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कोविड वैक्सीन का ट्रायल केवल दलितों, आदिवासियाें और पिछड़ों पर क्यों?

मध्य प्रदेश में एंटी कोविड वैक्सीन के ट्रायल के लिए लोगों को प्रति डोज 750 रुपए देने की बात सामने आई है। इनमें से भोपाल गैस कांड के पीड़ित दीपक मरावी भी थे, जिनकी मौत कोवैक्सीन नामक दवा का डोज लेने के दस दिनों के बाद मौत हो गई। अब सरकार और कंपनी दोनों अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ रहे हैं। ताबिश हुसैन की तफ्तीश

समाज का गरीब, कमजोर, वंचित वर्ग और आदिवासी समूह हमेशा अपने होने की कोई न कोई कीमत चुकाता है। दूसरी ओर प्रभुत्व वर्ग, पूंजीपति और यहां तक कि सरकार शोषक की भूमिका में खड़ी होती है। यही वजह है कि इनसे जुड़े गंभीर सवालों पर भी सरकार की नीतियां स्पष्ट नहीं होती है और होती है तो उसका क्रियान्वयन ढंग से नहीं हो पाता है। ताजा मामला मध्य प्रदेश के भोपाल का है जहां चंद रुपयों का लालच देकर समाज के गरीब, वंचित और हाशिए पर पड़े लोगों को बिना उनकी सहमति के कोविड-19 वैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल का हिस्सा बनाया गया। इस पूरे मामले में जिस तरह से नियमों और कानूनों की अवहेलना की गई उससे साफ है कि प्रभुत्वशाली वर्ग और सत्ता का निजाम किस तरह से वंचित और हाशिये पर पडे़ अवाम की सुरक्षा, अधिकार और उनके हितों को नजरअंदाज कर देता है।

“दो दिन पहले मोहल्ले में अस्पताल की एक प्रचार गाड़ी आई थी। माईक पर कहा था कि पीपुल्स मेडिकल काॅलेज और अस्पताल में कोरोना का फ्री टीका लगेगा और टीका लगवाने वाले को 750 रुपए भी दिए जाएंगे। दो दिन बाद जब मोहल्ले में दोबारा प्रचार गाड़ी आई तो मैं मोहल्ले की कई महिलाओं के साथ टीका लगवाने चली गई। टीका लगवाने के बाद मेरे पेट और सिर में दर्द हुआ था। बुखार भी आया था।” यह कहना है यशोदा बाई जाटव का। 

पैसे की लालच में लगवाया टीका

भोपाल के प्रताप नगर निवासी यशोदा बाई सिलाई का काम करती है। वह पैसे की लालच में टीका लगवा आई थीं। शिवनगर काॅलोनी निवासी मुन्नी जाटव, हीरालाल, जितेंद्र और ढेर सारे लोग इसी पैसे के लालच में टीका लगवाने गए थे। मुन्नी जाटव को भी टीकाकरण के बाद बुखार आया था। मुन्नी कहती हैं, “बुखार और पांव में सूजन होने के बाद मैंने स्थानीय डाक्टर से पूछकर दवा लिया था।” 

भोपाल का पीपुल्स अस्पताल जहां कोवैक्सीन के ट्रायल के तौर पर लोगों को टीका लगाया गया

भोपाल के ओडिया नगर, शंकर नगर, शिवनगर, छोला, सुभाष नगर सहित कई इलाकों के लोगों को कोरोना का टीका देने के नाम पर कोवैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल का हिस्सा बनाया गया।

अंतर्राष्ट्रीय गोल्डमैन एनवायर्नमेंटल प्राइज से सम्मानित भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ की अध्यक्षा रशीदा बी कहती हैं कि “इस टीके के ट्रायल में शामिल 1700 लोगों में से 700 लोग यूनियन कार्बाइड दुर्घटना के दुष्प्रभाव से ग्रस्त हैं। टीका लगने के बाद से बहुत से लोग अभी भी गंभीर तकलीफें झेल रहे हैं।”

दीपक मरावी का मामला

आदिवासी समुदाय के दीपक मरावी (47 वर्ष) भी इनमें से एक थे। वह भोपाल के टिला जमालपुर के सूबेदार काॅलोनी में किराए के एक कमरे में अपनी पत्नी वैजयंती मरावी और तीन बच्चों के साथ रहते थे। दीपक मजदूर थे और उनकी पत्नी घरों में झाड़ू-पोंछा का काम करती हैं। वैजयंती भोपाल गैस त्रासदी की पीड़िता हैं। उन्हें खुद दमे की शिकायत है और छोटे बेटे को हृदय की बीमारी है। दीपक मरावी को 12 दिसंबर,2020 को पीपुल्स मेडिकल काॅलेज में कोवैक्सीन का पहला डोज दिया गया था। 19 दिसंबर को उन्हें घबराहट, बेचैनी और उल्टी हुई थी। पैसे के अभाव में वह इलाज के लिए डाक्टर के पास नहीं जा सके थे। फिर 21 दिसंबर को जब उनकी पत्नी और बच्चे घर में नहीं थे तभी दीपक मरावी की मौत हो गई। पोस्टमार्टम के बाद 22 दिसंबर को उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। 

मृतक दीपक के बेटे आकाश मरावी का कहना है कि अस्पताल से आने के बाद कई बार उनलोगों ने फोन कर उनके पिता का हालचाल पूछा था, हालांकि कोई घर पर देखने या फिर अस्पताल में नहीं बुलाया था। मौत वाले 21 दिसंबर को भी अस्पताल से वैक्सीन का दूसरा डोज लेने के लिए अस्पताल से फोन आया था, तब घर के किसी दूसरे सदस्य ने अस्पताल के कर्मचारी को दीपक के मौत की खबर दी थी। आकाश मरावी ने अपने पिता की मौत का कारण वैक्सीन और अस्पताल के डाक्टरों की लापरवाही को बताया है।

दीपक की पत्नी, मकान मालिक राधेश्याम और उनके पड़ोसियों के मुताबिक दीपक बिल्कुल स्वस्थ्य व्यक्ति थे। उन्हें पहले से किसी तरह की समस्या नहीं थी। दीपक के पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का कारण हृदय गति का रुकना बताया गया। सरकार ने दीपक का बेसरा क्लीनिकल परीक्षण करने के लिए उच्चस्तरीय लैब में भेजा है।

कोवैक्सीन एक स्वदेशी कोविड-19 वैक्सीन है, जिसे हैदराबाद की कंपनी भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) ने मिलकर बनाया है। सरकार ने 3 जनवरी को कोविड-19 की जिन दो कंपनियों की वैक्सीन को सीमित तौर पर आपातकाल स्थिति में प्रयोग करने की अनुमति दी थी, कोवैक्सीन उनमें से एक है। इनमें दूसरी वैक्सीन कोविशील्ड है जिसे लंदन की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी-एस्ट्राजेनेका कंपनी ने विकसित किया है और भारत में इसका उत्पादन पुणे की एक निजी कंपनी सीरम इंस्टीट्यूट कर रही है।

दीपक की मौत पर बायोटेक का जवाब

कोवैक्सीन निर्माता कंपनी भारत बायोटेक का मत है कि उसकी वैक्सीन का अबतक 26 हजार लोगों पर ट्रायल किया गया है, जिसमें भोपाल में दीपक मरावी की मौत का यह पहला मामला सामने आया है। फिलहाल कंपनी ने यह कहते हुए अपना पल्ला झाड़ लिया है कि दीपक मरावी की मौत का वैक्सीन के परीक्षण से कोई संबंध नहीं है। कंपनी ने गांधी मेडिकल काॅलेज के उस पीएम रिपोर्ट का हवाला दिया है जिसमें मौत का कारण हृदय गति का रुकना बताया गया है। कंपनी ने यह भी कहा है कि मृतक को वैक्सीन की सिर्फ एक ही खुराक दी गई थी, जिससे मौत संभव नहीं है। भोपाल में कंपनी के इस वैक्सीन के तीनों चरण का ट्रायल समाप्त हो चुका है।

कोवैक्सीन का टीका, जिसके टायल में सामने आई अनियमितताएं

कंपनी ने भले ही इस पूरे मामले में अपना पल्ला झाड़ लिया हो, लेकिन इसमें पीपुल्स मेडिकल काॅलेज की तरफ से हर स्तर पर घोर लापरवाही बरती गई है और क्लीनिकल ड्रग ट्राॅयल के नियमों की धज्जियां उड़ाई गई है।

अस्पताल ने वैक्सीन ट्राॅयल में हिस्सा लेने वालों वाॅलंटीयर्स को अंधेरे में रखकर उन्हें वैक्सीन का डोज दिया। ड्रग कंट्रोलर ऑफ इंडिया और आईसीएमआर के गाइडलाइन में स्पष्ट निर्देश है कि किसी क्लीनिकल ड्रग ट्रायल में वाॅलंटीयर को साफ तौर पर ट्राॅयल की जानकारी देना और उसकी स्वैच्छिक स्वीकृति लेना अनिवार्य है। इसके लिए लिखित तौर पर सहमति लेनी होती है। यहां ऐसा कुछ नहीं किया गया। वाॅलंटीयर्स से फ्री कोरोना वैक्सीन के नाम पर कागजात पर बिना बताए दस्तखत या अंगूठे का निशान लिया गया। क्लीनिकल ड्रग ट्रायल में हिस्सा लेने वाले वाॅलंटीयर्स को किसी तरह का अर्थिक लाभ देने की मनाही है, लेकिन यहां उन्हें प्रति डोज 750 रुपए दिए गए। वैक्सीन लगाने के बाद वाॅलंटीयर्स को चिकित्सीय देखरेख में रखे जाने का प्रावधान है, लेकिन अस्पताल के डाक्टरों ने फोन पर एक दो बार हाल-चाल पूछने के अलावा वाॅलंटीयरों के स्वास्थ्य परीक्षण के लिए कोई व्यवस्था नहीं की। वैक्सीनेशन में हिस्सा लेने वाले वाॅलंटीयरों का बीमा करना, मृत्यु या स्थाई अपंगता के कारण उन्हें न्यूनतम आठ लाख रुपये का मुआवजा देने का प्रावधान किया गया है, लेकिन यहां अस्पताल और कंपनी दोनों इससे बचने की कोशिश कर रहे हैं। 

अस्पताल प्रबंधन की सफाई 

इंडियास्पेंड की एक रिर्पोट के अनुसार, पीपुल्स मेडिकल काॅलेज के डीन ए.के दीक्षित ने दावा किया था कि वैक्सीनेशन में शामिल लोगों की ऑडियो-वीडियोग्राफी कराई गई थी और उनसे मौखिक तौर पर सहमति ली गई थी, जबकि वाॅलंटीयरों ने ऐसे किसी भी ऑडियो-वीडियोग्राफी और मौखिक सहमति देने से इंकार किया है।

इस पूरे मामले को लेकर भोपाल में यूनियन कार्बाइड गैस कांड के पीड़ितों के लिए काम करने वाले संगठनों ने 10 जनवरी को प्रधानमंत्री और केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री को पत्र लिखकर भोपाल में जारी कोवैक्सीन के क्लीनिकल ट्रायल को अविलम्ब बंद करने की मांग की थी। संगठनों ने कोवैक्सीन ट्रायल में भाग ले रहे लोगों की सुरक्षा और उनके हकों को नजरअंदाज करने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों और संस्थाओं के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई और प्रतिभागियों के सेहत को पहुंचे नुकसान के लिए मुआवजे की मांग की है। इसमें ट्रयल में शामिल मृतक दीपक मरावी के परिवार को ‘‘कोरोना वॉरियर” को दिया जानेवाला 50 लाख रुपए की भी मांग की गई है। 

इस क्लीनिकल ट्रायल में व्याप्त अनियमितताओं को रेखांकित करते हुए भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एण्ड एक्शन की रचना ढींगरा कहती हैं, “टीका लगवाने के बाद लोगों को हुई तकलीफों का कोई रिकार्ड नहीं रखा जा रहा है और कई जब अपनी तकलीफों के लिए अस्पताल पहुंचे तो उन्हें उपचार देने बजाय वापस कर दिया गया। जो लोग ट्रायल में शामिल हुए उनकी सेहत की कोई निगरानी नहीं की जा रही है और न उन्हें इलाज दिया जा रहा है।”

भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ की अध्यक्षा रशीदा बी ने कहती हैं, “यह कोई पहला मामला नहीं है जब गरीब, पीड़ित और वंचित वर्ग के लोगों के जीवन के अधिकारों को नजरअंदाज किया गया है। 12 साल पहले भोपाल मेमोरियल अस्पताल में विदेशी दवा कम्पनियों के दवाओं के क्लीनिकल ट्रायलों में 13 गैस पीड़ितों की मौत के लिए आज तक किसी को सजा नहीं दी गई।”

पहले भी सामने आ चुकी हैं अनियमितताएं

वैसे कोविड-19 वैक्सीन के ट्रायल के पहले से मध्य प्रदेश क्लिनिकल ड्रग ट्रायल के लिए कुख्यात रहा है। यहां के आदिवासी और वंचित वर्ग अंतरराष्ट्रीय फार्मा कंपनियों के गैर कानूनी ड्रग ट्रायल के शिकार होकर अपना जीवन दांव पर लगाते रहे हैं। वर्ष 2011 के नवंबर में मध्य प्रदेश के आर्थिक अपराध शाखा ने विधानसभा मंे अनैतिक क्लीनिकल ड्रग ट्रायल पर अपनी एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसमें बताया गया था कि वर्ष 2006 से 2010 के बीच दवाओं के क्लीनिकल ट्रायल में हिस्सा लेने वाले 32 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 49 लोग हमेशा के लिए शारीरिक अपंगता के शिकर हो चुके हैं। इस मामले में इंदौर के एमजीएम कालेज के शिशु रोग विभाग, चाचा नेहरु बाल चिकित्सालय एवं अनुसंधान केंद्र और एमवाॅय अस्पताल के डिपार्टमेंट ऑफ न्यूरोलाॅजी में 3,307 लोगों पर 76 तरह की दवाओं का ट्रायल किया गया। इसमें छह डाक्टरों को सस्पेंड किया गया था और उनपर दवा कंपनियों से 5-5 करोड़ रुपए लेने का आरोप लगा था। इस पूरे ट्रायल में अधिकांश लोग आदिवासी और वंचित समूदाय के थे जिन्हें फ्री इलाज का लालच देकर नई दवाओं का ट्रायल किया गया था।

वहीं वर्ष 2012 में बीबीसी भी अपनी एक रिपोर्ट में इस बात का खुलासा कर चुका है कि मध्य प्रदेश में कैसे चोरी-छिपे गैर कानूनी तरीके से विदेशी फार्मा कंपनियों के लिए सरकारी और निजी अस्पतालों के डाक्टर क्लीनिकल ड्रग ट्रायल का काम करते हैं। इनमें वह अधिकांश दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोगों को अपनी मुहिम का हिस्सा बनाते थे। बीबीसी ने दावा किया था इस ट्रायल में पिछले सात सालों में 2000 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी थी।

सवाल शेष है 

बहरहाल, भोपाल में जिस तरह की लापरवही सामने आई है उससे साफ है कि बीबीसी की इस रिर्पोट और अवैध क्लीनिकल ट्रायल की घटनाओं के आठ साल बाद भी स्थितियां नहीं बदली है। मध्य प्रदेश दलित आदिवासी जागृति संघ से जुड़ी एक्टिविस्ट माधुरी कहती हैं, कोविड टीके के नाम पर सरकार आदिवासी और वंचित समूह के लोगों को बलि का बकरा बना रही है। टीका अभी तक प्रामाणिक नहीं है। कई यूरोपियन देशों में टीके के दुष्प्रभाव और वाॅलंटीयरों की मौत का भी मामला सामने आया है। प्रदेश में हर साल दलित और आदिवासी की एक बड़ी आबादी टीवी, मलेरिया, कुपोषण जनित व अन्य बीमारियों से असमय मौत के मुंह में समा जाती है। सरकार इसपर कभी गंभीरता से कोई पाॅलिसी नहीं बनाती है। कोविड से इस समूह के लोगों की सबसे कम मौतें हुई हैं, फिर कोविड-19 वैक्सीन का ट्रायल या वैक्सीनेशन के लिए इन्हें ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है? 

(संपादन : नवल)


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