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अमित चौहान : चुनौतियों को जीतने वाला एक जांबाज दलित कलाकार

सुशील मानव बता रहे हैं वाल्मिकी समुदाय के रंगमंच कलाकार अमित चौहान के बारे में। जीवट के धनी इस कलाकार के साथ वर्ष 2012 में एक हादसा हुआ जिसमें वे अपना दायां पैर गंवा बैठे। लेकिन उन्होंने इस हादसे पर भी विजय पाई और इन दिनों वे ओमप्रकाश वाल्मिकी की कहानी “सलाम” पर काम कर रहे हैं

रंगमंच के क्षेत्र में दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की हिस्सेदारी के सवाल भी वैसे ही हैं जैसे कि पत्रकारिता और अन्य क्षेत्रों में। कहने का आशय यह कि रंगमंच, खासकर उत्तर भारत के रंगमंच, में वंचित तबकों की हिस्सेदारी नगण्य  है। यही वजह है कि रंगमंच के विषयों में इन तबकों के विषय शामिल नहीं होते। परंतु दलित आंदोलनों के उभार का असर रंगमंच में भी देखने को मिल रहा है। कम संख्या में ही सही परन्तु इन समुदायों के कलाकार सामने आ रहे हैं। ऐसे ही एक कलाकार हैं अमित चौहान। वाल्मिकी समाज के इस युवा कलाकार के दो नाटकों “मलबे का मालिक” और “गांधी ने कहा था” ने हाल के दिनों में सुर्खियां बटोरीं। उनकी यह कामयाबी इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जीवट के धनी अमित ने अपना दायां पैर वर्ष 2012 में एक सड़क दुर्घटना में खो दिया था। फिर भी अमित ने हार नहीं मानी। 

मिर्चपुर में दादा ताराचंद चौहान को जाटों ने जिंदा जला दिया था 

शुरूआत कैसे हुई? फारवर्ड प्रेस से बातचीत में अमित बताते हैं कि जब वे छोटे थे तब उनके गांव मिर्चपुर, हरियाणा में जाटों और दलितों के बीच तनातनी की स्थिति थी। बाद में वर्ष 2010 में वहां जातीय तनाव इस हद तक बढ़ा कि वाल्मिकी समुदाय के ताराचंद चौहान और उनकी विकलांग बेटी सुमन चौहान को जिंदा जला दिया गया। अमित बताते हैं कि ताराचंद चौहान उनके परिवार से थे और वे उन्हें दादा कहकर बुलाते थे जबकि सुमन रिश्ते में उनकी बुआ थीं। 

जाटों के धर्मेंद्र तो वाल्मिकी समुदाय के मिथुन थे फेवरिट

अमित के मुताबिक गांव में जाट धर्मेंद्र को पसंद करते थे जबकि गैर-जाट मिथुन चक्रवर्ती को। जाट हमेशा मिथुन चक्रवर्ती को नीच जाति का बताते और इस बहाने वाल्मिकी समुदाय का अपमान करते। अमित बताते हैं कि “मेरा रंग थोड़ा फेयर (गोरा) है इसके चलते भी जाट मुझे चिढ़ाया करते थे। वे कहते थे कि ये चूहड़ों (वाल्मिकी समुदाय के लिए उपयोग किया जाने वाला एक स्थानीय अपमानजनक शब्द) का है ही नहीं ये तो जाटों का है।” और ये बात वे उनके सामने ही कहते थे। इतना ही नहीं, कोई भी आकर चूहड़ा कहकर उनका गला पकड़ लेता था। फिर शहर गए तो वहां भी उन्हें जातिसूचक गालियों का सामना करना पड़ा। शहर में प्रताड़ना का एक और तरीका था। उन्हें यह कहकर भी प्रताड़ित किया जाता कि ये तो आरक्षण कोटे का है।

खैर अमित ने ठान लिया था कि उन्हें मिथुन चक्रवर्ती जैसा बड़ा कलाकार बनना है। बस वे अपना लक्ष्य हासिल करने में लग गए।

युवा दलित कलाकार अमित चौहान

रंगमंच के क्षेत्र में हासिल की उच्च शिक्षा

पढ़ाई-लिखाई कहां हुई और रंगमंच का प्रशिक्षण कहां से लिया? इस सवाल के जवाब में अमित बताते हैं कि उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हुई फिर हांसी और जींद से बोर्ड व इंटर की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने करनाल के खालसा कॉलेज में एक साल ग्रेजुएशन की पढ़ाई की और जींद के गवर्नमेंट कॉलेज से शेष दो वर्षों की। इसके बाद चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से रंगमंच  में एमए की पढाई हुई और पुडूचेरी विश्वविद्यालय से एमफिल की। इसमें उनका विषय था “इम्पैक्ट ऑफ अगस्टो बोऑल्स थियेटर इन इंडियन थियेटर परफार्मेंसेज : ए सिलेक्ट स्टडी” था। अमित बताते हैं कि वे रंगमंच पर आधारित विषय पर ही पीएचडी करना चाहते हैं। इसके लिए वे चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में आवेदन की प्रक्रिया में लगे हैं।

मुंबई पहली बार कब जाना हुआ? अमित बताते हैं कि पहली बार 2012 में एक फिल्म में काम करने का मौका मिला। उस फिल्म के निर्देशक अभिषेक भोला थे जो जींद के ही रहने वाले थे और मुंबई में बस गए थे। उस फिल्म में सभी कलाकार नये ही थे। हालांकि वह फिल्म रिलीज ही नहीं हुई। लेकिन यह एक शुरूआत अवश्य थी अमित के लिए। वे मुंबई में रहकर फिल्म जगत में हिस्सेदारी चाहते थे। कुछेक फिल्मों में छोटी-मोटी भूमिकाएं भी मिलीं। 

लोकल से ग्लोबल तक

इसके पहले रंगमंच की दुनिया में प्रवेश कैसे हुआ? अमित बताते हैं, “कॉलेज में टैलेंट हंट का कार्यक्रम होता था। यह वर्ष 2000 की बात है। चूंकि हम लोग शौकिया तौर पर शादियों और बारातों  में नाचते थे तो दोस्तों ने मुझे भी उस कार्यक्रम में नाचने को कहा। मैं सेकंड आया और मुझे 75 रुपए इनाम में मिले। शिक्षकों ने हौसला बढ़ाया जिससे अभिनय के प्रति मेरी रुझान और बढ़ा।  फिर कॉलेज में ही एक नाटक किया। लेकिन परीक्षा में फेल हो गया तो वापिस करनाल अपने मामा के पास चला गया। वहां उनके साथ सावित्री बाई फुले लाइब्रेरी में जाकर किताबें पढ़ता और उनके साथ नुक्कड़ नाटकों में भाग लेता। नुक्कड़ नाटक में मेरे काम को देखकर एक दिन एक आदमी ने मुझे 100 रुपए का इनाम दिया। करनाल के खालसा कॉलेज में ग्रेजुएशन के दौरान ही नॉर्थ जोन कल्चरल सेंटर द्वारा एक थिएटर वर्कशॉप का आयोजन किया गया। इसमें पहली बार मुझे एक फुल लेंथ नाटक ‘मध्यविलास’ में काम करने का मौका मिला। इसी दौरान शंकर शेष के ‘पोस्टर’ का मंचन किया। ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’  पर आधारित नाटक में एकल अभिनय किया।” 

अमित चौहान द्वारा निर्देशित नाटक ‘मलबे का मालिक’ का एक दृश्य

अमित का संबंध नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नई दिल्ली से भी बना। वहां उन्होंने डायरेक्टर अनुराधा कपूर के निर्देशन में “रोमियो-जूलियट” में रोमियो की भूमिका निभायी। बाद में उनका जुड़ाव नीलम मानसिंह चौधरी से हुआ जो उस वक़्त गिरीश कर्नाड के नाटक “नागमंडलम” में काम कर रही थीं। अमित को थियेटर करने का मौका जापान व पाकिस्तान में भी मिला। 

हादसा में कटा पैर लेकिन नहीं रूका जीवन का सफर

फिर अक्टूबर, 2012 में वह हादसा हुआ जिसने उन्हें थम जाने को मजबूर कर दिया। एक सड़क दुर्घटना में उनके पैर में इतनी गंभीर चोट लगी कि डाक्टरों ने पैर को काट दिया। जब होश आया तो पैरों तले जमीन ही न थी। वे बताते हैं कि “निराशा के घने अंधियारे के बीच मुझे प्रोस्थेटिक लिंब लगवाने के लिए दिल्ली जाना पड़ा। दो महीने की ट्रेनिंग दी गई। जब प्रोस्थेटिक लिंब के बल पर मैं खड़ा हुआ और खुद को शीशे में देखा तो लगा कि मुझमें जो खालीपन था वह भर गया।”

अमित बताते हैं,  “सन 2015 तक मैंने कोई काम नहीं किया। एक दिन एक स्थानीय व्यक्ति मेरे पास आया और बताया कि वे लोग कोई नाटक कर रहे हैं स्थानीय बच्चों को लेकर और चाहते हैं कि कलाकारों से इंटरैक्ट करने के लिए मैं वहां जाऊं। मैं वहां गया तो मुझमें पुनः एक शुरुआत की चाहत जागी। एक कोशिश की भी लेकिन लोगों को जोड़ने में कामयाब नहीं हो पाया। फिर 2016 में कुरुक्षेत्र शहर आ गया। एक दिन एक कॉल आया किसी कोचिंग सेंटर के लोकल एड के लिए। उसमें उन्हें केवल शरीर के ऊपरी भाग की ज़रूरत थी। मैंने एक्सीडेंट के बाद पहली बार कैमरे का सामना किया। इसके बाद मुझे इस तरह के कैमरा वर्क मिलने लगा।” 

‘हलकारा’ थिएटर ग्रुप की नींव डाली

अमित आगे बताते हैं कि “चंडीगढ़ के एक मेरे मित्र ने थिएटर शुरु करने की सलाह दी। साल 2017 में ‘मलबे का मालिक’ नाटक को मैंने नए फॉर्म में निर्देशित किया। इसके लिए मैंने एक स्थानीय थिएटर ग्रुप की मदद ली। इस तरह मैंने कुरुक्षेत्र के लोगो का परिचय ‘कहानियों का रंगमंच’ से करवाया। फिर वर्ष 2018 में मैंने अपना थिएटर ग्रुप ‘हलकारा’ बनाया और राजेश कुमार का नाटक ‘गांधी ने कहा था’ का मंचन किया। ये करीब सवा दो घंटे का नाटक था। मैंने एक सांस्कृतिक महोत्सव में अपने ‘हलकारा’ थिएटर ग्रुप के दो नाटक करवाए। फिर थिएटर फेस्टिवल में बतौर जज शामिल होने का मौका मिला।”

यह भी पढ़ें –  वाल्मीकियों का सामाजिक और नागरिक बहिष्कार

नाटकों के मंचन के दौरान आने वाले वैचारिक-राजनीतिक गतिरोधों के बारे में अमित बताते हैं कि कुरुक्षेत्र में कई लोगो ने कहा कि वे “मलबे का मालिक” नाटक न करें लेकिन उन्होंने 6-7 बार यह नाटक किया। वे कहते हैं, “जब हमें थिएटर का आर्ट और क्रॉफ्ट आ गया है तो हम अब अपनी बात भला क्यों न कहें”। इसी कड़ी में अब वे ओमप्रकाश वाल्मिकी की कहानी “सलाम” पर नाटक का निर्देशन करने की योजना पर काम कर रहे हैं।

(संपादन : नवल/गोल्डी/अमरीश)

लेखक के बारे में

सुशील मानव

सुशील मानव स्वतंत्र पत्रकार और साहित्यकार हैं। वह दिल्ली-एनसीआर के मजदूरों के साथ मिलकर सामाजिक-राजनैतिक कार्य करते हैं

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