संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर (14 अप्रैल, 1891 – 6 दिसंबर, 1956) आज की राजनीति में सबसे अधिक प्रांसगिक हैं। इसकी वजह शोषित तबकों में आई चेतना है। यही वजह है कि सियासी दल भी आंबेडकर की जयंती व परिनिर्वाण दिवस आदि मनाने में प्रतिस्पर्धा करते दिखते हैं। लेकिन यह बदलाव केवल सियासी गलियारों में ही नहीं हुआ है। गांवों में भी आंबेडकरवाद का प्रसार हो चुका है। इस क्रम में गांव और कस्बों में डीजे और बैंड-बाजों के साथ नाचते-गाते जुलूस निकालकर धूमधाम से आंबेडकर जयंती मनाने का प्रचलन तेज हुआ है।
इसके समानांतर मनुवादी राष्ट्रवाद के उभार के चलते पिछले 6-7 वर्षों में डॉ.आंबेडकर की प्रतिमाओं पर सबसे ज़्यादा हमले भी हुए हैं। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर में 2016 में पहले सवर्णों ने बाबा साहेब की मूर्ति लगाने का विरोध किया जिसके बाद दलित समुदाय ने राणा प्रताप का जुलूस निकालने के खिलाफ लामबंद हो गया । नतीजे में हिंसा हुई।
ओबीसी के लेागों ने स्थापित की डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा
खैर, ग्रामीण इलाकों में हुए इस बदलाव के निहितार्थ क्या हैं? क्या वाकई शोषित-पीड़ित अपने हक-हुकूक के प्रति सचेत हो रही हैं? इस संबंध में गोरखपुर जिले के करहल गांव के हितेष सिंह बताते हैं कि “आपको जगह-जगह ब्राह्मणवाद के प्रतीक मंदिर मिलेंगे, जहां लोग पूजा करते हैं। डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा गांवों में होगी तो छोटे बच्चे भी उनके बारे में जानना-समझना चाहेंगे, उनके बारे में पढ़ेगें। इस प्रकार डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा हमारे लिए एक तरीका है जिसके जरिए हम आने वाली पीढ़ी को उन संघर्षों व विचारों के बारे में बता सकते हैं जिनके कारण हम आज इस स्थिति में पहुंचे हैं।”
उन्होंने बताया कि बगल के गांव देवराड़ में डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा दलित-बहुजन एकता का प्रतीक भी है। हितेष सिंह के मुताबिक वे, संतोष कुमार, और संजय यादव लगातार महसूस कर रहे थे कि सपा-बसपा के परस्पर टकराव के चलते, दलित और पिछड़े वर्ग में एक दूरी बन गई है। इसे भरने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए। इसी क्रम में हम लोागें ने प्रतिमा स्थापित की। इसमें अधिक भागीदारी ओबीसी वर्ग के लोगों की रही। इसके पीछे एक कारण यह था कि करीब बारह सौ लोगो की आबादी वाले इस गांव में केवल 7-8 घर ही दलितों के हैं, जबकि 50 प्रतिशत आबादी ठाकुरों की है।
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संजय बताते हैं कि उनके गांव में सरकारी जमीन का एक टुकड़ा खाली पड़ा था। ग्राम प्रधान यादव जाति के थे। उन्होंने सहमति दे दी। जिला प्रशासन से लिखित अनुमति मांगी गयी तो यह कहा गया कि अनुमति नहीं मिलेगी लेकिन कोई आपत्ति भी नहीं है। बाद में ठाकुर टोले के एक व्यक्ति ने साजिशन प्रतिमा की स्थापना में अड़ंगा डाला। उसने एसडीएम के यहां आपत्ति दर्ज करवा दी।
संजय यादव के मुताबिक, जिस सरकारी भूमि पर वे मूर्ति लगवाना चाह रहे थे, उसके ठीक बगल में दलित समुदाय के बेचन जी की जमीन थी। उनकी अपनी कोई संतान नहीं है। उन्होंने स्वेच्छा से अपनी जमीन डॉ. आंबेडकर की प्रतिमा के लिए दान में दे दी। उनका कहना था कि इस जमीन पर लाइब्रेरी भी बनायी जाए।
इसके बाद 16 अप्रैल, 2017 को यह प्रतिमा स्थापित हुई । इस मौके पर एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया। आंबेडकर के विचारों पर आधारित फिल्मों का प्रदर्शन भी हुआ। संजय यादव के मुताबिक, यह योजना कामयाब रही। इसमें दलित और पिछड़े दोनों समुदायों के लोगों ने भागीदारी की। अब हर साल यहां कार्यक्रमों का आयोजन होता है।
बामसेफ के विचारों से प्रभावित होकर लगायी प्रतिमा, लाइब्रेरी की स्थापना
रंगकर्मी व पत्रकार अवधू आज़ाद बामसेफ से लंबे अरसे से जुड़े हुए हैं। वे मूलरूप से आजमगढ़ में मेहनगर के रहने वाले हैं। अवधू आजाद बताते हैं कि उनके गांव में 1988-89 में ही बाबा साहेब की एक प्रतिमा मेहनगर के चौक पर उनके चाचा महेंद्र प्रताप की पहल पर और कई लोगों के साझा प्रयास से स्थापित की गई थी। इसके लिए लोगों से चंदा इकठ्ठा किया गया था।
30 वर्षीय प्रविंद्र सिंह जी मूल रूप से गांव पिलौना, तहसील- मवाना, मेरठ उत्तरप्रदेश के निवासी हैं। वो बताते हैं- “जैसे-जैसे हमारे गांव के लोग पढ़-लिख कर नौकरी में आए हमारे गांव में बदलाव हुए। हमारे गांव में शिव मंदिर है और उसके पीछे खुली जगह है। हम लोगों ने खाली जगह में पुस्तकालय की स्थापना की है। इसका नाम रखा डॉ. भीम राव आंबेडकर पुस्तकालय। इसकी वजह यह कि बाबा साहेब ने दमित समाज को शिक्षित होने का संदेश दिया था।हमारे लोग यदि शिक्षित होंगे तभी वे संगठित होंगे और मिलकर संघर्ष भी करेंगे। हमारी योजना एक प्रतिमा लगाने की भी है।”
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बाबा साहेब की मूर्ति लगाने की प्रेरणा कहां से मिली, यह बताते हुए प्रविंद्र कहते हैं, “मेरे बड़े भाई (ताऊ के बेटे) ने मुझे डॉ. आंबेडकर के बारे में सबसे पहले बताया था. वे मेरे प्रेरणास्रोत हैं। वे बामसेफ से जुड़े हैं। बाद में मैंने भी बामसेफ की सदस्यता ली। हमने पहले गांव में बामसेफ की मीटिंग करनी शुरु की, फिर कस्बे में और फिर मेरठ जिले में। हमारे पास 50-150 लोगों की टीम है।”
(संपादन : नवल/अमरीश)