अन्नाभाऊ साठे की जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेष
अन्नाभाऊ साठे (1 अगस्त 1920 – 18 जुलाई 1969) मराठी के शीर्षतम साहित्यकारों में से हैं। उनकी कृति ‘मेरी रूस यात्रा’ को दलित साहित्य का पहला यात्रा-वृतांत कहा जाता है। उनकी जन्म शताब्दी के अवसर पर, आठ अध्यायों में फैले इस यात्रा-वृतांत के अंतिम अध्याय ‘ताशकंद से दिल्ली’ का हिंदी अनुवाद यहां प्रस्तुत है। इस अध्याय में अन्नाभाऊ साठे बता रहे हैं सोवियत रूस में अपने अनुभवों का सार। अन्नाभाऊ की सहज-सरल भाषा और किस्सागोई शैली पाठक को लगातार अपनी ओर खींचती है। अनुवाद के लिए मूल रचना ‘माझा रशियाचा प्रवास’ के अलावा डॉ. अश्विन रंजनीकर के अंग्रेजी अनुवाद, ‘माई जर्नी टू रशिया’ (न्यूवोइस पब्लिकेशन, औरंगाबाद) से भी मदद ली गई है
अलहदा था सोवियत रूस का समाजवाद
- अन्नाभाऊ साठे
सोवियत रूस की यात्रा के दौरान मैंने रूसी जनमानस की विभिन्न छवियों के दर्शन किए थे। वहां की अपार उद्योग संपदा, विद्वता, प्रतिभा, कला, साहित्य और उदात्त संस्कृति—इन सभी को देखकर मैं दंग था। दिल्ली छोड़ते समय हमारे शिष्ट मंडल के कुछ सदस्य व्यग्र थे। पूंजीवाद द्वारा सोवियत-विरोधी प्रचार की छाया हम सबके मन-मस्तिष्क में विद्यमान थी। साम्यवादी व्यवस्था में आखिर कितना विकास संभव है? यह प्रश्न हम सबके भीतर घुमड़ रहा था। दुनिया में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जो देश के प्रत्येक व्यक्ति को खुशहाल कर सके। कुछ न कुछ कमी तो वहां भी अवश्य रही होगी—यह हम सबका मानना था।
लखनऊवासी मिस्टर पुष्कराज भट्ट विधायक होने के साथ-साथ अच्छे विचारक भी थे। वे कांग्रेस के समर्थक थे। समाजवादी विचारधारा में उनका विश्वास नहीं था। लेकिन वे थे उदारचरित। रूस में वे हर वस्तु, व्यक्ति का ध्यानपूर्वक अवलोकन करते आए थे। मास्को पहुंचते-पहुंचते वे मेरे मित्र बन चुके थे। हम दोनों का मत था कि सत्ता लाख कोशिश करे, यदि समाज में गरीबी और विपन्नता है, तो उसे छिपाना संभव नहीं है। गरीबी नंगी होती है। किसी न किसी रूप में उसका नंगापन सामने आ ही जाता है। इसलिए हम दोनों सोवियत समाज में छिपे दयनीयता की पड़ताल में लगे थे। असलियत छिपाने के हमारे आगे वहां कोई फौलादी पर्दा नहीं था। सब कुछ सामने था। यही कारण है कि ताशकंद पहुंचते-पहुंचते मैंने देखा था कि मिस्टर पुष्कराज की मान्यताएं पूरी तरह बदल चुकी हैं।
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रूसी जनता की प्रगति से हम सभी प्रभावित थे। लेकिन हमारी रूस यात्रा का कार्यक्रम पहले से ही निर्धारित था। मैं रूसी भाषा से अनजान था। मिस्टर पुष्कराज उससे थोड़ा परिचित थे। जब भी कोई नामपट्ट नजर आता, एक-एक अक्षर कर वे उसे पढ़ने की कोशिश करने लगते थे। मैं सिर्फ उन्हें देखे जा रहा था। रूसी भाषा न जानने का मुझे बड़ा ही अफसोस था।
दिन का भोजन करने के बाद, एक बार मैं और मिस्टर पुष्कराज बाग में गए। वहां पंद्रह-बीस लोगों का एक समूह बगीचे में विश्राम कर रहा था। उनमें से कुछ अखबार पढ़ रहे थे। जबकि कुछ और लोग पत्र लिखने में तल्लीन थे। मैंने सोचा कि वह नौकरी की खोज करते-करते थक चुके बेरोजगारों का समूह हैं। हताश होकर यहां वे अपना वक्त गुजार रहे हैं। एक आदमी पर मेरी नजर पड़ी। उसकी मूंछें नुकीली थीं। अच्छे-खासे वस्त्र पहने हुए वह किसी पुस्तक में डूबा हुआ था।
‘आप इस तरह क्यों बैठे हैं?’ उसे गौर से देखते हुए मैंने पूछा।
‘तो मुझे किस तरह से बैठना चाहिए?’ उसने उत्तर दिया। उसका उत्तर सुनकर मैं उलझन में पड़ गया—‘नहीं, आप इस बगीचे में क्यों बैठे हैं?’
‘जैसे आप, वैसे ही मैं?’ उसने उत्तर दिया। तब मैंने अपने बारे में बता देना ही उचित समझा। मैंने उससे कहा कि हम भारतीय हैं और ‘भारत-सोवियत सांस्कृतिक संस्था’ की ओर से रूस आए हैं। मुझे बताएं कि आप कहां काम करते हैं? क्या आप बेरोजगार हैं?’
इसपर वह आदमी खूब जोर से हंसा। बोला—‘मैं सेवानिवृत्त हूं; और यहां आराम फरमा रहा हूं। मैंने लंबे समय तक काम किया है। अब मेरा काम लिखना, पढ़ना, रिश्तेदारों को पत्र भेजना तथा अखबार पढ़ना हैं। हमारे देश में एक भी बेरोजगार नहीं है। यहां समाजवाद है।’
उसके बाद कुछ भी पूछने को बाकी नहीं था। हम तुरंत बाग से बाहर निकल आए। मिस्टर पुष्कराज सड़क किनारे लगे बोर्डों को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। चलते-चलते हम एक भव्य इमारत के आगे रुक गए। उसके आगे रूसी भाषा में एक बोर्ड लगा था। पुष्कराज उसे पढ़ने की कोशिश कर रहे थे। हमेशा की तरह मैं उन्हें देखे जा रहा था। वहां से आते-जाते ताशकंद के नागरिक हमारी ओर देख रहे थे। जैसे ही पुष्कराज जी ने बोर्ड को पढ़ा, मैंने उनसे हिंदी में पूछा—‘वहां क्या लिखा है?’
‘यह एक बैंक हैं।’ पुष्कराज ने हिंदी में ही उत्तर दिया। तत्क्षण हमारे पार्श्व में खड़ी एक युवती हमारे करीब पहुंचकर हिंदी में बोली—
‘यह बैंक नहीं है। यह हमारा स्थायी चुनाव कार्यालय है।’
सुनते ही हमारे चेहरे शर्म से पीले पड़ गए। उस स्थान को छोड़ हम तत्काल आगे बढ़ गए।
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दूसरे दिन हम ताशकंद के ‘स्तालिन सामुदायिक कृषि फार्म’ को देखने गए। वह सामुदायिक कृषि फार्म किसी स्वायत्त राज्य की तरह था। अपने आप में पूरा आश्चर्य। पता चला कि उसकी स्थापना 1929 में की गई थी। उस समय वहां केवल 330 एकड़ जमीन पर खेती की जाती थी। 1934 तक पूरे कृषि फार्म में मात्र दो ट्रैक्टर थे। अब वह फार्म 1500 हेक्टेयर (3706 एकड़) जमीन पर फैल चुका था। खेती के लिए 34 ट्रैक्टरों की मदद ली जाती थी। 1104 किसान उस फार्म पर काम करते थे। उनमें 475 महिला किसान थीं। फार्म के भीतर चार स्कूल थे। एक बड़ा मुर्गी फार्म, जिसमें करीब 2500 मुर्गियां अंडों के ढेर पर विराजमान थीं।
फार्म के भीतर 1100 गायें थीं। उनके लिए जगह-जगह कई दुग्ध संग्रह केंद्र बने हुए थे। 13 दुग्ध दोहन केंद्र भी थे, जहां मशीनों की मदद से गाय का दूध दुहा जाता था। उनके अलावा 750 बकरियां थी। लोगों के रहने के लिए 375 घर थे। 20 ट्रक थे, जो दिन-भर सामान लाने-ले जाने के लिए दौड़ते रहते थे। यही क्यों फार्म में हाई स्कूल, अस्पताल, पशु अस्पताल, प्रसूति गृह, आदि सभी जरूरी सुविधाएं थीं, जिन्हें देखकर कोई भी दंग रह सकता था।
जिन दिनों हम वहाँ पहुंचे थे, अंगूरों की बहार आई हुई थी। काले, बैंगनी, गुलाबी, गोल, लंबे, आदि तरह-तरह रंग और रूपाकार के अंगूरों को देखकर मैं हैरान थे। कुल 15 किस्म के अंगूर वहां थे। बात केवल सोवियत संघ की प्रगति की सराहना की नहीं थी, असल में वहां का पूरा परिवेश ही विस्मित कर देने वाला था। विशाल, खूबसरत और समृद्ध कृषि फार्म, रसीले फलों, फूलों और प्रसन्नचित्त लोगों के बीच से गुजरते हुए हमने एक बड़ी और आलीशान मस्जिद में प्रवेश किया। पूरी मस्जिद अंगूरों की बेलों से लदी हुई थी। हर जगह पके हुए अंगूर लदे हुए थे। हमारे दोपहर के भोजन का प्रबंध मस्जिद में ही किया गया था। भीतर मेजों पर तरह-तरह के पकवान सजे हुए थे। उनसे उड़ती भारतीय मसालों की खुशबू हमें अपने घरों की याद दिला रही थी। लंच के दौरान गृह-स्वामी ने हमारे स्वागत में भावप्रवण भाषण दिया। उनका कहना था—
‘आप हमारे पड़ोसी हैं। शांति के समर्थक भी। आपके प्रधानमंत्री नेहरू शांति के लिए लगातार प्रयत्न कर रहे हैं। निश्चित रूप से हम भी यही चाहते हैं। यह दिखाता है कि दोनों देशों के उद्देश्य एक ही हैं। हमें विश्वास है कि हमारी मैत्री चिरकाल तक कायम रहेगी और दुनिया में युद्ध के लिए कोई जगह नहीं होगी। यही हमारी कामना है। इसलिए भारत-रूस दोस्ती जिंदाबाद।’
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रूस में हम जहां भी गए, वहीं शांति का जयघोष सुनाई पड़ता था। वहां हर कोई शांति के लिए बेताब था। इसका अर्थ यह नहीं है कि वे कमजोर अथवा निस्सहाय थे। वहाँ की जनता महान है। लोग शक्तिशाली हैं। वे मानते हैं विश्व की शांति केवल भारत और रूस के हाथों में ही सुरक्षित है। इस बात पर सभी नागरिक विश्वास करते हैं। माताएं सोचती हैं—मेरा बेटा रणक्षेत्र में किसी की हत्या नहीं करेगा। न ही वह युद्ध-स्थल पर दुश्मन की गोली का शिकार होगा। हमारी संतान सुखी जीवन जीने और इस देश का विकास करने के लिए है। हम शांति की चाहत रखते हैं। क्योंकि हमारा अनुभव है कि जीवन केवल शांतिकाल में ही फलता-फूलता है। शांतिकाल में कला-संस्कृति की प्रगति होती है। वातावरण महकता है और जनता खुशहाल रहती है। हमने व्यक्तिगत रूप से युद्ध और उसके परिणामों को देखा और भोगा है। उस अनुभव के कारण हम युद्ध नहीं चाहते।
कुल मिलाकर रूस की जनता विश्व शांति के प्रयासों में डटे हमारे प्रधानमंत्री को लाखों-करोड़ों दुआएं देती है। रक्तपात रोको….खूनखराबा बंद करो। रूस में सर्वत्र यही मंगलकामना सुनाई पड़ती है। इसके लिए उन्हें कोई अहंकार नहीं है। निरर्थक दुरभिमान भी नहीं है। प्रत्येक नागरिक विश्व-कल्याण की पवित्र भावना से ओतप्रोत रहता है। रूसी लोग मानते हैं कि भारत उनका सच्चा दोस्त है। इसलिए वे भारतीय संस्कृति का गंभीरता पूर्वक अध्ययन कर रहे हैं।
ताशकंद में हमने एक स्कूल का अवलोकन किया। वहां सभी विद्यार्थी हिंदी पढ़ रहे थे। उस पाठशाला ने हमें हमें भारतीय पाठशालाओं की याद दिला दी। वहां प्रत्येक विद्यार्थी हिंदी शब्दों का उच्चारण कर रहा था। उनके बीच खुद को पाकर मैं भौंचक्का था। कारण था, मेरी कमजोर मुंबइया हिंदी। इस डर से मैं उनसे हिंदी में संवाद करने से भी कतरा रहा था। इसलिए जब तक मैं वहाँ रहा, अधिकांश समय चुप्पी साधे रहा।
उसी दिन हमने ताशकंद विद्यालय का निरीक्षण किया। विद्यालय का सभागार बहुत बड़ा था। उस समय वह विद्यार्थियों से खचाखच भरा हुआ था। हमें पहुंचने में तनिक विलंब हुआ था। किंतु वहां के सुशील विद्यार्थी हमसे जरा-भी नाराज नहीं थे। जैसे ही हमने सभागार में प्रवेश किया, सभी विद्यार्थी हमारे स्वागत में खड़े हो गए। सभागार तालियों की गड़गड़ाहट से गूंजने लगा। एक सुंदर लड़की फूल देने के लिए आगे बढ़ी; और हमें फूल देते हुए बोली—
‘हमारे देश के इस फूल को भारत ले जाकर उन शहीद सिपाहियों के स्मृति-स्थल पर अर्पित कर दें, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था।’
उस फूल और नन्ही बालिका के भावप्रवण संदेश को लेकर मैं आगे बढ़ा। उस समय तक मैं विश्व और रूस के संदर्भ में भारतीय स्वतंत्रता की कीमत को समझ चुका था।
रूसी लोगों को आजादी शब्द से बेहद प्यार है। वे आजाद देश के नागरिकों से अनुराग रखते हैं। जबकि जो देश परतंत्र हैं, उनके प्रति उनके मन में सहानुभूति है।
आते-आते आखिर वह दिन आ ही गया जब हम अपने देश लौटने को तैयार थे। सोवियत जेट विमान हमें घर ले जाने को तैयार खड़ा था। उसे देखकर मेरा दिल भरा हुआ था। मेरे मित्र कामरेड बार्कीनोव, श्रीमती इराना, मिस्टर मोक्सीकोव, कामरेड नबी मोहम्मद हमें विदा करने के लिए, जहाज की सीढ़ियों तक आए थे। उनसे विदा लेने के विचार मात्र से हमारा दिल बैठा जा रहा था। आंसू पलकों तक ढुलक आए थे। मैं अपने आंसुओं को छिपाने का प्रयत्न कर रहा था। हम सब एक-दूसरे से गले मिले। हमारा वह मिलन अंतिम था। उस महान देश की झलक भी अंतिम थी।
अपने आंसुओं को छिपाने के लिए, बिना किसी कारण के मैंने अपनी जेब टटोली और बुदबुदाया—‘ओह! सिगरेट खत्म हो गईं! केवल बीस बची हैं….’ मुझे प्रभावित करने के लिए कामरेड मोक्सीकोव ने कहा—‘यह रूसी विमान है सर! आप के दो सिगरेट खत्म करने से पहले ही यह आपको आपकी राजधानी में पहुंचा देगा।’
मैंने हैरानी से उनकी ओर देखा। उन्होंने आगे कहा—‘यह आपको सीधे हिमालय से ले जाएगा।’ हिमालय का नाम सुनते ही मैं फिर अपनी मातृभूमि से जुड़ गया।
कामरेड बार्कीनोव ने मुझे अपना खूबसूरत पेन उपहार में दिया। उस सुंदर उपहार, उस महान देश की अंतिम झलक और वहां की मनभावन स्मृतियों को समेटे हमारा विमान तीव्र गति से उड़ चला।
उस समय मेरा मस्तिष्क अनेकानेक भावों से भरा हुआ था। 11 वर्ष की उम्र में मैंने अपने परिवार के साथ घर छोड़ा था। हमारे परिवार को मुंबई शिफ्ट होना था। हमारे पास बस का भाड़ा चुकाने के लिए पैसे नहीं थे, इसलिए हम पैदल ही मुंबई पहुंचे थे। लगातार चलने से मेरी टांगें सूज गई थीं। गांव से मुंबई तक की 365 किलोमीटर की दूरी को पार करने में हमें 2 महीने लगे थे। अब हमारा विमान 6 किलोमीटर प्रतिमिनट के वेग से उड़ रहा था। पृथ्वी तल से हमारा विमान करीब दस किलोमीटर ऊपर था। मैं नीचे देख रहा था। प्रकृति हिमालय के मस्तक पर बर्फ बरसा रही थी। अपनी बाहें फैलाए पर्वत सम्राट हिमालय सीमा पर प्रहरी की तरह सीना ताने खड़ा था।
हिमालय की पहाड़ियों का वह दर्शन और सोवियत रूस की स्मृतियां, मैं कभी नहीं भूल सकता। सच….उन्हें भूल पाना मेरे लिए संभव ही नहीं है। रूस का भ्रमण मेरे जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है।
अकस्मात मुझे लगा कि मेरा मन अपनी मातृभूमि की ओर खिंचा जा रहा है। इसी सम्मोहन में मैंने एक सिगरेट निकाली। उसे समाप्त करने के बाद जैसे ही मैंने अपनी दूसरी सिगरेट जलाई, मैंने जहाज में लगे लाल बोर्ड की ओर देखा….दिल्ली आ चुकी थी।
(अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप, संपादन : नवल)
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