वैश्विक संक्रामक बीमारी कोरोना के मद्देनजर जारी लॉकडाउन का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। इसका शिकार समाज का हर तबका हो रहा है। लेकिन जिनके पास पूंजी है या यूं कहें कि पूंजी जिनकी मुट्टी में कैद है, उनके लिए संकट दूसरा है और जिनके पास पूंजी ही नहीं है या फिर बहुत छोटी पूंजी है, उनके पास कई प्रकार के संकट हैं। ऐसे ही चौतरफा संकटों को पशुपालक समाज के लोग झेल रहे हैं। हालत यह हो गयी है कि कोरोना लॉकडाउन के कारण उन्हें उस दूध को बर्बाद कर देना पड़ रहा है, जिसके लिए वे सपरिवार दिन-रात खटते हैं। खासकर बिहार में स्थिति भयावह होती जा रही है।
अर्थशास्त्रियों ने पशुपालन को कृषि के संग प्राइमरी सेक्टर का हिस्सा माना है। भारत में यह कहना अधिक प्रासंगिक है कि कृषि व पशुपालन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। लॉकडाउन ने गांवों में पशुपालन को काफी हद तक प्रभावित किया है। शहरों की दुकान बंद होने के बाद दूध की बिक्री भी ठप पड़ गयी है। इस कारण इससे होने वाली आमदनी भी ठहर सी गयी है। इसका असर पशुपालकों के आर्थिक ढांचे पर पड़ रहा है।
शहरी इलाकों में रहने वाले पशुपालकों की समस्या अधिक विकराल है। दरअसल, कोरोना का खौफ गांवों से अधिक शहरों में है जहां आबादी अधिक सघन है। शहरी इलाकों में लॉकडाउन के कारण पशुओं के लिए चारे का इंतजाम एक बड़ी चुनौती बन गयी है। पुलिस द्वारा लोगों की आवाजाही पर रोक लगा दी गयी है। ऐसे हालात केवल पटना में ही नहीं, बल्कि मुजफ्फरपुर, पूर्णिया, दरभंगा या गया सभी जगह लगभग एक समान हैं।

ग्रामीण इलाकों में पशुचारे की उपलब्धता का संकट अपेक्षाकृत कम है क्योंकि गांवों में घास व अन्य हरा चारा सहज उपलब्ध हो जाता है। बिहार की राजधानी पटना के राजाबाजार में खटाल (पशुपालन केंद्र) चलाने वाले केशव राय कहते हैं कि 20 से ज्यादा दुधारू गाय और भैंस हैं। घरों में पहुंचने वाले दूध की आपूर्ति यथावत जारी है, लेकिन चाय या मिठाई दुकानों के बंद होने के कारण आपूर्ति बंद है। इस कारण भारी मात्रा में दूध बच जा रहा है। कुछ दूध खाकर सधा रहे हैं, जबकि भारी मात्रा में दूध फिर पशुओं के नाद (चारा खिलाने का पात्र) में डाल देना पड़ता है। आंखों के सामने दूध की यह बर्बादी देखकर आंखें फट जाती हैं, लेकिन कोई विकल्प नहीं है। वे कहते हैं कि पशु चारा, कुट्टी, खल्ली, दाना हर दिन की जरूरत है। इसके बिना काम नहीं चलेगा। आमदनी बंद हो गयी, लेकिन खर्चे पर अंकुश नहीं लग सकता है। कई सामानों की कीमत भी बढ़ गयी है। गाडि़यों के परिचालन बंद होने के कारण चारा मिलना भी मुश्किल हो गया है। इस कारण हर स्तर पर कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है।
सूबे के मंत्री कह रहे, ऑल इज वेल
बिहार के कृषि और पशु संसाधन मंत्री प्रेम कुमार कहते हैं कि सूबे में कहीं कोई संकट नहीं है। सरकार सहकारिता समूह (कम्फेड) के माध्यम से दूध की खरीद करती है। इसके बाद दूध के विभिन्न उत्पादों को बाजार में बेचती है। लॉकडाउन की शुरुआत में दूध संग्रहण और आपूर्ति में थोड़ी परेशानी आयी थी। लेकिन जल्दी ही चेन को ठीक कर लिया गया और सब कुछ नियमित हो गया है। यह पूछे जाने पर कि लॉकडाउन के दौरान दुकान बंद होने के कारण गांवों के लोग दूध नहीं बेच पा रहे हैं, तो क्या उनके लिए सरकार के पास कोई योजना है, विभागीय मंत्री ने पल्ला झाड़ते हुए कहा कि सरकार के पास ऐसी कोई योजना नहीं है।
बहरहाल, बिहार के पशुपालकों की एक बड़ी समस्या दूध की कीमत का निर्धारण है। गांवों में दूध उत्पादक बिचौलियों की मनमानी का शिकार हो रहे हैं। ऐसे में यह मांग अब जोर पकड़ने लगी है कि सरकार दूध का वाजिब सरकारी मूल्य संबंधी नीति घोषित करे ताकि बढ़ते खर्च के बीच पशुपालन लाभप्रद रोजगार बना रहे।
(संपादन : नवल)