हिंदी साहित्य का एक बड़ा हिस्सा घोर ब्राह्मणवादियों और सामंतवाद के पुरस्कर्ताओं के हाथ में है। केंद्र या राज्यों की साहित्य अकादमियां हों या भारतीय ज्ञानपीठ जैसी संस्थाएं, सभी की कार्यप्रणाली यही बताती है कि वे आज भी सामाजिक बदलाव को स्वीकार करने की इच्छुक नहीं हैं। मसलन, भारतीय ज्ञानपीठ (स्थापना 1965) और साहित्य अकादमी (1954) में न तो आरक्षण जैसी कोई व्यवस्था है और ना ही दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों के साहित्य को प्रोत्साहित करने का कोई विशेष उपक्रम वे करतीं हैं।
मोटे तौर पर साहित्य अकादमियां, संगीत-कला अकादमियां, नाट्य अकादमियां, ललित कला अकादमियां आदि द्विजों के पेट और घर भरने का साधन रही हैं। इन संस्थाओं में दलितों–पिछड़ों–आदिवासियों की भागीदारी नगण्य रही है। इन संस्थाओं के मुखिया अमूमन इन्हीं वर्गों से आते रहे हैं और इसका परिणाम यह है कि वर्चस्वादियों ने अपनी वर्ण श्रेष्ठता का लाभ उठाते हुए अपनी संस्कृति, अपने विचारों, अपने लेखकों–कलाकारों को स्थापित करने के लिए जमीन और पैसा उपलब्ध करवाया है, जिससे उनकी पीढियां मलाई खा सकें।
पश्चिम बंगाल सरकार की महत्वपूर्ण पहल
हाल में पश्चिम बंगाल सरकार ने दलित साहित्य अकादमी का गठन किया है। दलित साहित्यिक मनोरंजन ब्यापारी को इस संस्था का अध्यक्ष बनाकर बंगाल सरकार ने वंचित समूहों की एक पुरानी मांग को पूरा किया है। इससे देश के वंचित समूहों से आने वाले लेखकों में एक नई उम्मीद जागी है। प्रोत्साहन, संरक्षण, संवर्धन से अब वंचित समाज अपनी कला संस्कृति को उस स्तर तक पहुंचा पाएगा जहां संसाधनों के अभाव में उनकी योजनायें दम तोड़ देती थीं। इस प्रयास से यह भी साबित हुआ है कि मुख्यधारा की अकादमियों ने जिस तरह से दलितों–वंचितों को अछूत समझ रखा था, अब अब लम्बे समय तक चलने वाला नहीं है।

समय आ गया है कि केन्द्रीय स्तर पर वंचित समूहों के लिए अलग साहित्य, संगीत और नाट्य अकादमियों की स्थापना की जाए ताकि वंचित समूह भी अपनी कला संस्कृति को परजीवी समुदाय की कला, साहित्य और संस्कृति के समानांतर स्थापित कर सकें।
अब तक केवल दो राज्यों में सरकारी दलित साहित्य अकादमी
इस तरह की अकादमियों की स्थापना कुछ लोगों ने व्यक्तिगत प्रयासों से की है और कुछ छोटे–मोटे पुरस्कारों को भी प्रोत्साहन के तौर पर शुरू किया गया है. इनमें दिल्ली में बाबू जगजीवन राम द्वारा 1984 में व्यक्तिगत स्तर पर डॉ. सोहनपाल सुमनाक्षर की अध्यक्षता में ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ की स्थापना करना शामिल है । इसी तरह के व्यक्तिगत प्रयास से गुजरात में 1997 में गुजराती दलित साहित्य अकादमी गठित हुई। सरकार के स्तर पर अब तक केवल मध्य प्रदेश, और पश्चिम बंगाल में दलित साहित्य अकादमी का गठन किया गया है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ‘आदिवासी लोककला एवं बोली विकास अकादमी’ भोपाल की स्थापना भी की गई है। यह भी एक उल्लेखनीय प्रयास है।

लेखकों-विचारकों की राय
‘वंचित समुदाय से आने वाले गजलकार वी. आर. विप्लवी अपनी राय जाहिर करते हुए लिखते हैं कि “भारतीय समाज के ताने–बाने में वर्णवादी मानसिकता का जो घुन उसके रुई–सूत में गहरे तक पैठा हुआ है, वह भारत को फिलहाल एक पूर्ण राष्ट्र–राज्य बनने नहीं दे रहा है। दक्षिणपंथ के वर्चस्व वाली वर्तमान सरकार ने एक समतावादी समाज के निर्माण की तनिक गति पकड़ती दिशा को उल्टा घुमा दिया है, इसलिए यह प्रक्रिया भी अगले 100 सालों के लिए पीछे चली गई है। ऐसी दशा में एक संयुक्त और समन्वयवादी समाज की अकादमिक संस्थानों में सभी वर्गों की समुचित भागीदारी का सपना साकार होता नहीं दिखाई दे रहा है। अतः दलित साहित्य की तर्ज पर दलित साहित्य अकादमी, दलित नाट्य अकादमी, दलित संगीत अकादमी, दलित कला अकादमी इत्यादि के निर्माण की आज महती आवश्यकता है। इन संस्थाओं के कार्यान्वयन, संचालन तथा आर्थिक कार्य–व्यापार के बारे में अलग–अलग राय हो सकती है किंतु, वर्तमान सवर्णवादी/ब्राह्मणवादी वर्चस्व वाली अकादमियों में सामाजिक न्याय के अनुरूप हिस्सा दिला पाने की संकल्पना को साकार करना आज दूर की कौड़ी ही है।”
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लेखक रामजी यादव कहते हैं कि “सबसे पहले तो इस तथ्य को सामने रखा जाना चाहिए कि बहुजन समाज की स्पष्ट पक्षधरता करने वाला साहित्य अनेक कारणों से बहुत पीछे रह गया है। कबीर और रैदास जैसे महान कवियों की रचनाओं तक की कोई साफ व्याख्याएं नहीं थीं और ब्राह्म्णों ने अपने हितों के अनुसार इनका भाष्य किया। उन्नीसवीं और बीसवीं सदियों में लिखे गए बहुजन साहित्य का मूल्यांकन भी बहुत बाद में होना शुरू हुआ। इसके बाद दलितों ने अपनी स्पष्ट नीति बनाई और तथाकथित मुख्यधारा को नकार दिया। लेकिन ओबीसी साहित्य में एक ढुलमुल स्थिति बनी रही जिससे वह अभी तक ब्राह्मणवादी साहित्य के लिए चुनौती नहीं बन सका है। वह लगातार मिक्स होने की कोशिश कर रहा है जिसका स्वाभाविक परिणाम है कि उसकी कोई स्पष्ट पहचान नहीं बन सकी है जो कि अतिशीघ्र होना चाहिए। साहित्य लेखन के साथ बहुजन लेखकों को निर्णायक पदों पर पहुंचना होगा और मजबूती से साहित्य और समाज के क्षेत्रों में काम करना होगा वरना वे लम्बे समय तक बहिष्कार का शिकार होकर उनके साथ न्याय किये जाने की दयनीय गुहार लगाता रहेगा।”
हिंदी आलोचक योगेश प्रताप शेखर की राय इस मामले में कुछ अलहदा है। वे बताते हैं कि “अलग के पक्ष में तो मैं नहीं हूँ। हमारा संघर्ष यह है कि इन अकादमियों में दलितों, आदिवासियों एवं वंचितों की ज़्यादा से ज़्यादा भागीदारी कैसे हो? इसके लिए प्रकाशन से ले कर पुरस्कारों तक में हमें अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होगी। ब्राह्मणवाद से संघर्ष प्रगतिशील और समानतामूलक मूल्यों के प्रसार से ही संभव है। हमें ब्राह्मणवाद को पुष्ट करने वाले विचारों, रचनाओं और आयोजनों को बिना किसी हिचक के ख़ारिज करना होगा। जिन रचनाओं का ब्राह्मणवादी मूल्यांकन किया गया है, उन का फिर से पाठ करना होगा।”
सवाल जरूरी है और जवाब भी
साहित्य अकादमी के 63 सालों के इतिहास में 29 बार ब्राह्मण, 10 बार कायस्थ, 9 बार वैश्य, 7 बार राजपूत, 5 बार खत्री, 1 बार भूमिहार, 1 बार जैन और 1 बार जाट को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है आखिर अस्सी प्रतिशत जनसंख्या वालों की जाति या वर्ग का लेखक साहित्य अकादमी की सूची में शामिल क्यों नहीं हैं?
जाहिर तौर पर इस सवाल का जवाब जरूरी है।
(संपादन : नवल/अमरीश)
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