात कोई भी कर सकता है और वही महाराष्ट्र में हुआ। फैसला हम दोनों (मुझे और ओवेसी) को मिलकर लेना चाहिए था। लेकिन, फैसला हम दोनों के द्वारा नहीं होता था। उनका कोई तीसरा आता था और कहता था मैंने फैसला किया है और वह अपनी डिमांड रखकर चलता था। मैंने कहा कि इस तरह से तो नहीं चल पाएगा। इसलिए पार्टी ने फैसला लिया कि नुकसान होने के बजाय अपनी जितनी जान है, उतनी जान बचा ली जाय।

आज के उभरते दलित-बहुजन नेताओं यथा चंद्रशेखर आजाद, जिग्नेश आदि के बारे में आप क्या कहेंगे?

मुझे तो कोई उभरता हुआ नहीं दिख रहा है।

अभी जाति आधारित जनगणना की बात चल रही है। यहां तक कि महाराष्ट्र विधानसभा में सर्वसम्मति से प्रस्ताव भी पारित किया गया है। इसको आप किस रूप में देखते हैं?

हम लोग 15 साल पहले से इस माँग को उठा रहे हैं। जो जनगणना आज हो रही है, एक बार कास्ट बेस्ड होना जरूरी हैउसकी वजह यह है कि छोटे-मोटे सब मिलाकर साढ़े तीन हजार से अधिक जातियां हैं। 1950 में इस देश में आर्थिक क्रांति हुई। उस समय इन सभी 50 प्रतिशत जातियों की अपनी अर्थव्यवस्था थी। 

आप 1950 की बात कर रहे हैं या 1990 की?

मैं 1950 की बात कर रहा हूं। 1950 में देश में एक आर्थिक क्रांति पब्लिक सेक्टर के रूप में आया। पंचवर्षीय योजनाओं का सिलसिला चला। इसी से औद्योगिकीकरण की शुरूआत होती है। इस औद्योगिकीकरण ने 50 प्रतिशत जातियों की पारंपरिक अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर डाला। इस नई अर्थव्यवस्था से लड़ते हुए कितनी जातियां संहार का शिकार हो गईं और कितनों ने खुद को बचा लिया व उनमें क्या बदलाव आया है, इसके आंकड़े होने चाहिए। इसलिए हम यह कह रहे हैं कि कास्ट बेस्ड जनगणना होना जरूरी है ताकि पहले जनगणना में जितनी जातियां थीं, उतनी जातियां आज हैं या नहीं हैं। हमारा कहना है कि कई जातियों का 1950 के इकोनोमिक रेवोल्यूशन के माध्यम से जेनोसाइड हो चुका है, जिसका आज तक किसी ने स्टडी नहीं किया है। कास्ट जनगणना अगर होता है तो उन जातियों के कितने लोग अभी हैं या नहीं है, अगर नहीं हैं तो उनका क्या हुआ, उसकी एक अलग से स्टडी हो जाएगी ताकि एक नयी आर्थिक क्रांति आये। अभी भी कई जातियां हैं, जिन्हें हम बचा सकते हैंइसलिए हम लोग माँग कर रहे हैं, यह होना चाहिए।

(संपादन : गोल्डी/इमानुद्दीन)

लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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