देश में भले ही ओबीसी वर्ग से आने वाले नरेंद्र मोदी की सरकार हो और ओबीसी के लिए आरक्षण लागू हो परंतु अब भी नौकरशाही में द्विजवाद हावी है। सार्वजनिक उपक्रमों में काम करने वाले ओबीसी वर्ग के ग्रुप सी और डी कर्मियों की संतानों को आरक्षण का लाभ नहीं दिया जा रहा है। परिणाम यह है कि वे अभ्यर्थी, जिन्होंने कड़ी मेहनत कर संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षा न केवल उतीर्ण की बल्कि भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) में नियुक्ति लायक रैंक भी हासिल की, उन्हें भी पदों की समतुल्यता संबंधी नियमों में अस्पष्टता का लाभ उठाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अधीन केंद्रीय कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय (डीओपीटी) द्वारा कम महत्वपूर्ण सेवाओं मसलन इंडियन रेवेन्यू सर्विस (आईआरएस), इंडियन रेलवे ट्रैफिक सर्विस (आईआरटीएस), इंडियन पोस्टल सर्विस और इंडियन कॉरपोरेट लॉ सर्विस (आईसीएलसी) में नियुक्त किया गया है। वे ओबीसी अभ्यर्थीगण, जो 2018 से सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं, उनसे प्राप्त जानकारी के मुताबिक करीब 55 ओबीसी अभ्यर्थी ऐसे हैं जिन्होंने डीओपीटी के ऑफर को स्वीकार नहीं किया है।
पिता चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी, लेकिन बेटे को आरक्षण नहीं
जिन ओबीसी अभ्यर्थियों को डीओपीटी ने आईएएस की बजाय अन्य सेवाओं में नियुक्त किया है उनमें से एक महाराष्ट्र के संजय चेटुले हैं। उनके पिता महाराष्ट्र स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी लिमिटेड में चार्जमैन के पद पर काम करते हैं। यह संस्थान महाराष्ट्र सरकार के अधीन सार्वजनिक उपक्रम है और चेटुले के पिता चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी हैं। पांच साल पहले वर्ष 2015 में चेटुले ने यूपीसएसी की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें ओबीसी कोटे के तहत 354वां रैंक हासिल हुआ। यूपीएससी के आरक्षण संबंधी नियमों के हिसाब से संजय चेटुले आईएएस अधिकारी बनने के पात्र थे। लेकिन उन्हें इंडियन रेवेन्यू सर्विस में अधिकारी बनना पड़ा। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके पिता एक लोक उपक्रम में कर्मचारी हैं और केंद्र सरकार द्वारा लोक उपक्रमों में काम करने वाले कर्मियों के पदों की समतुल्यता का निर्धारण नहीं किया गया है।
एक उदाहरण राहुल कुमार का है। उन्होंने वर्ष 2015 में यूपीएससी की परीक्षा पास की और ओबीसी कोटे के तहत 297वां रैंक हासिल किया। ये भी संजय चेटुले की तरह आईएएस अधिकारी बनने की पात्रता रखते थे, लेकिन इन्हें आईआरएस से संतोष करना पड़ा। वह भी सामान्य श्रेणी के तहत। कारण यह रहा कि इनके पिता कोल इंडिया लिमिटेड में तृतीय श्रेणी के कर्मचारी हैं और चूंकि पदों की समतुल्यता संबंधी केंद्र सरकार की नीति स्पष्ट नहीं है, इसलिए वे ओबीसी आरक्षण का लाभ पाने से वंचित रह गए।

अपने आवास पर नवनियुक्त आईएएस अधिकारियों को संबोधित करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (तस्वीर साभार : डीओपीटी)
इसी तरह महाराष्ट्र के सूर्यवंशी स्वप्निल कुमार सुनील राव ने 2017 में अपने सपने को साकार किया और यूपीएससी की परीक्षा में ओबीसी कोटे के तहत 418वां रैंक हासिल किया। लेकिन ये आईएएस अधिकारी नहीं बन सके। इन्हें मजबूरी में सामान्य श्रेणी में इंडियन रेलवे ट्रैफिक सर्विस (आईआरटीएस) के तहत नौकरी स्वीकार करनी पड़ी। इनके पिता महाराष्ट्र के एक जिला परिषद स्कूल में असिस्टेंट शिक्षक हैं। वहीं इब्शन शाह केरल के हैं। इनके पिता केरल स्टेट फ़ाइनेंशियल इंटरप्राइजेज में जूनियर असिस्टेंट इंजीनियर हैं। इब्शन को ओबीसी कोटे के तहत 540वां रैंक हासिल हुआ और यदि आरक्षण का लाभ मिला होता तो आज आईएएस अधिकारी होते। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और इन्हें इंडियन कॉरपोरेट लॉ सर्विस (आईसीएलएस) अधिकारी के रूप में ज्वाइन करना पड़ा है।
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एक दास्तान मध्यप्रदेश की ज्येष्ठा मैत्रेयी की भी है। उन्होंने वर्ष 2017 में यूपीएससी की परीक्षा पास की। ओबीसी कोटे तहत उनकी रैंक 156 थी। उन्हें पिछले साल आईपीएस ज्वॉयन करना पड़ा जबकि वे आईएएस बनना चाहती थीं और उन्होंने इसके लायक रैंक भी हासिल किया था। मैत्रेयी के पिता मध्यप्रदेश में इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड में असिस्टेंट थे और उपभोक्ताओं की शिकायत पर फ्यूज बनाने का काम करते थे। उन्होंने अपनी बेटी को बड़ी मुश्किलों से पढ़ाया। लेकिन वे उसे आईएएस के रूप में नहीं देख सके। पिछले वर्ष 4 जनवरी को उनका निधन हो गया।
डीओपीटी का पेंच
ओबीसी की हकमारी के पीछे डीओपीटी की आरक्षण विरोधी नीति है। मंडल कमीशन की अनुशंसा को लागू करते हुए 1990 में पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया था। लेकिन इसके साथ ही यह प्रयास भी किया गया कि आर्थिक रूप से संपन्न ओबीसी परिवारों को इस आरक्षण से अलग रखा जाए। इसके लिए इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने क्रीमीलेयर की व्यवस्था दी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद एक विशेषज्ञ समिति बनी, जिसने इसके लिए वार्षिक आय की सीमा तय की। वर्तमान में यह सीमा आठ लाख रुपए है। साथ ही सरकारी कर्मचारियों के लिए कुछ प्रावधान भी किए गए। इन प्रावधानों के तहत ग्रुप ए के कर्मियों को स्वतः क्रीमीलेयर में मान लिया गया। जबकि ग्रुप बी के कर्मियों के मामले में यह प्रावधान किया गया कि ग्रुप बी का कोई अधिकारी यदि 40 वर्ष की उम्र के बाद ग्रुप ए में पदोन्नत होता है तो उसके बच्चों के लिए गैर क्रीमीलेयर का प्रमाण-पत्र मान्य होगा। ग्रुप सी और गुप डी के सरकारी कर्मियों के बच्चों के गैर क्रीमीलेयर प्रमाण-पत्र पर डीओपीटी को कोई आपत्ति नहीं रही है। इनकी आय में वेतन से प्राप्त आय को नहीं जोड़ा जाता है। यह प्रावधान डीओपीटी द्वारा 8 सितंबर 1993 को जारी ऑफिस मेमोरेंडम में किया गया।
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लेकिन ध्यान रहे कि यह व्यवस्था केवल केंद्र व राज्य सरकारों के कर्मियों के लिए है। लोक उपक्रमों, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, बीमा कंपनियों और सरकार द्वारा वित्तपोषित स्कूलों के शिक्षकों के बच्चों के लिए नहीं। वजह यह कि इनके पदों की समतुल्यता का निर्धारण नहीं किया गया है। इन उपक्रमों में काम करने वाले तृतीय व चतुर्थ वर्ग के ओबीसी कर्मियों की आय में वेतन से प्राप्त आय को शामिल किया जाता है और उनके बच्चे आरक्षण कोटे से बाहर हो जाते हैं।
संसदीय समिति की अनुशंसा भी बेमानी
भारत सरकार द्वारा इस मामूली जटिलता को दूर करने के प्रयास नहीं किये गए। परिणाम यह है कि वर्ष 2014 से लेकर अब तक करीब 70 ऐसे अभ्यर्थी हैं जिन्हें आरक्षण का लाभ नहीं मिला है। हालांकि इसके लिए केंद्र सरकार ने वर्ष 2017 में संसदीय समिति का गठन किया जिसके अध्यक्ष गणेश सिंह बनाए गए। अभी हाल में फारवर्ड प्रेस से विशेष बातचीत में सिंह ने कहा कि उनकी समिति ने यह सिफारिश की है कि वार्षिक आय में वेतन से प्राप्त आय को शामिल न किया जाय। इसके अलावा पदों की समतुल्यता को लेकर भी अनुशंसाएं की हैं। फिर डीओपीटी ने 8 मार्च 2019 को बी.पी. शर्मा की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है परंतु इस रिपोर्ट में क्या है और किस तरह की अनुशंसाएं की गयी हैं इसका खुलासा सरकार ने नहीं किया है।
फिलहाल चर्चा है कि बी.पी. शर्मा समिति ने वार्षिक आय में वेतन से प्राप्त आय को शामिल करने की बात कही है और यह सरकार द्वारा नियोजित सभी सरकारी कर्मियों के लिए लागू होगा। यदि यह सही है तो ओबीसी के बहुलांश आरक्षण से सीधे-सीधे बाहर हो जाएंगे।
(संपादन : अनिल/गोल्डी/अमरीश)
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मिस कैथरीन मेयो की बहुचर्चित कृति : मदर इंडिया
1-Whole population ki 60% OBC h phir bhi aarakshan 60% general ko kyu h
2-businesses Man k sath aisa kyu nhi karte ye log eg Ambani, ratan Tata, birla
3-aarakshan khatam karne se pahle jativad aur jati khatam hona Chahiye
4-kisan ki krisi aur sarkari karmchariyo k vetan ko kabhi bhi aadhar nhi bna sakte h aur agar inke aalava income ka sources h to US basis par kuch kiye ja sakta h
Sehmat.
1. yeh toh obc reservation ka pura aadhar hi palat rahe hain. OBC ka aarakshan social backwardness ke aadhar par hai na ki economic ke aadhar par. iss naye system ke hisab se jo mahine ka Rs. 33,333/- kamayega mahine vetan mein woh obc se bahar ho jayega. Pehle 8 lakh without salary tha. Abhi 12 lakh plus salary hai.
2. EK obc vyakti ka bacha kam se kam 21-22 saal ki umar se pehle exam ke liye appear nahi hota hai. iska matlab pita ki naukri 23-24 saal ki hogi. ek clerk ki salary mein bhi itna appreciation ho jata hai ki woh creamy layer mein aa jayega. agar uski patni bhale hi clerk level par kaam kar rahi hai toh aur badh jayega. Aur har insaan middle class se lekar neeche tak har mahine apni salary mein se bachat karta hai savings karne ke liye. Aisa nahi hai ki woh sirf salary ke dum par jee raha hai.
3. Dusra kaaran salary include nahi karni chaiye kyunki aise kai profession hain jisme saari salary paper par nahi dikhayi jaati/ja sakti, khaas taur se businessmen. interest income banks, post office se credit hota hai isliye record mein rehta. Nahi toh yeh vibhin classes ke beech mein discrimination paida kar dega.
4. NCBC aur Parliamentary affairs on OBC welfare ka bhi yahi man na hai. Sharma committee kaun hai jisme ek obc ka representative tak nahi hai.
5. har 3 saal mein ceiling limit revise karne ke liya bola tha. pichle 27 saal mein kam se kam 9 baari hona chaiye tha. lekin abhi tak sirf 5 baari kiya hai.